भारतीय इतिहास में क्रिकेट खेल को अक्सर ‘जेंटलमैन गेम’ कहा जाता रहा है। यानी इस खेल को केवल पुरुषों से जोड़कर देखा जाता रहा और महिलाओं को खेल के मैदान से दूर रखकर चूल्हे -चौके तक ही सिमित करके रखा जाता रहा है। बीबीसी में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, पता चलता है कि 64 फीसद भारतीय वयस्क कोई भी खेल नहीं खेलते। जेंडर के आधार पर देखा जाए तो 42 फीसद पुरुष खेलों में भाग लेते हैं जबकि केवल 29 फीसदी महिलाएं ही खेलों में भाग ले पाती हैं। यूएन वुमन की एक रिपोर्ट के मुआबिक, 14 साल की उम्र तक लड़कियां लड़कों की तुलना में दोगुनी दर से खेलकूद छोड़ देती हैं , जिसके कई कारण हैं, जैसे सामाजिक अपेक्षाएं, गुणवत्तापूर्ण कार्यक्रमों में निवेश की कमी, आदि। लेकिन कुछ महिलाओं ने पितृसत्तात्मक नियमों को लांघ कर खेल के क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान बनाई। गौरतलब है कि हाल ही के कुछ सालों में भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने इस सोच को पूरी तरह बदल कर रख दिया है। उन्होंने न केवल जीत हासिल की बल्कि उस पारंपरिक पितृसत्तात्मक सोच को भी चुनौती दी है, जो खेल को जेंडर के आधार पर विभाजित करती है।
महिला खिलाड़ियों ने यह भी साबित किया है कि खेल प्रतिभा का नहीं, बल्कि अवसर मिलने का भी सवाल होता है। आज भारतीय महिला खेल दुनिया भर में ऊंचाई का शिखर छू रही है, तो यह ज़रूरी हो गया है कि हम उनके संघर्ष, मीडिया की भूमिका, निवेश की कमी और जेंडर समानता की दिशा में खेलों की अहम भूमिका पर भी बात करें। क्योंकि यह जीत केवल एक मैच की नहीं है । यह एक नए अध्याय की शुरुआत है, जहां क्रिकेट अब केवल पुरुषों का खेल नहीं रहा है। इसमें महिला खिलाड़ियों का भी उतना ही योगदान और अधिकार है जितना भारत के पुरुष खिलाड़ियों का है।
बीबीसी में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, पता चलता है कि 64 फीसद भारतीय वयस्क कोई भी खेल नहीं खेलते। जेंडर के आधार पर देखा जाए तो 42 फीसद पुरुष खेलों में भाग लेते हैं जबकि केवल 29 फीसदी महिलाएं ही खेलों में भाग ले पाती हैं।
क्रिकेट अब सिर्फ ‘मर्दों का खेल’ नहीं रहा
भारत में क्रिकेट का इतिहास कई साल पुराना है, जिसे पुरुष खिलाड़ियों के शुरू किया गया था । लेकिन बाद में साल 1970 के दशक की शुरुआत में महिलाएं कई जगहों पर क्रिकेट खेलती थीं, लेकिन यह खेल पूरी तरह संगठित नहीं था। पहली महिला अंतर-राज्यीय राष्ट्रीय प्रतियोगिता साल 1973 में पुणे में आयोजित की गई थी जिसमें तीन टीमों मुंबई, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश ने भाग लिया था। इंडिया टुडे के मुताबिक, भारत में महिला क्रिकेट छाया या दबाव में ही रहा है। बुनियादी ढांचा सीमित था, खिलाड़ियों के अनुबंध (कॉन्ट्रेक्ट ) मामूली थे और घरेलू टूर्नामेंट कम होते थे। कुछ अनुभवी खिलाड़ी याद करते हैं कि वे छात्रावासों के फर्श पर सोती थीं, मैचों के लिए अपना बिस्तर खुद लाती थीं, और खिलाड़ी होने के नाते जिस तरह पुरुषों को ट्रेन में आरक्षण मिलता है। उस तरह महिला खिलाड़ियों को वो आरक्षण नहीं दिया जाता था।
टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी खबर के मुताबिक, भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने रविवार को दक्षिण अफ्रीका को 52 रनों से हराकर और अपना पहला विश्व कप जीतकर इतिहास रच दिया है। जिस तरह 25 जून 1983 भारतीय पुरुष क्रिकेट के लिए एक महत्वपूर्ण पल था। जब कपिल देव की टीम ने लॉर्ड्स में वेस्टइंडीज को हराया था। इसी तरह 2 नवंबर 2025 को भारत में महिला क्रिकेट के लिए एक महत्वपूर्ण क्षण के रूप में याद किया जाएगा। यह हर महिला खिलाड़ी और क्रिकेट प्रेमियों के लिए बहुत गर्व की बात है। इसी के साथ हरमनप्रीत जो महिला क्रिकेट टीम की कप्तान हैं, उन्होंने अपनी टी-शर्ट के पीछे छपे शब्दों के माध्यम से एक शक्तिशाली संदेश भी दिया है। टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक उन्होंने टी-शर्ट पहने और ट्रॉफी के साथ सोते हुए अपनी एक तस्वीर एक कैप्शन के साथ साझा की है जिसमें वह लिखती है, ‘कुछ सपने अरबों लोगों के होते हैं। इसलिए क्रिकेट सब का खेल है।’ हालांकि तस्वीर में उनकी टी शर्ट पर भी जेंटलमैन शब्द को काटकर एवरीवन लिखा हुआ था। इससे साफ तौर पर यह समझ जा सकता है कि खेल के मैदान में किसी का जेंडर मायने नहीं रखता बल्कि हुनर और जुनून मायने रखता है और इससे यह साबित होता है कि क्रिकेट केवल मर्दों का ही खेल नहीं है।
भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने रविवार को दक्षिण अफ्रीका को 52 रनों से हराकर और अपना पहला विश्व कप जीतकर इतिहास रच दिया है। जिस तरह 25 जून 1983 भारतीय पुरुष क्रिकेट के लिए एक महत्वपूर्ण पल था। जब कपिल देव की टीम ने लॉर्ड्स में वेस्टइंडीज को हराया था। इसी तरह 2 नवंबर 2025 को भारत में महिला क्रिकेट के लिए एक महत्वपूर्ण पल के रूप में याद किया जाएगा।
मीडिया में दृश्यता और समान सम्मान की ज़रूरत
मीडिया और हमारे पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष खिलाड़ियों को जहां एक स्टार की तरह दिखाया जाता है। वहीं महिला खिलाड़ियों की जीत को देश की बेटी के रूप में दिखाया जाता है। यह सरकार की छबि को सही करने और देश के लिए बहुत गौरव की बात होगी लेकिन इससे महिला खिलाड़ियों की पेशेवर पहचान सिमित होकर रह जाती है। क्योंकि खिलाड़ियों की पहचान उनके खेल से होने चाहिए। न की देश के बेटा और बेटी के रूप में । द वायर में छपे एक लेख के मुताबिक, महिला खिलाड़ी सिर्फ देश के लिए नहीं, बल्कि खेलने के अपने अधिकार के लिए भी मैदान में उतरती हैं। लेकिन अक्सर यह बात भुला दी जाती है। जब वे जीतती हैं, तो उन्हें सिर्फ भारत की बेटियां कहकर दिखाया जाता है, जैसे उनकी पहचान सिर्फ देश से जुड़ी हो, न कि उनके व्यक्तिगत संघर्ष और मेहनत से। अंतरराष्ट्रीय खेलों में महिला खिलाड़ियों की भागीदारी और सफलता के महत्व को सही मायने में समझने के लिए, हमें लैंगिक राजनीति के लिए उनकी प्रासंगिकता पर ध्यान देना होगा। क्योंकि यही उनके लिए असली सम्मान है।
