चेतावनी: आत्महत्या से मौत, यौन हिंसा और आत्म-क्षति का उल्लेख
हिमाचल प्रदेश के 33 वर्षीय क्वीयर, जेंडर फ्लूइड मृणाल कहते हैं, “मेरा परिवार बहुत धार्मिक है और कुछ हद तक अंधविश्वासी भी। मेरी माँ को मेरे यौनिकता के बारे में पता चलने के बाद, उन्होंने मेरे इलाज के लिए धार्मिक गतिविधियां शुरू कर दीं। मैं सब कुछ करने के लिए तैयार हो गया क्योंकि मैं चाहता था कि मेरा परिवार संतुष्ट रहे। बाद में, उन्होंने एक पारिवारिक परिचित व्यक्ति से मेरे यौनिकता के इलाज के बारे में पूछा। उन्होंने एक तरीका सुझाया जिसमें वह मेरा जांच करते। उन्होंने कहा कि यह सुनिश्चित करना होगा कि हम ये एक कमरे में अकेले करें। वह मुझे इरेक्शन के लिए मजबूर करता और मुझे लगातार छूता रहता। इस तरह यह यौन हिंसा सालों तक चलता रहा, जब तक कि मैंने उस व्यक्ति के साथ एक रात अकेले बिताने से इनकार नहीं कर दिया।”
सितंबर 2022 में, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) ने ‘कन्वर्ज़न थेरेपी’ पर प्रतिबंध लगा दिया और इसे ‘प्रोफेशनल मिस्कन्डक्ट’ यानी ‘पेशेवर कदाचार’ की श्रेणी में रखा। एनएमसी ने सभी राज्य चिकित्सा परिषदों को एक पत्र भी जारी किया, जिसमें उन्हें इस प्रकार की चिकित्सा करने वाले चिकित्सकों के खिलाफ़ डिसिप्लेनरी एक्शन लेने का अधिकार दिया गया। लेकिन, देश में अमूमन अस्पतालों, नशामुक्ति केंद्रों, पुनर्वास केंद्रों और धार्मिक केंद्रों सहित कई अन्य जगहों पर आज भी कन्वर्ज़न थेरेपी अवैध रूप से की जा रही है।
साल 2002 में, मुझे अस्पताल में भर्ती कराया गया था। अस्पताल में भर्ती होने की प्रक्रिया के दौरान, मैं अपने मनोचिकित्सक के पास गया। उन्होंने मुझे अपने माता-पिता के सामने आने (कमिंग आउट) में मदद की क्योंकि उन्हें लगा कि गे होना सामान्य और स्वाभाविक है। लेकिन मेरे माता-पिता ने मुझे कभी स्वीकार नहीं किया।
एलजीबीटी फाउंडेशन के साल 2019 के साक्ष्यों पर आधारित रिपोर्ट अनुसार, ‘कन्वर्ज़न थेरेपी’ को आज भी एक इलाज के रूप में बताया और किया जाता है। इसे एक ‘जरूरत’ के रूप में प्रचारित किया जाता है और राज्य, निजी संस्थानों, चिकित्सकों, धार्मिक संगठनों और पारंपरिक चिकित्सकों द्वारा प्रचलित है और प्रैक्टिस भी किया जाता है। कन्वर्ज़न थेरेपी पर अपना अनुभव साझा करते हुए, एलजीबीटीक्यू+ कार्यकर्ता और दुनिया के पहले गे राजकुमार मानवेंद्र सिंह गोहिल कहते हैं, “साल 2002 में, मुझे अस्पताल में भर्ती कराया गया था। अस्पताल में भर्ती होने की प्रक्रिया के दौरान, मैं अपने मनोचिकित्सक के पास गया। उन्होंने मुझे अपने माता-पिता के सामने आने (कमिंग आउट) में मदद की क्योंकि उन्हें लगा कि गे होना सामान्य और स्वाभाविक है। लेकिन मेरे माता-पिता ने मुझे कभी स्वीकार नहीं किया। उन्हें लगा कि यह एक मानसिक विकार है। उन्होंने सोचा कि उन्हें अन्य मनोचिकित्सकों से परामर्श करने की तत्काल जरूरत है और शायद भारत इस इलाज के लिए सही जगह नहीं है।”
