प्राचीन समय से खेलों का इस्तेमाल न सिर्फ मनोरंजन बल्कि सेहत और सामाजिक जुड़ाव के लिए होता रहा है। लेकिन खेल की दुनिया में समानता की बात करें तो महिलाएं, ट्रांस और क्वीयर समुदाय, और विकलांग व्यक्ति आज भी हाशिए पर हैं। खेलों को पारंपरिक रूप से पुरुषों का क्षेत्र माना गया है, जिससे महिलाओं को बराबरी के मौके नहीं मिल पाए। ट्रांसजेंडर और क्वीयर खिलाड़ियों को अक्सर पहचान और खेल क्षमता के आधार पर तिरस्कार और भेदभाव झेलना पड़ता है। पूर्व क्रिकेटर और मौजूदा कोच संजय बांगर की बेटी अनाया बांगर इसका एक उदाहरण हैं, जिन्हें ट्रांजिशन के बाद क्रिकेट खेलने से रोक दिया गया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी आईसीसी जैसे संगठन ट्रांस महिलाओं के खेलने पर रोक लगाते हैं। खेलों में अब भी जेंडर को बाइनरी रूप में देखा जाता है, जिससे कई लोगों को बाहर कर दिया जाता है।
इसी तरह विकलांग व्यक्तियों के लिए खेल के मैदान तक पहुंचना और भी कठिन होता है। हमारे समाज में उन्हें दया, सहानुभूति और शंका की नजरों से देखा जाता है, जिससे वे अवसर से वंचित रह जाते हैं। खेल के ढांचे, सुविधाएं और पहुंच सब कुछ ऐसे लोगों के लिए बनाया जाता है जिन्हें समाज आम तौर ‘सक्षम’ मानता है, जिससे विकलांग व्यक्ति कई बार इस सामाजिक व्यवस्था से बाहर कर दिए जाते हैं। खेलों को सच में समावेशी बनाने के लिए ज़रूरी है कि हम इन बाइनरी को तोड़ें और सभी के लिए समान अवसर और सम्मान सुनिश्चित करें।
पूर्व क्रिकेटर और मौजूदा कोच संजय बांगर की बेटी अनाया बांगर इसका एक उदाहरण हैं, जिन्हें ट्रांजिशन के बाद क्रिकेट खेलने से रोक दिया गया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी आईसीसी जैसे संगठन ट्रांस महिलाओं के खेलने पर रोक लगाते हैं।
विकलांग व्यक्तियों के लिए खेलों में भाग लेना आसान नहीं होता। सुविधाओं, उपकरणों और प्रशिक्षकों की कमी के साथ-साथ उन्हें समाज के भेदभावपूर्ण नजरिए का भी सामना करना पड़ता है। इससे वे मानसिक और सामाजिक दबाव में आ जाते हैं।आज भी समाज विकलांगता को एक कमजोरी या सहानुभूति के नज़रिए से देखता है, न कि बराबरी के आधार पर। इसी सोच की वजह से विकलांग खिलाड़ियों को बार-बार खुद को साबित करना पड़ता है। भारतीय विकलांग खिलाड़ी सिर्फ खेलों में हिस्सा नहीं ले रहे, बल्कि समाज की रूढ़ियों को भी चुनौती दे रहे हैं। वे दिखा रहे हैं कि विकलांगता कोई रुकावट नहीं है। उनकी कहानियां आत्मविश्वास, समावेश और सामाजिक बदलाव की मिसाल है। ये आंदोलन नारीवादी दृष्टिकोण को भी मजबूती देते हैं।
पैरालंपिक में भारत की पकड़

