इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ कन्वर्ज़न थेरेपी: क्वीयर समुदाय के साथ हिंसा और अधिकारों की अनदेखी

कन्वर्ज़न थेरेपी: क्वीयर समुदाय के साथ हिंसा और अधिकारों की अनदेखी

कन्वर्ज़न थेरेपी, एक ऐसी रूढ़िवादी और अमानवीय सोच से जुड़ी प्रथा है, जो क्वीयर समुदाय के व्यक्तियों के प्रति भेदभाव को बढ़ावा देती है। इसमें क्वीयर समुदाय के व्यक्तियों को यह समझाया जाता है कि उनकी लैंगिक पहचान एक 'बीमारी' है, जिसे बदलने की जरूरत है और यह संभव है।

कन्वर्ज़न थेरेपी, एक ऐसी रूढ़िवादी और अमानवीय सोच से जुड़ी प्रथा है, जो क्वीयर समुदाय के व्यक्तियों के प्रति भेदभाव को बढ़ावा देती है। इसमें क्वीयर समुदाय के व्यक्तियों को यह समझाया जाता है कि उनकी लैंगिक पहचान एक ‘बीमारी’ है, जिसे बदलने की जरूरत है और यह संभव है। हमारे समाज में जब कोई क्वीयर समुदाय का व्यक्ति अपने परिवार और दोस्तों से अपने यौनिक पहचान बताने की कोशिश करता है, तब अक्सर उसकी बात को या तो अनसुना कर दिया जाता है या फिर उस व्यक्ति को ‘ठीक’ करने के बारे में बातें होना शुरू हो जाती हैं। इस प्रक्रिया में धर्म, मानसिक इलाज, दवाओं, और कभी-कभी शारीरिक हिंसा तक का इस्तेमाल किया जाता है।

यह थेरेपी कहने को तो इलाज कहलाती है, लेकिन असल में यह एक ऐसा मानसिक और भावनात्मक शोषण है, जिससे शोषित व्यक्ति का आत्मविश्वास, मानसिक स्वास्थ्य और जीवन दोनों प्रभावित होते हैं। आज भी भारत समेत कई देशों में यह प्रथा जारी है। कभी छिपकर, तो कभी सामाजिक या धार्मिक ढांचे के नाम पर खुलेआम इसे किया जाता है। इसलिए, यह ज़रूरी है कि हम इस विषय पर खुलकर बात करें, इसके खतरे को समझें और जानें कि कन्वर्ज़न थेरेपी एक हिंसक और मानवाधिकार का उल्लंघन करती प्रक्रिया है।

कन्वर्ज़न थेरेपी, एक ऐसी रूढ़िवादी और अमानवीय सोच से जुड़ी प्रथा है, जो क्वीयर समुदाय के व्यक्तियों के प्रति भेदभाव को बढ़ावा देती है। इसमें क्वीयर समुदाय के व्यक्तियों को यह समझाया जाता है कि उनकी लैंगिक पहचान एक ‘बीमारी’ है, जिसे बदलने की जरूरत है और यह संभव है।

कन्वर्ज़न थेरेपी का खतरनाक प्रभाव

कन्वर्ज़न थेरेपी की वजह से क्वीयर समुदाय के लोगों के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य और खुशहाली पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। कई रिसर्च और रिपोर्ट यह बताती है कि इस तरह की थेरेपी से गुजरने वाले लोग गहरे अवसाद, आत्मघृणा, चिंता और यहां तक कि आत्महत्या से मौत के विचार का सामना करते हैं। यह न सिर्फ मानसिक स्वास्थ्य समस्या का कारण बन सकती है, बल्कि व्यक्ति के आत्मसम्मान और खुद को स्वीकार करने की प्रक्रिया को भी बाधित कर देती है। संयुक्त राष्ट्र के स्वतंत्र विशेषज्ञ विक्टर मड्रिगल-बोरलोज़ की एक रिपोर्ट के अनुसार, कन्वर्ज़न थेरेपी से गुज़रे 98 फीसद लोगों ने मानसिक या शारीरिक नुकसान की बात कही। यह जरूरी है कि हम समझें कि कन्वर्ज़न थेरेपी से किसी की यौनिक पहचान को बदलने का दावा झूठा और गलत है।

तस्वीर साभार : Sky News

ऐसी थेरेपी किसी व्यक्ति को किसी खास जेंडर की तरफ अपने स्वाभाविक आकर्षण को दिखाने से रोकने की बाहरी कोशिश तो कर सकती है, लेकिन वह किसी की लैंगिक पहचान या भावनाओं को बदल नहीं सकती। मई 2020 में, टाइम्स ऑफ इंडिया ने उन लोगों का इंटरव्यू लिया जो कन्वर्ज़न थेरेपी से बुरी तरह प्रभावित हुए थे और उनकी ज़िंदगी की कहानियां बताई। ये कहानियां हमें यह समझने में मदद करती हैं कि जिन लोगों पर ज़बरदस्ती इस थेरेपी को कराने का दबाव डाला जाता है, उन्हें कितनी मुश्किलों से गुजरना पड़ता है। साल 2020 में, केरल की छात्रा अंजना हरीश की कथित तौर पर कन्वर्ज़न थेरेपी के बाद आत्महत्या से मौत हो गई।