वाहों आगे बताते हैं, “मेरे माता-पिता के करीबी और उनसे जुड़े कई लोगों ने उन्हें मेरे मस्तिष्क का ऑपरेशन करने और मेरे इलाज के लिए इलेक्ट्रोशॉक थेरेपी देने का सुझाव दिया।” देश में साल 2018 में होमोसेक्शूलिटी को अपराधमुक्त घोषित किए जाने के बावजूद, आज भी कभी प्यार, कभी आस्था, संस्कृति या कभी धर्म का हवाला देते हुए लोगों का क्वीयर समुदाय के प्रति रवैया रूढ़िवादी और पितृसत्तात्मक ही है। लेकिन, यह व्यक्ति की जाति, वर्ग, धर्म और भौगोलिक स्थिति से भी गहराई से जुड़ा हुआ है। केरल में एक 21 वर्षीय छात्रा की साल 2020 में आत्महत्या से तब मौत हो गई, जब उसके परिवार ने उसे बाईसेक्शुअल होने की बात पता चलने के बाद, महीनों तक कन्वर्ज़न थेरेपी से गुजरने के लिए मजबूर किया।
एक फेसबुक क्लिप में, उसने आरोप लगाया कि उसे ईसाई समुदाय के संचालित नशामुक्ति और मानसिक स्वास्थ्य केंद्रों में जबरन कन्वर्ज़न थेरेपी से गुजरना पड़ रहा था और उसे भारी मात्रा में दवाइयां दी जा रही थीं। इसी तरह अपने कन्वर्ज़न थेरेपी के लिए धार्मिक प्रथाओं का दुरुपयोग किए जाने का अनुभव साझा करते हुए, प्रिंस मानवेंद्र कहते हैं, “मेरे माता-पिता ने अमेरिका और कनाडा के डॉक्टरों से संपर्क किया। लेकिन साल 1978 में, अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन ने पहले ही कहा था कि होमोसेक्शूएलिटी कोई मानसिक विकार नहीं है। इसलिए, डॉक्टरों ने मना कर दिया।”
मुझे साल 2005-2008 तक शाकाहारी होने, योग का अभ्यास करने, मंदिरों में जाने, हाथों पर राम-राम लिखने और ऐसी कई अन्य प्रथाओं का पालन करने के लिए कहा गया था। मुझे ‘इलाज’ के लिए स्थानीय पुजारी ने झाड़फूंक की (सार्वजनिक रूप से पीटा) और अपमानित भी किया।
वह आगे बताते हैं, “चूंकि कन्वर्ज़न थेरेपी संभव नहीं था, इसलिए उन्होंने धार्मिक रूप से बदलाव की ओर रुख किया। मुझे साल 2005-2008 तक शाकाहारी होने, योग का अभ्यास करने, मंदिरों में जाने, हाथों पर राम-राम लिखने और ऐसी कई अन्य प्रथाओं का पालन करने के लिए कहा गया था। मुझे ‘इलाज’ के लिए स्थानीय पुजारी ने झाड़फूंक की (सार्वजनिक रूप से पीटा) और अपमानित भी किया। यह मेरे लिए भावनात्मक रूप से बेहद दर्दनाक था। मैं गहराई से प्रभावित हुआ। मुझे समझ में आया कि भले ही मैं एक विशेषाधिकार वाले पृष्ठभूमि से हूं, मुझे बख्शा नहीं जा रहा था। मुझे एहसास हुआ कि मुझे उन लोगों के लिए काम करने की जरूरत है जिनके पास विशेषाधिकार नहीं हैं और कन्वर्ज़न थेरेपी के कारण हिंसा और चुनौतियों का सामना करते हैं।”
