उत्तराखंड, जहां ऊंचे पहाड़, घने जंगल और बहती नदियां इसकी प्राकृतिक सुंदरता को दिखाते हैं। लेकिन इसी सुंदरता के बीच, राज्य के दूरस्थ और ग्रामीण इलाकों में जीवन बहुत ज्यादा कठिन है खासकर महिलाओं और बच्चों के लिए। उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों में पानी की समस्या एक ऐसी जमीनी सच्चाई है, जो विकास की तमाम योजनाओं और सरकारी दावों के बावजूद बनी हुई है। यह समस्या सिर्फ पानी की उपलब्धता तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक बहुत बड़ी सामाजिक, आर्थिक और लैंगिक समस्या बन चुकी है। पानी की समस्या के चलते महिलाओं पर काम का बोझ कई गुना बढ़ जाता है, बच्चों की शिक्षा प्रभावित होती है, और स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। पानी जीवन का आधार है, लेकिन उत्तराखंड के पहाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों में यह एक गंभीर संकट का रूप ले चुका है। विशेष रूप से अल्मोड़ा जिले के बघाड़ गांव में पानी की उपलब्धता की समस्या न केवल जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित कर रही है, बल्कि यह महिलाओं और बच्चों के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव डाल रही है।
उत्तराखंड की महिलाओं की अनकही पीड़ा

उत्तराखंड का बघाड़ गांव, जहां करीब 400 से 500 लोग रहते हैं, जो खेती-बाड़ी पर निर्भर है। पहाड़ी इलाके होने के कारण यहां के लोगों की ज़िंदगी कम सुविधाओं की वजह से और मुश्किल है ।और अब पानी की समस्या से और भी ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। सरकार की हर घर नल, हर घर जल योजना के तहत गांव में नल तो लगाए गए हैं, लेकिन उनमें या तो बहुत कम पानी आता है या फिर बिल्कुल नहीं आता। इस कारण महिलाओं और बच्चों को, घर का सारा काम करने के साथ-साथ 500 मीटर से लेकर 1 किलोमीटर तक का ऊबड़-खाबड़ और चढ़ाई वाला रास्ता तय करके दूर के प्राकृतिक जल स्रोतों( कुआं और बाबड़ी ) से पानी लाना पड़ता है। यह परेशानी किसी एक महिला की नहीं है, बल्कि गांव की लगभग हर महिला की यही रोज़ की दिनचर्या बन गई है। वे सुबह से खेतों में काम करती हैं, सिर पर घास और लकड़ियां ढोती हैं, और फिर घर के सारे कामों के साथ पानी लाने की जिम्मेदारी भी निभाती हैं। पानी की इस कमी ने उनका जीवन और भी ज्यादा थका देने वाला और तनावपूर्ण बना दिया है।
उत्तराखंड का बघाड़ गांव, जहां करीब 400 से 500 लोग रहते हैं, खेती-बाड़ी पर निर्भर है। यहां के लोगों की ज़िंदगी पहले से ही पहाड़ी इलाकों और कम सुविधाओं की वजह से मुश्किल है और अब पानी की समस्या से और भी ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।
उतराखंड के बघाड़ के बाड़ी मोहल्ले की रहने वाली सरस्वती देवी बताती हैं कि, “मेरे आंगन में हर घर जल परियोजना के अंतर्गत नल तो लगा है, लेकिन नल में बहुत कम मात्रा में और कभी-कभार ही पानी आता है, जिससे मेरे घर में पानी की जरूरत कभी पूरी नहीं हो पाती। अपने घरेलू कामों, नहाने, कपड़े धोने और जानवरों के पीने के लिए पानी लेने घर से 500 मीटर और कभी-कभी 1 किलोमीटर दूर तक जाना पड़ता है।” यहां पहाड़ी क्षेत्र है, जहां रास्ते बहुत पतले और संकरे होते हैं, और पानी लाने के लिए चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। ऐसे में घरेलू काम के साथ-साथ पानी लाने का अतिरिक्त बोझ बढ़ जाता है।
उन्होंने बताया कि दूर से पानी लाने और चढ़ाई चढ़ने की वजह से अक्सर उनकी कमर, गर्दन और पैरों में दर्द रहता है, लेकिन मजबूरी में उन्हें यह काम करना ही पड़ता है।उनका कहना है कि “मैं और मेरे गांववाले कई बार सरकारी अधिकारियों से गांव में पानी की सुविधा को बेहतर करने के बारे में शिकायत कर चुके हैं, लेकिन इस पर कोई कार्रवाई नहीं होती। अधिकारी यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि पानी के स्रोत ही नहीं हैं, तो पानी कहां से लाएं। ऐसे में महिलाएं अपनी सेहत को नजरअंदाज कर इस समस्या से लड़ रही हैं, लेकिन उनके पास कोई और रास्ता नहीं है।