संयुक्त राष्ट्र के स्वतंत्र विशेषज्ञ विक्टर मड्रिगल-बोरलोज़ की एक रिपोर्ट के अनुसार, कन्वर्ज़न थेरेपी से गुज़रे 98 फीसद लोगों ने मानसिक या शारीरिक नुकसान की बात कही।

यह सिर्फ एकल घटना नहीं है। इस तरह की खबरें आए दिन सामने आती रहती हैं और कई बार ऐसे मामले रिपोर्ट नहीं होते। हालांकि यह मामला मीडिया में काफी चर्चा में रहा। इसके कुछ समय बाद, क्वैराला नाम के एक संगठन ने, जो केरल में क्वीयर समुदाय के व्यक्तियों की मदद करता है, केरल हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की। उन्होंने अदालत से कहा कि कन्वर्ज़न थेरेपी की सही परिभाषा तय की जाए और राज्य के डॉक्टरों के लिए साफ़-साफ़ नियम बनाए जाएं ताकि ऐसी गलत और खतरनाक थेरेपी दोबारा न हो।

कन्वर्ज़न थेरेपी के विरोध में न्यायपालिका की अहम भूमिका

तस्वीर साभार : The Hindu

सितंबर 2022 में, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) ने कन्वर्ज़न थेरेपी पर रोक लगा दी और इसे गलत पेशेवर व्यवहार माना। एनएमसी ने सभी राज्य मेडिकल काउंसिलों को चिट्ठी लिखकर कहा कि अगर कोई डॉक्टर इस तरह की थेरेपी करता है, तो उसके खिलाफ़ सख्त कार्रवाई की जाए। राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (नालसा) बनाम भारत संघ वाले मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने योग्याकार्ता सिद्धांतों को मान्यता दी थी। इन सिद्धांतों के अनुसार, किसी भी व्यक्ति को उसके लिंग या यौनिक पहचान को बदलने के नाम पर इलाज या अस्पताल में जबरन रखने की इजाज़त नहीं दी जा सकती। हर व्यक्ति को इससे बचाव और सुरक्षा का हक है। भारत में कन्वर्ज़न थेरेपी के चलन का विरोध करने में न्यायपालिका ने सक्रिय भूमिका निभाई है। इसके अलावा, नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर से यह माना था कि क्वीयर होना कोई ‘बीमारी’ नहीं है।

सितंबर 2022 में, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने कन्वर्ज़न थेरेपी पर रोक लगा दी और इसे गलत पेशेवर व्यवहार माना। एनएमसी ने सभी राज्य मेडिकल काउंसिलों को चिट्ठी लिखकर कहा कि अगर कोई डॉक्टर इस तरह की थेरेपी करता है, तो उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए।

क्वीयर व्यक्तियों को उनकी पहचान से जुड़े सामाजिक भेदभाव से निपटने में जरूरी सहायता प्रदान करने के लिए मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों की आवश्यकता पर जोर दिया। द न्यूज मिनट के अनुसार किसी व्यक्ति के जेंडर और यौनिकता में हस्तक्षेप करने वाली प्रथाओं पर प्रतिबंध लगाने का कानूनी कदम 2021 में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति आनंद वेंकटेश द्वारा एस सुषमा बनाम पुलिस आयुक्त मामले में उठाया गया था, जहां एक क्वीयर महिला ने अपने परिवार से सुरक्षा की मांग करते हुए न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। न्यायालय ने घोषणा की कि क्वीयर समुदाय के व्यक्तियों के लिंग पहचान को चिकित्सकीय रूप से ठीक करने या बदलने के किसी भी प्रयास को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। न्यायालय ने किसी भी प्रकार के कन्वर्ज़न थेरेपी में शामिल पेशेवरों के खिलाफ कार्रवाई का भी निर्देश दिया, जिसमें उनका चिकित्सा लाइसेंस रद्द करना भी शामिल है। 

मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी

तस्वीर साभार : Newsclick

केंद्र सरकार के तहत चल रहे मानसिक स्वास्थ्य संस्थानों की वेबसाइटों पर भी कन्वर्ज़न थेरेपी के नुकसान की कोई जानकारी नहीं दी गई है। इस खतरनाक प्रथा पर रोक लगाने और क्वीयर समुदाय के व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करने को लेकर सरकार की बेरुखी चिंता की बात है। यह स्वास्थ्य सेवा की बुनियादी बातों के खिलाफ है। मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े विशेषज्ञों को यह समझना चाहिए कि समान जेंडर के प्रति आकर्षण भी एक स्वाभाविक भावना है। अगर वे इसे नकारते हैं, तो वे उस व्यक्ति की पहचान, उसके जीने के तरीके और उसकी आत्मसम्मान की भावना को ठेस पहुंचाते हैं।

द न्यूज मिनट के अनुसार किसी व्यक्ति के लिंग और यौनिकता में हस्तक्षेप करने वाली प्रथाओं पर प्रतिबंध लगाने का कानूनी कदम 2021 में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति आनंद वेंकटेश द्वारा एस सुषमा बनाम पुलिस आयुक्त मामले में उठाया गया था, जहां  एक क्वीयर महिला ने अपने परिवार से सुरक्षा की मांग करते हुए न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था।

इसलिए, किसी के यौनिक पहचान को ठीक करने या इलाज करने का दावा बिल्कुल गलत, बेबुनियाद और विज्ञान के खिलाफ़ है। योग्याकार्ता सिद्धांतों ने इसे एक तरह का गलत और नुकसानदायक इलाज बताया है और राज्यों को इसे रोकने के लिए कदम उठाने को कहा। इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स के अनुसार संयुक्त राष्ट्र के एक स्वतंत्र विशेषज्ञ की पहली रिपोर्ट में कहा गया है कि यह चिकित्सा अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानूनों का उल्लंघन करती है। इसका कारण यह है कि यह इलाज के नाम पर एक खास समूह को निशाना बनाती है जिनकी यौनिक पहचान दूसरों से अलग होती है।

तस्वीर साभार : The News Minute

विशेषज्ञ अक्सर क्वीयर समुदाय के लिए सही मानसिक स्वास्थ्य सहायता देने में इसलिए नाकाम रहते हैं क्योंकि वे समाज को यह नहीं समझा पाते कि इस समुदाय को मदद पाने के लिए बराबरी, अधिकार, स्वीकार्यता और हिंसा से मुक्त माहौल चाहिए। कई बार इनकी कोशिश सिर्फ दिखावे तक सीमित रहती है, जबकि सुप्रीम कोर्ट जैसे बड़े फैसलों ने असली बदलाव लाने का रास्ता दिखाया है।

इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स के अनुसार संयुक्त राष्ट्र के एक स्वतंत्र विशेषज्ञ की पहली रिपोर्ट में कहा गया है कि यह चिकित्सा अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानूनों का उल्लंघन करती है।

सितंबर 2022 में, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के प्रतिबंध के बावजूद, जुलाई 2023 में द न्यूज़ मिनट को दिए एक इंटरव्यू में केरल की क्वीयर जोड़ी सुमैया शेरिन और अफ़ीफ़ा ने उस झूठे इलाज के बारे में बात की, जिसे रूपांतरण या कन्वर्ज़न थेरेपी कहा जाता है। अफ़ीफ़ा ने बताया कि कोझिकोड के एक बड़े अस्पताल में उनसे ऐसा व्यवहार किया गया जैसे क्वीयर होना कोई बीमारी हो, जिसे इलाज से ठीक किया जा सकता है। मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों, राज्य संस्थानों और समाज को मिलकर यह समझना होगा कि किसी की यौनिकता या लैंगिक पहचान को बदलने की कोशिश करना सिर्फ ग़लत नहीं, बल्कि हिंसक और अमानवीय भी है। समाज का भी यह समझना बेहद ज़रूरी है कि हर व्यक्ति की पहचान उसकी अपनी होती है। इसके लिए किसी इलाज की ज़रूरत नहीं होती।

कन्वर्ज़न थेरेपी पर न सिर्फ कानूनी रोक की ज़रूरत है, बल्कि इसके खिलाफ़ सामाजिक चेतना और शिक्षा की भी बहुत ज्यादा जरूरत है। हर एक इंसान को अपनी यौनिक पहचान के आधार पर अपना जीवन साथी चुनने और अपनी मर्जी अनुसार जीने का अधिकार है। स्कूलों, कॉलेजों, धार्मिक संस्थानों, और स्वास्थ्य सेवाओं में क्वीयर समुदाय के समावेशन की समझ, सहानुभूति, और संवेदनशीलता की ज़रूरत है। हमें ऐसे समाज की ओर बढ़ना चाहिए जहां किसी की पहचान को बदलने की नहीं, उसे अपनाने की बात हो। कन्वर्ज़न थेरेपी पर प्रतिबंध समावेशिता की ओर पहला कदम है, लेकिन असली बदलाव तभी आएगा जब हम अपनी सोच को बदलेंगे।

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