द गार्डियन की एक रिपोर्ट के अनुसार, आम धारणा के उलट कि ‘क्वीयर’ होना एक मानसिक बीमारी है और इसका इलाज किया जा सकता है, किसी व्यक्ति की यौन पहचान को बदलने की कोशिशें गंभीर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बनती हैं। इनमें आत्महत्या से मौत के प्रयास, आत्म-हानि और खाने से जुड़े विकार (इटिंग डिसॉर्डर) जैसी स्थितियां शामिल हैं। इस विषय से जोड़ते हुए मृणाल कहते हैं, “मैं बाइपोलर हूं और इन घटनाओं के कारण डिप्रेशन में चला गया था। मैं आत्महत्या से मौत के बारे में सोचने लगा था। मैंने तीन बार अपनी जान लेने की कोशिश भी की। मुझे नशे की लत लग गई क्योंकि मुझे लगा यही जीने का एक तरीका है। लेकिन, बाद में मैंने एक मनोचिकित्सक और थेरेपिस्ट की मदद ली। आज मैं ठीक हूं और खुश हूं। लेकिन, अपने जीवन के पहले तीस साल मैंने सिर्फ खुद को मिटाने की कोशिश में बिता दिए।”
मैं आत्महत्या से मौत के बारे में सोचने लगा था। मैंने तीन बार अपनी जान लेने की कोशिश भी की। मुझे नशे की लत लग गई क्योंकि मुझे लगा यही जीने का एक तरीका है। लेकिन, बाद में मैंने एक मनोचिकित्सक और थेरेपिस्ट की मदद ली। आज मैं ठीक हूं और खुश हूं। लेकिन, अपने जीवन के पहले तीस साल मैंने सिर्फ खुद को मिटाने की कोशिश में बिता दिए।
असल में होमोसेक्शूएलिटी को अपराध की श्रेणी से बाहर करना भारत में समानता और सामाजिक स्वीकृति प्राप्त करने की दिशा में बस एक कदम था। लेकिन आज भी अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन और इंडियन साइकियाट्रिक सोसाइटी जैसे वैश्विक संस्थाओं के बैन किए जाने के बाद भी कन्वर्ज़न थेरेपी का प्रचलन जारी है। अपने अनुभव साझा करते हुए और कन्वर्ज़न थेरेपी करने वाले पुनर्वास केंद्रों के बारे में बात करते हुए, कार्यकर्ता, क्वीयर एजुकेटर और कोलकाता स्थित संगठन सैफो फॉर इक्वैलिटी की मैनेजिंग ट्रस्टी कोयल घोष कहते हैं, “हमारे पास कन्वर्ज़न थेरेपी के कई मामले आते हैं। एक ट्रांसमैस्क्युलिन व्यक्ति हमारे पास आए थे जिसे कन्वर्ज़न थेरेपी से गुजरना पड़ा था।”
वह आगे बताते हैं, “जब उसके परिवार को पता चला कि वह खुद को ‘महिला’ नहीं, बल्कि ‘पुरुष’ मानते हैं, तो उन्होंने उसे एक पुनर्वास केंद्र में भेज दिया, जहां उसे गंभीर मानसिक और शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ा। इससे उनके जीवन के दो साल बर्बाद हो गए। उन्हें नशामुक्ति केंद्र में जबरन भर्ती कराया गया, जबकि उसे कभी कोई लत नहीं लगी थी। उसे महिलाओं के कपड़े पहनने और परिसर में घुमाने के लिए मजबूर किया गया। उसे अपने भीतर स्त्रीत्व का संचार करने के बहाने नग्न होकर परिसर में घूमने के लिए भी मजबूर किया गया। चूंकि क्वीयर होने में कुछ भी गलत नहीं है, इसलिए जब व्यक्ति को कथित तौर पर ‘ठीक किया’ जाता है तो यह उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है।”
कन्वर्ज़न थेरेपी एक जटिल मुद्दा है, क्योंकि ज़्यादातर मामलों में लोग खुद अपनी मर्ज़ी से नहीं, बल्कि परिवार के दबाव, भावनात्मक मजबूरी या भरोसे के चलते ऐसे केंद्रों में जाते हैं या ऐसी ‘थेरेपी’ के लिए सहमति दे देते हैं, जिन्हें कथित तौर पर इलाज कहा और समझा जाता है। मुंबई की एक ट्रांस महिला माया (बदला हुआ नाम) बताती हैं, “मुझे बचपन से पता था कि मैं एक महिला हूं। लेकिन मेरा परिवार इसे स्वीकार नहीं करना चाहता था। वे मुझे एक