भारत ने पहली बार पैरालंपिक खेलों में साल 1968 में हिस्सा लिया था। ये खेल उस साल इज़राइल में हुए थे। भारत की टीम में कुल 10 खिलाड़ी शामिल थे, जिनमें से दो महिलाएं और आठ पुरुष थे। हालांकि, उस समय देश कोई भी पदक नहीं जीत सका था। इसके बाद साल 1972 में, भारत को पैरालंपिक में अपनी पहली बड़ी सफलता मिली। यह खेल पश्चिम जर्मनी के हीडलबर्ग शहर में हुए थे। तैराक मुरलीकांत पेटकर ने 50 मीटर फ़्रीस्टाइल तैराकी स्पर्धा में सिर्फ 37.33 सेकंड में दूरी पूरी कर एक नया विश्व रिकॉर्ड बनाया और भारत के लिए पहला स्वर्ण पदक जीत लिया। इसके बाद साल 1984 में न्यूयॉर्क में हुए पैरालंपिक खेलों में भारत ने फिर से काफी अच्छा प्रदर्शन किया।
भारत ने पहली बार पैरालंपिक खेलों में साल 1968 में हिस्सा लिया था। ये खेल उस साल इज़राइल में हुए थे। भारत की टीम में कुल 10 खिलाड़ी शामिल थे, जिनमें से दो महिलाएं और आठ पुरुष थे।
जोगिंदर सिंह बेदी ने पुरुषों के शॉट पुट में रजत पदक जीता और इसके साथ-साथ एक कांस्य पदक भी हासिल किया। उसी प्रतियोगिता में भीमराव केसरकर ने भाला फेंक स्पर्धा में रजत पदक जीता। इसके बाद भारत ने धीरे-धीरे पैरालंपिक खेलों में और मजबूत उपस्थिति बनानी शुरू की। साल 2004, 2012 और 2016 के पैरालंपिक में भारत ने कई खेलों में भाग लिया और कुछ स्वर्ण पदक सहित कई पदक अपने नाम किए। इसके साथ ही साल 2020 का टोक्यो पैरालंपिक जो भारत के इतिहास का सबसे सफल पैरालंपिक साबित हुआ। भारत ने इस प्रतियोगिता में कुल 19 पदक जीते, जिनमें 5 स्वर्ण, 8 रजत और 6 कांस्य शामिल थे। इसी खेल में अवनि लेखरा नाम की निशानेबाज़ ने इतिहास रच दिया क्योंकि इस प्रतियोगिता में पहली बार किसी भारतीय महिला ने स्वर्ण पदक जीता था।
पेरिस में साल 2024 पैरालंपिक खेलों में भारत ने प्रभावशाली प्रदर्शन किया। भारत ने इस आयोजन में 29 पदक जीते और अवनि लेखरा पैरालंपिक खेलों में दो स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बन गई हैं। उन्होंने महिलाओं की 10 मीटर एयर राइफल स्टैंडिंग शूटिंग मुकाबले में बहुत शानदार प्रदर्शन किया और पिछली बार जीते हुए अपने खिताब को एक बार फिर जीतकर बचा लिया। इस बार उन्होंने एक नया विश्व रिकॉर्ड भी बना दिया। अवनी लेखरा जैसी उल्लेखनीय हस्तियां, सभी के लिए विशेषकर विकलांग लोगों के लिए रोल मॉडल बन गई हैं। उनकी कहानियां नारीवादी विमर्शों में गहराई से प्रतिध्वनित होती हैं और यह बताती हैं कि कैसे जेंडर और विकलांगता महिलाओं के संघर्षों को और जटिल बना देती है। विकलांग महिलाओं को भेदभाव के दोहरे बोझ का सामना करना पड़ता है। लेकिन, उन्होंने इन सब बाधाओं को पार कर यह साबित कर दिया कि अगर हौंसला हो तो कोई भी मंज़िल दूर नहीं।
साल 2020 का टोक्यो पैरालंपिक जो भारत के इतिहास का सबसे सफल पैरालंपिक साबित हुआ। भारत ने इस प्रतियोगिता में कुल 19 पदक जीते, जिनमें 5 स्वर्ण, 8 रजत और 6 कांस्य शामिल थे। इसी खेल में अवनि लेखरा नाम की निशानेबाज़ ने इतिहास रच दिया। क्योंकि इस प्रतियोगिता में पहली बार किसी भारतीय महिला ने स्वर्ण पदक जीता था ।
भारतीय विकलांग खिलाड़ियों की चुनौतियां