हमारे पितृसत्तात्मक समाज में जेंडर के आधार पर भेदभाव हर जगह देखने को मिल जाएगा। इसका उदाहरण हम यह भी देख सकते हैं जब हमारे घरों के पुरुष, अक्सर पुरुष खिलाड़ियों की सराहना करते हैं और उन्हीं का मैच देखते हैं। अगर ऑडियंस ही नहीं होगी तक खेलों का महत्व रह जाएगा। यूएन वुमन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले तीन सालों में महिला एथलीटों का मीडिया कवरेज लगभग तीन गुना बढ़ गया है, फिर भी महिलाओं को उनके पुरुष समकक्षों की तुलना में केवल 16 फीसदी कवरेज मिलता है। महिला एथलीटों की दृश्यता बढ़ाना खेलों में अधिक आदर्श प्रस्तुत करने के लिए जरूरी है जो लड़कियों को खेलना जारी रखने के लिए प्रेरित कर सकें। स्पोर्ट एंड डेवलपमेंट में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, खेल जगत में महिलाओं को कवर न करने से ऐसा लगता है मानो महिलाएं खेलों में भाग ही नहीं ले रही हैं। वे अन्य महिलाओं और लड़कियों के लिए आदर्श और प्रेरणा स्रोत के रूप में देखी जाने से वंचित रह जाती हैं। साथ ही महिलाओं को कॉर्पोरेट क्षेत्र से संसाधन नहीं मिल पाते क्योंकि वे कॉर्पोरेट प्रयोजन आकर्षित करने के लिए मीडिया में पर्याप्त रूप से शामिल नहीं होती हैं। संसाधनों की यह कमी भागीदारी के अवसरों की चुनौतियों को और बढ़ा देती है और यह चक्र चलता रहता है।
द वायर में छपे एक लेख के मुताबिक, महिला खिलाड़ी सिर्फ देश के लिए नहीं, बल्कि खेलने के अपने अधिकार के लिए भी मैदान में उतरती हैं। लेकिन अक्सर यह बात भुला दी जाती है। जब वे जीतती हैं, तो उन्हें सिर्फ भारत की बेटियां कहकर दिखाया जाता है, जैसे उनकी पहचान सिर्फ देश से जुड़ी हो, न कि उनके व्यक्तिगत संघर्ष और मेहनत से।
महिला खेलों में निवेश का महत्व
योर लीगल करियर कोच में साल 2022 में छपे एक शोध के मुताबिक, महिला टीम या लीग में निवेश कम होता है क्योंकि वे पुरुष टीम की तुलना में कम लोकप्रिय होती है और उन्हें कम दर्शक मिलते हैं। जिस कारण खेल ब्रांडों में प्रयोजन या निवेश के मामले में भी कोई समानता नहीं है। पुरुषों के खेलों की अक्सर बहुत तारीफ़ होती है, जो खेल को एक गतिविधि के रूप में दिखता है।आमतौर पर पैसे कमाने की गतिविधियां जैसे बिक्री, टिकटों की आमदनी और विज्ञापन पुरुष खिलाड़ियों के पक्ष में झुकी होती हैं।जब यही काम महिलाओं के लिए किया जाता है, तो इसे प्रायोजकों के लिए कम फायदेमंद माना जाता है। समाज में पुरुष और महिला के प्रति बनी रूढ़िवादी धारणाएं और सीमित मीडिया कवरेज। ये दोनों मिलकर महिला एथलीटों की कुल आय को प्रभावित करते हैं, जिसके कारण वे अपने पुरुष खिलाड़ियों की तुलना में अक्सर कम कमाती हैं।