एंडोक्रिनोलॉजिस्ट (हार्मोन विशेषज्ञ) के पास ले गए, जहां मेरा शारीरिक परीक्षण किया गया। यह मेरे लिए बहुत असहज अनुभव था। इसके बाद मुझे एक मानसिक चिकित्सक के पास भेजा गया, जो एक मेंटल असाइलम में काम करती थीं। उन्होंने मुझे बार-बार समझाने की कोशिश की कि मैं महिला नहीं हूं। यह सिलसिला लगभग एक महीने तक चला। लेकिन, जब मेरी मां को समझ आया कि मेरी पहचान बदली नहीं जा सकती, तो वे गहरी अवसाद में चली गईं।”
एक ट्रांसमैस्क्युलिन व्यक्ति हमारे पास आए थे जिसे कन्वर्ज़न थेरेपी से गुजरना पड़ा था। जब उसके परिवार को पता चला कि वह खुद को ‘महिला’ नहीं, बल्कि ‘पुरुष’ मानते हैं, तो उन्होंने उसे एक पुनर्वास केंद्र में भेज दिया, जहां उसे गंभीर मानसिक और शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ा। इससे उनके जीवन के दो साल बर्बाद हो गए।
थेरेपी के नाम पर कन्वर्ज़न न केवल अधिकारों का उल्लंघन है; बल्कि यह व्यक्ति के आत्मविश्वास को भी प्रभावित करती है और उसे जीवन भर के लिए आघात पहुंचा सकती है। अपना अनुभव साझा करते हुए, माया कहती हैं, “मेरे माँ-पिता ने अंतरजातीय विवाह किया था और मैंने हमेशा घरेलू हिंसा के बीच बड़ी हुई। इसलिए, इन घटनाओं ने मुझे और कमज़ोर बना दिया और मैं अवसाद में चली गई और इससे उबरने में मुझे काफ़ी समय लगा।”
कन्वर्ज़न थेरेपी क्यों की जाती है?
एलजीबीटी फ़ाउंडेशन ने 100 से ज़्यादा देशों के 18 साल से कम आयु के 8092 लोगों का सर्वेक्षण किया। अध्ययन से पता चलता है कि दुनिया भर में लोग कन्वर्ज़न थेरेपी से पूरी तरह अनजान नहीं हैं; वे इसके अस्तित्व के बारे में जानते हैं। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि हर 5 में से 4 लोग उस समय 24 साल या उससे कम आयु के थे जब उन्हें कन्वर्ज़न थेरेपी दी गई थी, और उनमें से लगभग आधे 18 साल से कम आयु के थे। यह हमारे ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज की हेटेरोनॉर्मेटिव संस्कृति भी है, जहां हम जेंडर बाइनरी से बाहर वाले लोगों के लिए कथित तौर पर ‘इलाज’ ढूंढते हैं। शिक्षा, जागरूकता और सामाजिक स्वीकृति को अक्सर इसके समाधान के रूप में पेश किया जाता है। हालांकि कई कार्यकर्ता इससे असहमत हैं।
इस विषय पर बैंगलोर के लैंगिक अधिकार कार्यकर्ता रूमी हरीश कहते हैं, “यह किसी चीज़ पर विश्वास करने के बारे में ज़्यादा है क्योंकि आप दृढ़ता से मानते हैं कि अगर सेक्शुअल ओरीएन्टेशन और लैंगिक पहचान हेटेरोनॉर्मेटिव नहीं है, तो यह समस्या है। यह जागरूकता की कमी से कहीं ज़्यादा है। अगर आप लोगों को जागरूक भी करते हैं, तो वे होमोसेक्शूएलिटी को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते क्योंकि हेटेरोनॉर्मेटिव व्यवस्थाएं ही उन्हें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि इसका इलाज होना चाहिए और यह परिवार के लिए एक बदनामी है। यह दृढ़ता इस तथ्य से आती है कि लोगों ने वास्तव में गैर-हेटेरोनॉर्मेटिव जीवन शैली के बारे में अपनी सोच नहीं बदली है, जिसे और भी ज्यादा स्थापित करने की जरूरत है। हमने इसपर लगातार काम किया है, इस हद तक कि कम से कम कानून तो बदले हैं। लेकिन सार्वजनिक व्यवस्थाओं और लोगों की विश्वास प्रणालियों की जड़ तक पहुंचने में, और ये स्थापित होने में कि यह गलत नहीं है, समय लगता है।”