भारतीय विकलांग एथलीटों की यात्रा अक्सर चुनौतियों से भरी होती है। जब हम उनके संघर्षों को देखते हैं, तो यह साफ होता है कि केवल शारीरिक बाधाएं ही नहीं, बल्कि समाज में मौजूद भेदभाव और पैसे की मुश्किलें भी उनके रास्ते में बड़ी बाधाएं बनकर खड़ी होती हैं। ये एथलीट न केवल अपने सपनों को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि वे अपने कौशल और क्षमता को साबित करने के लिए भी लगातार मेहनत कर रहे हैं। लेकिन, जब उन्हें फंडिंग और सुविधाओं में कमी का सामना करना पड़ता है, तो यह उनके रास्ते को और भी कठिन बना देता है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के मुताबिक विकलांग व्यक्तियों के लिए खेल, विकलांग खिलाड़ियों के कल्याण, लचीलेपन और सामाजिक समर्थन में सकारात्मक भूमिका निभाते हैं। पैरालंपिक आंदोलन को विकलांग लोगों की क्षमताओं को दिखाने का एक मंच माना जाता है।
साथ ही यह उनके अधिकारों के लिए कैटलिस्ट के रूप में काम करता है, एकीकरण, समान अवसर और पहुंच सुनिश्चित करता है। भारतीय विकलांग एथलीटों की समस्याएं पैरा ओलंपिक के बाद काफी चर्चा का विषय बनी हुई हैं। जब हम इन एथलीटों की बात करते हैं, तो यह समझना जरूरी है कि उनकी चुनौतियां केवल खेलों तक सीमित नहीं हैं। अक्सर, समाज में उन्हें उचित मान्यता और संसाधनों की कमी का सामना करना पड़ता है। सरकार और विभिन्न संस्थानों ने कुछ प्रयास किए हैं। लेकिन, अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है। ऐसे एथलीटों की कहानी सिर्फ उनकी मेहनत और संघर्ष की नहीं, बल्कि समाज से मिलने वाले समर्थन और अवसरों की भी है।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के मुताबिक विकलांग व्यक्तियों के लिए खेल, विकलांग खिलाड़ियों के कल्याण, लचीलेपन और सामाजिक समर्थन में सकारात्मक भूमिका निभाते हैं। पैरालंपिक आंदोलन को विकलांग लोगों की क्षमताओं को दिखाने का एक मंच माना जाता है।
पुनर्वास के लिए, विकलांग एथलीटों को कई तरह के नियमों का पालन करना पड़ता है, जो उनकी ट्रेनिंग और खेलों में भागीदारी को प्रभावित करते हैं। अक्सर, खेलों में प्रयोग होने वाला चिकित्सा मॉडल विकलांग व्यक्तियों को सामान्य मानकों के हिसाब से आंकता है। लेकिन, वही खिलाड़ी जब किसी विकलांगता के साथ असाधारण प्रदर्शन करता है, तो उसे सराहा जाता है यह एक तरह का दोहरापन है। आज भी पैरालंपिक एथलीटों की मदद करने वाले लोगों जैसे कोच, डॉक्टर, पुनर्वास विशेषज्ञ को यह पता नहीं है कि उनका नैतिक लक्ष्य क्या होना चाहिए। वे एथलीटों के साथ किस तरीके से काम करें। इसलिए, जो संस्थाएं इन खेलों का संचालन करती हैं, जैसेकि अंतर्राष्ट्रीय पैरालंपिक समिति (IPC), उन्हें चाहिए कि वे अपने मूल सिद्धांतों और नैतिक सोच को और साफ, आलोचनात्मक और न्यायसंगत बनाएं। इससे एथलीटों के साथ इंसाफ हो, पुनर्वास में नैतिकता हो और ये खेल समाज में सराहे जाएं।
विकलांग एथलीटों को समान अवसर देना जरूरी