डिजिटल मीडिया हाउस, द ब्रिज, ने विश्लेषण किया कि टोक्यो के साल 2020 ओलंपिक से जुड़े 64 आयोजनों में से केवल 4 में भारतीय महिला कोच थीं। यह हमारे देश में महिला कोचों और उन्हें दिए जाने वाले अवसरों की कमी को सामने लाता है। साथ ही खेल के क्षेत्र में क्वीयर समुदाय के व्यक्तियों का हाशिये पर होना एक चिंता का विषय बन गया है । इसलिए खेल के क्षेत्र में निवेश होना एक एक खिलाड़ी की जरूरत है। इंडिया टुडे में छपी एक खबर के मुताबिक, बीसीसीआई ने पूरी भारतीय टीम के खिलाड़ियों, कोचों, चयनकर्ताओं और सहयोगी स्टाफ को कुल 51 करोड़ रुपये देने का फैसला किया है। गौरतलब है कि इस साल महिला विश्व कप की कुल पुरस्कार राशि 116 करोड़ रुपये है, जो न्यूज़ीलैंड में साल 2022 में होने वाले टूर्नामेंट में वितरित 29 करोड़ रुपये की राशि से लगभग तीन गुना ज़्यादा है। इस साल के आयोजन को ऐतिहासिक बनाने वाली बात यह है कि यह पहली बार है जब आईसीसी ने पुरुष और महिला विश्व कप के लिए एक समान पुरस्कार राशि की शुरुआत की है। लेकिन पुरस्कार ही काफी नहीं है इसके लिए प्रशिक्षण संबंधी और अन्य ज़रुरतों के लिए भी निवेश बहुत ज़रूरी है।
योर लीगल करियर कोच में छपे एक शोध के मुताबिक, लगभग 10,000 लोगों में से 42 फीसदी का मानना था कि महिलाओं के खेल पुरुषों के मुकाबले कम ‘मनोरंजक’ होते हैं। कई लोगों ने महिला खिलाड़ियों को उनके रूप-रंग या बच्चे पैदा करने की क्षमता के आधार पर आंका। पूछे जाने पर 50 फीसदी लोग किसी भारतीय महिला खिलाड़ी का नाम तक नहीं बता पाए।
कॉर्पोरेट स्पॉन्सरशिप और महिला खेलों की आर्थिक मज़बूती
अक्सर देखा गया है महिलाओं को कम स्पॉन्सरशिप मिली है। योर लीगल करियर कोच में छपे एक शोध के मुताबिक, लगभग 10,000 लोगों में से 42 फीसदी का मानना था कि महिलाओं के खेल पुरुषों के मुकाबले कम ‘मनोरंजक’ होते हैं। कई लोगों ने महिला खिलाड़ियों को उनके रूप-रंग या बच्चे पैदा करने की क्षमता के आधार पर आंका। पूछे जाने पर 50 फीसदी लोग किसी भारतीय महिला खिलाड़ी का नाम तक नहीं बता पाए। मीडिया इन्फोलाइन में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, अब महिला खेल के लिए स्पॉन्सरशिप में बढ़ोतरी होना शुरू हो गया है। जिससे महिला खेलों की आर्थिक मजबूती बढ़ेगी। आंकड़ों के मुताबिक डब्ल्यू पी एल के दर्शकों की संख्या केवल एक साल में 15 फीसदी बढ़ी है। महिला एथलीट अब तक कुल 63 मिलियन डॉलर के ब्रांड निवेश को आकर्षित कर चुकी हैं। भारत के गेमिंग दर्शकों में 44 फीसदी महिलाएं हैं। यानी खेल अब केवल पुरुषों तक सीमित नहीं।
महिलाओं के खेलों को लेकर सोशल मीडिया पर बातचीत 10 गुना बढ़ी है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि 2030 तक महिला खेलों का वाणिज्यिक मूल्य 900 मिलियन डॉलर तक पहुंच जाएगा। इससे ग्रामीण स्तर की महिलाओं खिलाड़ियों का भी उत्साह बढ़ेगा और वो भी खेलों की तरफ आकर्षित हो पायेंगी । भारतीय महिला क्रिकेट टीम की यह जीत सिर्फ एक ट्रॉफी नहीं, बल्कि पितृसत्तात्मक सोच पर जीत है। यह दिखाती है कि जब महिलाओं को समान अवसर और संसाधन मिलते हैं, तो वे भी हर क्षेत्र में नई ऊंचाइयां छू सकती हैं। अब ज़रूरत है कि मीडिया, सरकार और कॉर्पोरेट जगत महिला खेलों में समान निवेश और सम्मान सुनिश्चित करें। यह जीत उस नए दौर की शुरुआत है, जहां क्रिकेट सच में सबका खेल बन चुका है।