अगर आप लोगों को जागरूक भी करते हैं, तो वे होमोसेक्शूएलिटी को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते क्योंकि हेटेरोनॉर्मेटिव व्यवस्थाएं ही उन्हें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि इसका इलाज होना चाहिए और यह परिवार के लिए एक बदनामी है।
कमिंग आउट से आगे की समस्याएं
भारत में, होमोसेक्शूएलिटी के बारे में बढ़ती जागरूकता और होमोसेक्शूएलिटी को अपराधमुक्त करने जैसे कानूनी कदमों के बावजूद, क्वीयर व्यक्तियों को आज भी परिवारों और समाज में व्यापक रूप से स्वीकार नहीं किया जाता है। ‘कमिंग आउट’ यानी अपनी यौनिकता को ज़ाहिर करना; पहला छोटा कदम है, जिसका मतलब अभी भी अपने ही परिवारों या क़रीबियों से अस्वीकृति, भावनात्मक शोषण, या यहां तक कि मानसिक और शारीरिक हिंसा भी है। सख्त लैंगिक भूमिकाओं और हेटेरोनॉर्मेटिव मान्यताओं पर आधारित सामाजिक कलंक, क्वीयर व्यक्तियों को अलग-थलग कर देता है, जिससे उनकी मानसिक स्थिति प्रभावित होती है। कन्वर्ज़न थेरेपी के जारी रहने के पीछे छिपे गहरे कारणों के बारे में बात करते हुए, मृणाल इस समस्या की प्रणालीगत कारकों पर विचार करते हैं।
वो कहते हैं, “मुझे समझ नहीं आ रहा कि इसके लिए किसे ज़िम्मेदार ठहराया जाए। क्या हमें हेटेरोनॉर्मेटिव व्यवस्था, पितृसत्तात्मक मानदंड या हमारे पूरे सामाजिक ढांचे को दोष देना चाहिए? मुझे लगता है कि सिर्फ़ परिवारों को दोष देना भी उचित नहीं है। कई मायनों में, स्कूलों से लेकर संगठनों और समग्र रूप से नागरिक समाज तक, हर कोई इसमें अपनी भूमिका निभाता है।” वहीं मुंबई के जेंडर फ्लूइड और मिस्टर गे वर्ल्ड इंडिया 2017 के विजेता रह चुके दर्शन मंदाना का मानना है कि आपके परिवारों में स्वीकृति समाज में स्वीकृति से ज्यादा चिंता का विषय है।
जब कोई व्यक्ति किसी ऐसे क्षेत्र से आता है जहां जागरूकता नहीं है, तो उसे लगता है कि वह अकेला है। इससे उसके भीतर शर्म और अपराधबोध बढ़ जाता है। कई बार पूरा गांव या समाज उसे ‘ठीक’ करने की कोशिश में लग जाता है। उसे पूरे समाज के लिए ‘शर्म’ का कारण माना जाता है।
क्यों कन्वर्ज़न थेरेपी पर प्रतिबंध काफी नहीं
साल 2021 में मद्रास हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में ‘कन्वर्ज़न थेरेपी’ पर प्रतिबंध लगा दिया। इस फैसले ने देश में एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय के लिए कई सुरक्षात्मक कदमों का रास्ता खोला। देश में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय बहुत विविध है। इनमें अलग-अलग जातियों, वर्गों और सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के