आइडियास फॉर इंडिया की एक रिपोर्ट में छपे आंकड़ों के अनुसार यह बात दुनिया के कई विकासशील देशों में देखी गई है कि परिवार की पानी की ज़रूरतें पूरी करने की जिम्मेदारी ज़्यादातर महिलाओं और बच्चों पर होती है उदाहरण के तौर पर, सोमालिया में 71 फीसद परिवारों को पीने के लिए साफ पानी नहीं मिलता और इनमें से करीब 66फीसद परिवारों में महिलाएं ही पानी लाती हैं । इसी तरह मलावी में लगभग 87फीसद और बांग्लादेश में लगभग 89फीसद महिलाएं घर तक पानी लाने का काम करती हैं। भारत में भी यह स्थिति अलग नहीं है, यहां 64 फिसद परिवारों में पानी लाने का काम महिलाएं करती हैं (आईएचडीएस डेटा)। यूनिसेफ का अनुमान है कि पूरी दुनिया की महिलाएं और लड़कियां रोज़ाना मिलकर लगभग 20 करोड़ घंटे सिर्फ पानी लाने के काम में बिता देती हैं।
मेरे आंगन में हर घर जल परियोजना के अंतर्गत नल तो लगा है, लेकिन नल में बहुत कम मात्रा में और कभी-कभार ही पानी आता है, जिससे मेरे घर में पानी की जरूरत कभी पूरी नहीं हो पाती। अपने घरेलू कामों, नहाने, कपड़े धोने और जानवरों के पीने के लिए पानी लेने घर से 500 मीटर और कभी-कभी 1 किलोमीटर दूर तक जाना पड़ता है।
पानी की समस्या और महिलाओं की कठिन दिनचर्या
बघाड़ गांव की महिलाओं से बातचीत करने पर पता चला कि गर्मी के मौसम में जब जल स्रोतों का स्तर और भी कम हो जाता है और पूरे गांव के लोग वहीं पानी भरने आते हैं, तो पानी की किल्लत के कारण अक्सर बहंस और कभी-कभी लड़ाई तक की नौबत आ जाती है। महिलाओं को बहुत देर तक रुकना पड़ता है और कभी-कभी घंटों तक नल में पानी आने का इंतजार करना पड़ता है। इस समस्या की वजह से घर में भी तनाव बढ़ जाता है। कई बार, अगर पानी लाने में थोड़ी भी देर हो जाए, तो पति-पत्नी के बीच झगड़े होने लगते हैं।

उत्तराखंड की बघाड़ गांव की 47 वर्षीय रीता देवी बताती हैं, ” मैं सुबह 5:30 बजे उठ जाती हूं। मेरे दैनिक कामों में घर की सफाई (झाड़ू-पोंछा), बर्तन धोना, तीन समय का भोजन बनाना, पालतू जानवरों को चारा देना, गाय का दूध निकालना, जंगल से जानवरों के लिए चारा लाना शामिल है। खेतों के काम के अलावा दिनभर कोई न कोई काम लगा ही रहता है। इसके साथ, जानवरों के लिए चारा लाने, गोबर निकालकर खेतों में डालना जैसे कामों से मेरी सेहत लगातार खराब होती जा रही है। घुटनों में दर्द, सिर पर भार रखने से पेट दर्द और गर्दन में दर्द की समस्या बनी रहती है। डॉक्टर ने मुझे सिर पर वजन रखने से मना किया है, लेकिन मजबूरी में यह काम करना ही पड़ता है। अगर यह काम मैं नहीं करूंगी, तो यह सारा काम कौन करेगा?” ऐसे में वह अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान नहीं रख पाती हैं।
मैं सुबह 5:30 बजे उठ जाती हूं। मेरे दैनिक कामों में घर की सफाई, बर्तन धोना, तीन समय का भोजन बनाना, पालतू जानवरों को चारा देना, गाय का दूध निकालना, जंगल से जानवरों के लिए चारा लाना शामिल है। खेतों के काम के अलावा दिनभर कोई न कोई काम लगा ही रहता है।
पलायन के कारण महिलाओं की बढ़ती जिम्मेदारियां
