महिलाओं का जीवन संघर्षों से भरा रहा है। यह बात छिपी नहीं है। सुबह से लेकर रात तक काम में खपि रहने वाली महिलाओं के लिए यह ज्यादा चुनौतीपूर्ण तब हो जाता है। जब जल संकट उन्हें पूरी तरह असहाय बना देता है। गर्मियों के दिनों में जलवायु परिवर्तन के कारण पड़ने वाली भीषण गर्मी के कारण पानी आता ही नहीं है। इसका सीधा असर उन महिलाओं की जिंदगी में होता है जो काम के बोझ तले पहले से ही बूढ़ी हो रही होती हैं। ऊपर से जल संकट उन्हें पूरी तरह तोड़ देता है। उनके जीवन का ज्यादातर हिस्सा मूलभूत सुविधाओं को इकट्ठा करने में व्यतीत हो जाता है। वह अपनी पारंपरिक भूमिका में इस तरह बांध दी गई हैं कि उन्हें अपने लिए फ़ुर्सत ही नहीं मिल पाती है। एक तो सारा दिन घरेलू काम, बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल इसके अलावा पानी भरने का अतिरिक्त बोझ उन पर हावी हो जाता है।
पानी की राह में थकान, दर्द और पितृसत्ता का बोझ
ग्रामीण भारत की महिलाएं घर परिवार की जिम्मेदारी के बीच इस तरह उलझी रहती है कि उन्हें खुद के लिए न तो समय मिलता है। न उनका कोई ख्याल रखा जाता है। उन्हें घर में एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जाता है, जिसे काम करने की आदत है जो बिना थके सारे काम निपटा लेती है। उनके लिए किसी तरह की संवेदना व्यक्त नहीं की जाती। यह पितृसत्तात्मक समाज ही है जिसने ग्रामीण महिलाओं को घर परिवार बच्चों की जिम्मेदारी से लेकर जानवरों तक का सारा जिम्मा अकेले उनके हिस्से डाल दिया गया है। इंडिया टूडे में छपी एक खबर के मुताबिक, भारत के टाइम यूज़ सर्वे से पता चलता है कि विवाहित महिलाएं अपने दिन का औसतन 27 फीसद यानी 6.5 घंटे अवैतनिक घरेलू कामों और देखभाल पर व्यतीत करती हैं, जबकि विवाहित पुरुषों के लिए यह केवल 3फीसद यानी लगभग 45 मिनट है।
हमारे गांव में गर्मी के 2 महीने सबसे ज्यादा सूखे रहते हैं। एक तो हमारे गांव में एक ही नल है। उसमें भी उन दिनों पानी आता ही नहीं है और अगर आता भी है, तो बहुत कम जिससे हमारा काम नहीं चल सकता है। हमें दूसरे गांव में पानी लेने जाना होता है। वहां के लोग भी अच्छा व्यवहार नहीं करते उन्हें लगता है कि हम उनका पानी कम कर रहे हैं।
पहाड़ों में महिलाओं को जंगलों से बाघ के उठाने की खबर हो या घास काटते समय किसी पहाड़ी से गिरकर मौत की खबरें हर साल सामने आती रहती हैं। ऐसे में जल संकट की मार झेलती हुई महिलाएं अपने पीठ में 40लीटर का बड़ा जार लाती दिख जाएंगी। जो समय उनको थोड़ा आराम करने को मिलता था उस में अब उनके ऊपर पानी इकट्ठा करने का अतिरिक्त दबाव है। जो उनके मानसिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है। डाउन टू अर्थ में छपे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) से पता चलता है कि लगभग 71फीसद ग्रामीण परिवारों में, 15 साल और उससे अधिक उम्र की महिलाएं ही पानी इकट्ठा करने के लिए पूरी तरह ज़िम्मेदार हैं। ये यात्रा, जो सालाना औसतन 173 किलोमीटर की होती हैं, जिसमें लगभग 210 घंटे या लगभग पूरे 27 दिन हर साल केवल पानी इकट्ठा करने में ही बर्बाद हो जाते हैं।