लोग शामिल हैं। जाति, वर्ग और यौनिक पहचान का मेल कई बार क्वीयर लोगों की ज़िंदगी को और जटिल बना देता है। उदाहरण के लिए, एक दलित क्वीयर व्यक्ति जो ग्रामीण इलाके में रहता है, उसके अनुभव एक कथित उच्च जाति के क्वीयर व्यक्ति से अलग हो सकते हैं, जो किसी बड़े शहर में रहता है। समाज में कई लोगों की सोच धर्म से जुड़े पूर्वाग्रहों और रूढ़ियों से प्रभावित होती है, जो क्वीयर व्यक्तियों के जीवन को और कठिन बना देती है।
अक्सर, लोगों का जीवन पूर्वाग्रहों, विश्वासों और रूढ़ियों से भी संचालित होता है, जो विशेष रूप से उनके धर्म और संस्कृति से जुड़ा होता है। फिर भी, विविधता के बावजूद, क्वीयर समुदाय को कई एक जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इनमें भेदभाव और सामाजिक कलंक, कानूनी सुरक्षा की कमी, बुलीईंग, स्वास्थ्य सेवाओं में असमानता, क्वीयर-अफर्मेटिव मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, हेट क्राइम और परिवार द्वारा अस्वीकार किया जाना शामिल है। इस विषय पर कोयल घोष बताते हैं, “ऐसे मामलों में जाति और भौगोलिक स्थिति बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जब कोई व्यक्ति किसी ऐसे क्षेत्र से आता है जहां जागरूकता नहीं है, तो उसे लगता है कि वह अकेला है। इससे उसके भीतर शर्म और अपराधबोध बढ़ जाता है। कई बार पूरा गांव या समाज उसे ‘ठीक’ करने की कोशिश में लग जाता है। उसे पूरे समाज के लिए ‘शर्म’ का कारण माना जाता है।”
थेरेपिस्ट के लिए भी अपने पूर्वाग्रहों और धारणाओं से मुक्त होकर सभी को समान और सम्मानजनक सकारात्मक मानसिक स्वास्थ्य सेवा प्रदान करना एक चुनौती है। दरअसल, हेटेरोनॉर्मेटिव और होमोसेक्शुअल दोनों समाज एक ही तरह की सामाजिक व्यवस्था में काम करते हैं, इसलिए हमें अलग-अलग समूहों में नहीं, बल्कि एक समाज के रूप में मिलकर काम करना चाहिए।
क्वीयर-एफर्मेटिव मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत
क्वीयर-एफर्मेटिव मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं न सिर्फ कन्वर्ज़न थेरेपी बल्कि क्वीयर समुदाय को होने वाले विशेष चुनौतियों के समाधान के लिए जरूरी है। ये उन लोगों की लैंगिक पहचान और यौनिकता को मान्यता देती हैं, जो पारंपरिक हेटेरोनॉर्मेटिव सोच से बाहर हैं। हमारा समाज हमें शुरू से ही स्ट्रेट होने के लिए तैयार करता है, इसलिए क्वीयर होना अक्सर ‘समस्या’ माना जाता है। मानसिक स्वास्थ्य की चुनौतियों पर बात करते हुए गुफ्तगू थेरेपी के सह-संस्थापक और मनोचिकित्सक आर्यन सोमैया कहते हैं, “एक थेरेपिस्ट किसी व्यक्ति को प्रभावित करने की स्थिति में होता है, इसलिए यह और भी जरूरी है कि हमारे पास क्वीयर-एफर्मेटिव मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं हों। पितृसत्ता हर किसी के लिए एक सामाजिक बुराई है। चाहे कोई क्वीयर हो या हेटेरोसेक्शुअल। थेरेपिस्ट के लिए भी अपने पूर्वाग्रहों और धारणाओं से मुक्त होकर सभी को समान और सम्मानजनक सकारात्मक मानसिक स्वास्थ्य सेवा प्रदान करना एक चुनौती है। दरअसल, हेटेरोनॉर्मेटिव और होमोसेक्शुअल दोनों समाज एक ही तरह की सामाजिक व्यवस्था में काम करते हैं, इसलिए हमें अलग-अलग समूहों में नहीं, बल्कि एक समाज के रूप में मिलकर काम करना चाहिए।”