उत्तराखंड के गांवों में रोजगार की कमी, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और बेहतर शिक्षा व्यवस्था के अभाव के कारण दिन-प्रतिदिन पलायन बढ़ता जा रहा है। ज़्यादातर युवा और पुरुष रोजगार की तलाश में शहरों की ओर चले जाते हैं, जिससे गांवों में केवल महिलाएं, बुज़ुर्ग और बच्चे ही रह जाते हैं। इन हालात में, घर की पूरी ज़िम्मेदारी महिलाओं पर आ जाती है।महिलाओं को बुज़ुर्गों और बच्चों की देखभाल के साथ-साथ खेती और पालतू जानवरों की देखभाल भी करनी पड़ती है। इसके अलावा, गांव में पानी की समस्या उनकी ज़िम्मेदारियों को और बढ़ा देती है। उत्तराखंड के ग्रामीण विकास एवं प्रवासन रोक आयोग के अनुसार 2018 से 2022 तक राज्य के अलग-अलग मानक, खासकर पहाड़ों से कुल 3.3 लाख लोगों ने पलायन किया और लगभग 700 खाली घर हैं। 2007 और 2017 के बीच लगभग 3.83 लाख से अधिक लोगों ने अपना घर छोड़ दिया।

वर्ष 2011 के बाद राज्य से कुल 5,02,707 लोगों ने बाहर प्रवास किया, सबसे अधिक 89,830 लोग जिले से बाहर गये। इसके बाद पौडी में 73072, अल्मोडा से 69818, चम्पावत से 46290, पिथौरागढ़ से 41669, रुद्रप्रयाग से 30570, बागेश्वर से 29300, ऑटोमोबाइल से 28,583, चंपावत से 28218, दोस्ती से 25774, उत्तरकाशी से 22620, हरिद्वार से कुल 9312 लोग और उधम सिंह नगर से 7016 पलायन कर चुके हैं। बघाड़ गांव के सिलगचौरा मुहल्ले की हेमा देवी बताती हैं, “मेरे पति रोजगार के लिए शहर जाकर काम करते हैं, और वह घर में अपने एक छोटे बच्चे और सास के साथ रहती हैं। घर के कामों, बच्चे और बुजुर्गों की देखभाल के साथ-साथ मुझे सुबह-शाम न जाने कितनी बार पानी लाना पड़ता है, जिससे मैं अपनी दिनचर्या का भी सही से ध्यान नहीं रख पाती।“
मेरे पति रोजगार के लिए शहर जाकर काम करते हैं, और वह घर में अपने एक छोटे बच्चे और सास के साथ रहती हैं। घर के कामों, बच्चे और बुजुर्गों की देखभाल के साथ-साथ मुझे सुबह-शाम न जाने कितनी बार पानी लाना पड़ता है, जिससे मैं अपनी दिनचर्या का भी सही से ध्यान नहीं रख पाती।
पानी की समस्या और घरेलू काम का बच्चों पर असर
उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों में घर के कामों की संपूर्ण जिम्मेदारी महिलाओं की होती है, जिसमें उनके बच्चे, खासकर लड़कियां भी उनकी मदद करते हैं, जैसे पानी लाना, जानवरों के लिए खेतों से चारा लाना आदि। बघाड़ गांव के बाड़ी मोहल्ले की 16 वर्षीय रितिका बताती हैं कि, “मैं सुबह स्कूल जाने से पहले घर के लिए पानी भरकर लाती हूं और उसके बाद तैयार होकर स्कूल जाती हूं । स्कूल से घर आने के बाद फिर से पानी भरने जाती हूं और खेतों से जानवरों के लिए चारा भी लाती हूं । इससे पढ़ाई के साथ-साथ घर के कामों का भी दबाव बढ़ जाता है, जिससे मैं बहुत थक जाती हूं और थकान से कभी कभी शाम को स्कूल से मिला होमवर्क भी नही कर पाती, अधिक थकान के कारण मुझे जल्दी ही नींद आने लगती है।” उन्होंने बताया कि उनकी तरह ही गांव के अन्य बच्चों की दिनचर्या भी ऐसी ही होती है।
पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण, और आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण गांव के लोग टैंकरों से पानी खरीदने में असमर्थ हैं, क्योंकि यहां छोटे-छोटे गांव अभी भी पक्की सड़कों तक नहीं जुड़े हैं। उत्तराखंड के पहाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों में पानी की समस्या केवल बघाड़ गांव की नहीं, बल्कि हजारों गांवों की हकीकत है। यह समस्या केवल जल संकट की नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक, और लैंगिक असमानता की भी है। यदि सरकार और प्रशासन इस ओर ध्यान नहीं देंगे, तो आने वाले समय में इन गांवों का जीवन और कठिन हो जाएगा, और पलायन की समस्या और भी विकराल रूप ले लेगी। जल संकट को दूर करने के लिए स्थानीय और राज्य सरकार को प्रभावी योजनाओं को लागू करने की आवश्यकता है ताकि उत्तराखंड के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों का जीवन सुगम बनाया जा सके। जल संकट का हल तभी संभव है जब स्थानीय लोगों, खासकर महिलाओं की ज़रूरतों और भागीदारी को केंद्र में रखा जाए।