स्पोर्ट्स साइकोलॉजी की एक रिपोर्ट के अनुसार इस बात जोर दिया गया है कि विकलांग एथलीट को कैसे मुख्यधारा में शामिल किया जाए। एथलीट के साथ एक ‘एथलीट’ की तरह व्यवहार किया जाए। इसके लिए विकलांगता के बजाय व्यक्ति पर ध्यान दिया जाना चाहिए। एथलीटों के साथ बैठकर उनकी भागीदारी के लक्ष्य क्या हैं यह समझने की जरूरत है और लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उचित नीतियां निर्धारित करने की जरूरत है। विश्व स्तर पर, कई देशों ने खेलों के माध्यम से समावेशिता को सफलतापूर्वक बढ़ावा दिया है। यूके सरकार ने ब्रिटिश पैरालंपिक एसोसिएशन जैसे संगठनों के साथ मिलकर एथलीटों के लिए पर्याप्त धन, उन्नत प्रशिक्षण सुविधाएं और व्यापक सहायता प्रदान की है।
टोक्यो 2020 पैरालंपिक के दौरान जापान ने पैरा खिलाड़ियों और सभी लोगों के लिए अपने शहर के परिवहन को आसान बनाने में बहुत मेहनत की। उन्होंने सार्वजनिक बस, ट्रेन, जगह और रहने के स्थानों को इस तरह बनाया कि विकलांग लोगों के लिए चलना-फिरना और रहना आसान हो जाए।
टोक्यो 2020 पैरालंपिक के दौरान जापान ने पैरा खिलाड़ियों और सभी लोगों के लिए अपने शहर के परिवहन को आसान बनाने में बहुत मेहनत की। उन्होंने सार्वजनिक बस, ट्रेन, जगह और रहने के स्थानों को इस तरह बनाया कि विकलांग लोगों के लिए चलना-फिरना और रहना आसान हो जाए। पैरालिंपिक 2024 में पैरा-एथलीटों की सफलता ने बाधाओं को तोड़ने और रूढ़िवादिता को चुनौती देने में मदद की है, जिससे अधिक समावेशी समाज का मार्ग आसान हुआ है। हालांकि, यह सुनिश्चित करने के लिए अभी भी बहुत काम किया जाना बाकी है कि विकलांग लोगों को खेलों तक समान पहुंच मिले और उच्च स्तर पर प्रतिस्पर्धा दिखाने का अवसर मिले।
भारत में पैरा-स्पोर्ट्स का भविष्य
भारतीय पैरा-स्पोर्ट्स का भविष्य आशाजनक दिखता है। यह एक बहुत अच्छा संदेश है कि खेलों में जीत केवल शरीर की ताकत पर निर्भर नहीं करती, बल्कि मन की मजबूत इच्छा, सही हुनर और मुश्किल हालात से लड़कर आगे बढ़ने से भी होती है। इन एथलीटों की कहानी सिर्फ खेल का नहीं, बल्कि एक बदलाव और उम्मीद की कहानी है। यह उन महिलाओं के लिए भी प्रेरणा है जो खुद को किन्हीं से कमतर समझती हैं। जब वे अपने साहस से बाधाओं को तोड़ रही हैं, तो वे नारीवाद की नई लहर को जन्म दे रही हैं।
इनकी अटल भावना और संघर्ष न केवल उन्हें बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी प्रेरित करेंगे, ताकि हर महिला को अपने सपनों को साकार करने का अवसर मिल सके। विकलांग खिलाड़ियों की मीडिया की सही कवरेज भी समाज में सोच बदलने का महत्वपूर्ण जरिया है। ये कहानियां सिर्फ खेल की नहीं, बल्कि समानता और बदलाव की मिसाल हैं। जैसे-जैसे नारीवादी आंदोलन विकलांगता अधिकारों से जुड़ते हैं, ये खिलाड़ी जेंडर, क्षमता और सफलता की पारंपरिक धारणाओं को चुनौती दे रहे हैं। अगर विकलांग एथलीटों को बराबरी के मौके और संसाधन मिलें, तो वे खेलों के साथ-साथ समाज में भी बड़ा बदलाव ला सकते हैं।