‘कन्वर्ज़न थेरेपी’ की कानूनी स्थिति
कन्वर्ज़न थेरेपी (प्रतिषेध) विधेयक, 2022 में जेंडर आइडेंटिटी, जेंडर एक्सप्रेशन, सेक्सुअल ओरिएंटेशन और संवेदनशील व्यक्तियों (वल्नरबल व्यक्ति) जैसे शब्दों की परिभाषाएं दी गई हैं। यह विधेयक भारतीय संविधान और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सिद्धांतों के अनुरूप बनाया गया है। लेकिन सिर्फ प्रतिबंध लगाने से क्वीयर समुदाय को असल में राहत नहीं मिल पाई है। इसका कारण यह है कि यह कानून केवल कन्वर्ज़न थेरेपी को एक चिकित्सकीय प्रथा के रूप में प्रतिबंधित करता है, लेकिन इस प्रथा को ‘अपराध’ नहीं मानता। इसमें किसी भी तरह की दंडात्मक व्यवस्था नहीं है। अगर कोई डॉक्टर या चिकित्सा पेशेवर इस थेरेपी को अपनाता है, तो उसे सिर्फ पेशेवर कदाचार (प्रोफेशनल मिस्कन्डक्ट) माना जाता है। इसकी अधिकतम सज़ा सिर्फ यही है कि उसका नाम नेशनल हेल्थ कमीशन की सूची से हटा दिया जाए। यानी न तो ऐसे लोगों पर आपराधिक मामला दर्ज होता है और न ही कोई कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाती है। यही वजह है कि यह प्रथा अब भी जारी है।
भारत में अभी कोई ऐसा स्पष्ट कानून नहीं है जो कन्वर्ज़न थेरेपी को परिभाषित करता हो या यह बताए कि इसमें कौन-कौन से तरीके शामिल हैं। उदाहरण के तौर पर, कुछ मामलों में शॉक थेरेपी जैसी क्रूर पद्धतियां अपनाई जाती हैं, लेकिन इनके लिए अलग से कोई सज़ा तय नहीं है।
भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 321 के तहत किसी व्यक्ति को जबरन कन्वर्ज़न थेरेपी कराने के लिए मजबूर करना दंडनीय अपराध है। वहीं, धारा 322 के तहत जो लोग (जैसे डॉक्टर या अन्य पेशेवर) खुद यह थेरेपी करते हैं, वे भी दंड के पात्र हैं। दोषी पाए जाने पर उन्हें 2 से 5 साल तक की कैद और 10 लाख रुपये तक जुर्माना हो सकता है। दिल्ली में रहने वाली सुप्रीम कोर्ट की वकील और ट्रांस महिला राघवी कहती हैं, “भारत में अभी कोई ऐसा स्पष्ट कानून नहीं है जो कन्वर्ज़न थेरेपी को परिभाषित करता हो या यह बताए कि इसमें कौन-कौन से तरीके शामिल हैं। उदाहरण के तौर पर, कुछ मामलों में शॉक थेरेपी जैसी क्रूर पद्धतियां अपनाई जाती हैं, लेकिन इनके लिए अलग से कोई सज़ा तय नहीं है। मेडिकल काउंसिल डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों पर कार्रवाई कर सकती है, लेकिन धार्मिक या आध्यात्मिक गुरु, जो दावा करते हैं कि वे क्वीयर लोगों को ‘बदल’ सकते हैं, उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो पाती। कन्वर्ज़न थेरेपी की स्पष्ट परिभाषा की कमी और कानूनी उपायों की सीमाओं के कारण सर्वाइवर के पास अदालत या पुलिस के पास जाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचता।”