दिन भर घर ,खेत जानवरों की देखभाल करने के बाद पानी की तलाश में जाती उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले की भट्टयूडा गांव की निर्मला जिनकी उम्र 35 साल है वह बताती हैं, “हमारे गांव में गर्मी के 2 महीने सबसे ज्यादा सूखे रहते हैं। एक तो हमारे गांव में एक ही नल है। उसमें भी उन दिनों पानी आता ही नहीं है और अगर आता भी है, तो बहुत कम जिससे हमारा काम नहीं चल सकता है। हमें दूसरे गांव में पानी लेने जाना होता है। वहां के लोग भी अच्छा व्यवहार नहीं करते उन्हें लगता है कि हम उनका पानी कम कर रहे हैं। जानवरों के लिए ,घर के कामों के लिए सभी के लिए तो पानी की जरूरत है। सर दुखने लगता है। कमर में दर्द रहता है लेकिन हम क्या कर सकते हैं पानी तो लाना ही पड़ता है। जब बच्चे घर में रहते हैं तो वो थोड़ी मदद कर देते हैं। बाकी किसी की कोई मदद नहीं मिलती। घर के पुरुष तो बहुत बार ऐसे पानी का इस्तेमाल करते हैं,जैसे जल संकट हो ही ना, वह बहुत पानी का इस्तेमाल कर लेते हैं।”
पहले जंगल जाओ वहां से घास या लकड़ियां लेकर आओ। जो बहुत थकाने वाला काम होता है। लेकिन इसके साथ ही हमें सारी जिम्मेदारी निभानी होती है। यह काम उठने से शुरू होकर रात तक बिना रुके चलता रहता है। कभी -कभी तो हम रात को ही पानी लाने चले जाते हैं। क्योंकि सुबह पानी नहीं मिलता।
पशुओं का चारा और पानी लाती महिलाओं की दिनचर्या
जंगल से लकड़ी लाना हो या पशुओं के लिए घास लाना हो। यह सारे काम हमारे पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के जिम्मे आते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों की महिलाएं समूह में एक साथ जंगल जाती और घास लाती दिख जाती हैं। इसके साथ-साथ भीषण गर्मी के बीच पानी इकट्ठा करना अपने आप में चुनौती है। पशुओं के लिए घास लेने जाना तो अनिवार्यता है। जल संकट न सिर्फ मानसिक रूप से तनाव ग्रस्त करता है,बल्कि महिलाओं का वह समय भी नहीं बचता जहां वह अपने स्वास्थ्य का ख्याल रख सकें। जिसका सीधा असर उनके जीवन में पड़ता है, जिसकी गुणवत्ता में गिरावट देखी जाती है। सामाजिक उपेक्षा के बीच पली बढ़ी महिलाओं के दिमाग में खुद के लिए ही यह धारणा बन जाती है कि उनका स्वास्थ्य ज्यादा मायने नहीं रखता। हालांकि पुरुषों को कुछ होना पूरे परिवार को चिंतित कर देता है और उसकी देखभाल में सारा परिवार लगा होता है।
जल संकट का सामना करती उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले की रहने वाली सुलेखा बताती है, “ पहले जंगल जाओ वहां से घास या लकड़ियां लेकर आओ। जो बहुत थकाने वाला काम होता है। लेकिन इसके साथ ही हमें सारी जिम्मेदारी निभानी होती है। यह काम उठने से शुरू होकर रात तक बिना रुके चलता रहता है। कभी -कभी तो हम रात को ही पानी लाने चले जाते हैं। क्योंकि सुबह पानी नहीं मिलता। इसमें जंगली जानवरों का डर तो रहता ही है। साथ में अंधेरे में गिरने का डर भी बना रहता है। नींद भी पूरी नहीं हो पाती वो अलग बात है।”
मैं अपनी मम्मी के साथ पानी भरने जाती हूं। जो मुझे थका तो देता ही है। साथ ही दूसरे गांव में जाकर पानी लाना अपमान भरा भी हो जाता है। वहां के लोग हमसे ठीक व्यवहार नहीं करते। जल संकट का असर मेरी पढ़ाई में पड़ता है। जो समय मैं अपनी पढ़ाई को देती वह मुझे पानी को देना होता है। यह मानसिक रूप से भी थकाने वाला है।
सूखते जल स्रोत, पानी के लिए जूझती महिलाएं
दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन एक गंभीर समस्या बनती जा रही है। इसका असर सबसे ज्यादा हिमालयी क्षेत्रों में नजर आ रहा है। जहां ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं,वहीं प्राकृतिक जल स्रोत भी सूखते जा रहे हैं, जिसने जल संकट का रूप ले लिया है। डाउन टू अर्थ में छपी साल 2018 की नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पूरे भारत में 50 लाख झरने हैं, जिनमें से लगभग 30 लाख अकेले भारतीय हिमालयी क्षेत्रों में हैं। भारत में 20 करोड़ से ज़्यादा लोग झरनों पर निर्भर हैं, जिनमें से 5 करोड़ लोग इस क्षेत्र के 12 राज्यों में रहते हैं। इसके बावजूद, इन झरनों की सही देखभाल नहीं की गई है। चरम मौसमी घटनाओं का असर न सिर्फ फसलों में देखने को मिल रहा है।
इससे प्राकृतिक जल स्रोत सूखते जा रहे हैं। जिसका सीधा असर महिलाओं के जीवन में उनके दैनिक कामों में देखने को मिल रहा है। इस विषय में गांव की बुजुर्ग महिला बसंती देवी जिनकी उम्र 84 साल है वह कहती हैं, “आजकल पानी कहां है। हमारे दिनों गाड़ (छोटी नदी) हुआ करते थे। जानवर भी वहीं पानी पीते थे और हम सभी महिलाएं भी वहीं नहाती और कपड़े धोती थीं। लेकिन अब गाड़ में तो पानी नहीं है। पानी के लिए कहां जाएं? साथ ही गांव का नौला जो कभी पानी से भरा रहता था । जब से गांव में सड़क आई वह सूख चुका है। इन दिनों तो बहुत संकट है,पानी दूर से लाने के लिए भी पानी नहीं है।” पानी भरने का सारा जिम्मा पारंपरिक रूप से महिलाओं का है। इसके लिए उनके बच्चे मदद करते नजर आते हैं।
आजकल पानी कहां है। हमारे दिनों गाड़ (छोटी नदी) हुआ करते थे। जानवर भी वहीं पानी पीते थे और हम सभी महिलाएं भी वहीं नहाती और कपड़े धोती थीं। लेकिन अब गाड़ में तो पानी नहीं है। पानी के लिए कहां जाएं? साथ ही गांव का नौला जो कभी पानी से भरा रहता था । जब से गांव में सड़क आई वह सूख चुका है।
ऐसे में योगिता जिसकी उम्र 15 साल है वह बताती है, “मैं अपनी मम्मी के साथ पानी भरने जाती हूं। जो मुझे थका तो देता ही है। साथ ही दूसरे गांव में जाकर पानी लाना अपमान भरा भी हो जाता है। वहां के लोग हमसे ठीक व्यवहार नहीं करते। जल संकट का असर मेरी पढ़ाई में पड़ता है। जो समय मैं अपनी पढ़ाई को देती वह मुझे पानी को देना होता है। यह मानसिक रूप से भी थकाने वाला है। दिन भर पानी ही दिमाग में चलते रहता है। भरे हुए पानी को भी बहुत थोड़ा -थोड़ा खर्च करना होता है। लेकिन बिना पानी के कोई भी घर का काम हो नहीं सकता। यह हमारे लिए बहुत कठिन है।”
पहाड़ी क्षेत्रों की महिलाओं का जीवन बहुत सी समस्याओं से भरा है। वह बुनियादी सुविधाओं से भी बहुत पिछड़ी हुई है। उनका स्वास्थ्य अस्पतालों से दूर है और उनकी भूमिका सीमित हो कर रह गई है। उनके लिए जीवन वही बना दिया गया है जो पितृसत्तात्मक खांचे में फिट बैठता है। उनके लिए बराबरी और समावेशी समाज की कल्पना कोरी हैं। जबकि वह जल संकट के सबसे बड़े बोझ का सामना कर रही हैं ऐसा बोझ जो केवल शारीरिक नहीं बल्कि मानसिक और भावनात्मक भी है। वह अपने दिन का बड़ा हिस्सा पानी की तलाश में बिता देती हैं, जिससे उनका स्वास्थ्य भी प्रभावित हो रहा है, जल संकट केवल पर्यावरणीय समस्या नहीं है, यह एक लैंगिक असमानता का सवाल भी है। क्योंकि पानी की कमी का मतलब है, महिलाओं के लिए शिक्षा की कमी, अवसरों की कमी और समय की कमी । इसलिए अब समय आ गया है कि हम पानी के संरक्षण को केवल पर्यावरण से जुड़ा हुआ मुद्दा समझने के वजाय सामाजिक न्याय और बराबरी का मुद्दा समझें जिसमें पुरुष भी महिलाओं का सहयोग करें। तब ही इस समस्या को एकजुटता से कम किया जा सकता है ।