वह आगे जोड़ती हैं, “कन्वर्ज़न थेरेपी को अभी अलग-अलग हिंसा की श्रेणियों जैसे ‘साधारण चोट’ या ‘गंभीर चोट’ के तहत दंडित किया जा सकता है। लेकिन अगर इसके लिए एक अलग और स्पष्ट कानून बनाया जाए, तो यह समझना आसान होगा कि हिंसा क्यों की गई और सर्वाइवर को क्या मदद मिल सकती है। ऐसा कानून मौजूदा दंड संहिता (आईपीसी) के प्रावधानों से जुड़ा होना चाहिए, ताकि एक पूरा कानूनी ढांचा तैयार हो सके, जिसके ज़रिए लोग कन्वर्ज़न थेरेपी के मामलों में न्याय पा सकें। यह इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) एक्ट में इस मुद्दे का ज़िक्र नहीं है।”
कन्वर्ज़न थेरेपी को अभी अलग-अलग हिंसा की श्रेणियों जैसे ‘साधारण चोट’ या ‘गंभीर चोट’ के तहत दंडित किया जा सकता है। लेकिन अगर इसके लिए एक अलग और स्पष्ट कानून बनाया जाए, तो यह समझना आसान होगा कि हिंसा क्यों की गई और सर्वाइवर को क्या मदद मिल सकती है।
कनाडा और अल्बानिया जैसे देशों ने कानून बनाकर कन्वर्ज़न थेरेपी को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया है। इसी तरह नौ अन्य देशों में भी इस पर रोक लगाने के लिए बिल पेश किए गए हैं। ब्राज़ील, इक्वाडोर और माल्टा में यह प्रथा पहले से ही पूरे देश में बैन है। कन्वर्ज़न थेरेपी होमोसेक्शूएलिटी को लेकर समाज में मौजूद कलंक और भेदभाव को और बढ़ाती है। यह उन क्वीयर व्यक्तियों के लिए और मुश्किलें खड़ी करती है, जो पहले से ही भेदभाव और हिंसा का सामना कर रहे हैं। भारत में, कानूनी रूप से बैन और मेडिकल संस्थानों की अस्वीकृति के बावजूद, कन्वर्ज़न थेरेपी का जारी रहना इस बात की ओर इशारा करती है कि हमारे समाज में पितृसत्ता, जाति, धर्म और हेटेरोनॉर्मेटिव सोच कितनी गहराई से जड़ें जमाए हुए हैं।
असल में कानूनी सुधार जरूरी हैं, लेकिन केवल कानून बनाना काफी नहीं है। जब तक इन कानूनों को सख्ती से लागू नहीं किया जाएगा, उनकी परिभाषा स्पष्ट नहीं होगी और उल्लंघन पर सज़ा नहीं दी जाएगी, तब तक बदलाव अधूरा रहेगा। इस खतरनाक और हानिकारक प्रथा को खत्म करने के लिए कई दिशाओं में काम करना होगा। इसमें मजबूत कानून बनाना, क्वीयर समुदाय के लिए सस्ती और सुलभ क्वीयर अफर्मटिव स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना, सही शिक्षा देना और उस सोच को तोड़ना जो गैर-हेटेरोनॉर्मेटिव पहचानों को ‘बीमारी’ या ‘गलती’ मानती है को मिटाना शामिल हैं। सही मायनों में बराबरी तभी संभव है जब क्वीयर लोगों को बिना किसी हिचक या डर के प्यार, सम्मान और गरिमा के साथ जीने का अधिकार मिले, जहां उनके साथ किसी भी तरह का भेदभाव या मानवाधिकार उल्लंघन न हो और जहां कमिंग आउट अपनेआप में एक चुनौती न हो।
यह लेख लाडली मीडिया फ़ेलोशिप 2025 के अंतर्गत प्रकाशित किया गया है। व्यक्त किए गए विचार और राय लेखक के अपने हैं। लाडली और यूएनएफपीए का इन विचारों से सहमत होना आवश्यक नहीं है।

