संस्कृतिसिनेमा प्यार, कानून और धर्म के बीच एक महिला की अदृश्य लड़ाई दिखाती फिल्म हक़ 

प्यार, कानून और धर्म के बीच एक महिला की अदृश्य लड़ाई दिखाती फिल्म हक़ 

फिल्म की पृष्ठभूमि मुस्लिम महिलाओं के अधिकार, वैवाहिक सुरक्षा और धार्मिक व्यक्तिगत कानूनों की सीमाओं से घिरी हुई है। फिल्म दिखाती है कि किस तरह धार्मिक व्याख्याओं पर नियंत्रण रखने वाले पुरुष नियमों में फेरबदल करते हैं और उन नियमों के जरिए महिलाओं का शोषण करते हैं।

हमारे पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को अक्सर यह बोला जाता है। धीरे बोलो, मुद्दतों सोचो, मुख़्तसर बोलो (बोलने से पहले बहुत सोच-विचार कर लो और फिर संक्षेप में सोच-समझकर बोलो) और अगर हो सके तो बोलो ही मत। इन बेबाक और क़सक भरे संवादों के साथ हक़ फिल्म की कहानी अपनी पहली सांस लेती है। शाजिया बानो के किरदार में यामी गौतम इन संवादों को जिस मुखरता के साथ कहती है, ऐसा लगता है जैसे शाजिया के किरदार की हर कराह उनकी अपनी है। शाजिया के जरिए वो महिलाओं के साथ हो रही पितृसत्तात्मक राजनीति को बड़ी स्क्रीन पर बेहतरी से उतारती है। निर्देशक सुपर्ण वर्मा ने इस फिल्म को पत्रकार जिग्ना वोरा की किताब ‘बानो भारत की बेटी’ से प्रेरित बताया है। फिल्म की कहानी आखिर तक शाह बानो के केस को समेटे रखती है। 

इसमें शाह बानो के पति अब्बास का किरदार इमरान हाशमी ने बहुत अच्छे से निभाया है। फिल्म निर्माताओं ने केस की संवेदनशीलता को बनाए रखने की भरपूर कोशिश की है। फिल्म अनावश्यक राजनीतिक शोर-शराबे से दूर है। धर्म और कानून को एक ही कतार में रखकर जिस तरह से पर्दे पर पेश किया जा सकता था निर्माताओं ने उस तरह से पेश किया है। हालांकि कहीं -कहीं लग सकता है कि शाह बानो केस और उनके संघर्षों से हटके कहानी को अनावश्यक रोमांचित बनाने की कोशिश की गई है। अब सवाल ये उठता है कि आख़िर फिल्म की पटकथा ने कोर्टरूम में स्त्री-संघर्ष के किस पायदान को उकेरा है? 

धीरे बोलो, मुद्दतों सोचो, मुख़्तसर बोलो, और अगर हो सके तो बोलो ही मत। इन बेबाक और क़सक भरे संवादों के साथ हक़ फिल्म की कहानी अपनी पहली सांस लेती है। शाजिया बानो के किरदार में यामी गौतम इन संवादों को जिस मुखरता के साथ कहती है। ऐसा लगता है जैसे शाजिया के किरदार की हर कराह उनकी अपनी है।

 कौन हैं शाह बानो जिनकी कहानी दिखाती है फिल्म

साल 1978 में मध्यप्रदेश के इंदौर में रहने वाली 62 वर्षीय शाह बानो बेगम एक साधारण महिला थी, जो आर्थिक रूप से पूरी तरह से अपने पति पर निर्भर थी। उनके पति मोहम्मद अहमद खान, शहर के नामी वकील थे। लेकिन शादी के 43 साल बाद मोहम्मद अहमद खान ने उनको कथित तौर पर तीन तलाक दे दिया था। मुस्लिम नियमों के अनुसार शादी के तीन महीने तक पति-पत्नी को मेंटेनेंस भेजता है। इसलिए, शुरुआती कुछ महीनों तक अहमद खान ने उनको पैसे भेजे लेकिन कुछ महीनों बाद उन्हें आर्थिक मदद देना बंद कर दिया। उनके पांच बच्चे थे। उनकी जीविका तलाक के बाद पूरी तरह से आर्थिक रूप से ही नहीं बल्कि सामाजिक रूप से भी डगमगा गई थी। इसलिए, उन्होंने अपने बच्चों के पालन पोषण के लिए अदालत का सहारा लिया। 

देश का यह पहला ऐसा मामला था, जहां भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 यानी समानता और अनुच्छेद 21 यानी जीवन का अधिकार और अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक आज़ादी का होना ये तीनों टकराव में थे। कोर्ट के फैसलों में कई उतार- चढ़ाव के बीच आखिरकार शाह बानो के पक्ष में रहा। लेकिन कथित मुस्लिम कट्टरपंथियों के विरोध के बाद राजीव गांधी की सरकार को तीन महीने तक मेंटेनेंस की अवधि के इस्लामिक नियम को स्वीकृति देनी पड़ी, जिससे सुप्रीम कोर्ट का सुनाया गया फैसला कमजोर हो गया। हालांकि शाह बानो की कानूनी जद्दोजहद ने एक चिंगारी तो लगा दी थी, जो महिलाओं के हक के लिए थी। बीते सालों में तीन तलाक़ को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया था। उस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने इस केस का हवाला दिया था। इसके बाद ही 30 जुलाई 2019 को संसद ने मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम साल 2019 पारित किया, जिसने तत्काल तीन तलाक़ को एक दंडनीय अपराध बना दिया। भले ही यह फैसला लगभग चार दशकों के लंबे इंतज़ार पर हुआ हो, लेकिन, इसकी ज़मीन शाह बानो ने तैयार की थी।

फिल्म की पृष्ठभूमि मुस्लिम महिलाओं के अधिकार, वैवाहिक सुरक्षा और धार्मिक व्यक्तिगत कानूनों की सीमाओं से घिरी हुई है। फिल्म दिखाती है कि कैसे धार्मिक व्याख्याओं पर नियंत्रण रखने वाले पुरुष फेरबदल करते हैं और उन नियमों के जरिए महिलाओं का शोषण करते हैं।

धर्म, कानून और पितृसत्ता के बीच फंसी महिला 

फिल्म की पृष्ठभूमि मुस्लिम महिलाओं के अधिकार, वैवाहिक सुरक्षा और धार्मिक व्यक्तिगत कानूनों की सीमाओं से घिरी हुई है। फिल्म दिखाती है कि कैसे धार्मिक व्याख्याओं पर नियंत्रण रखने वाले पुरुष फेरबदल करते हैं और उन नियमों के जरिए महिलाओं का शोषण करते हैं। पुरुषों के नियम तोड़ने पर उसे सामान्य समझा जाता है। वहीं महिलाओं का बहिष्कार कर दिया जाता है। फिल्म की कहानी साल 1980 से 90 के समय की है। उस वक्त महिलाओं के अधिकारों और उनसे जुड़े मुद्दों के बारे में काफी चर्चा हो रही थी। फिल्म एक तरीके से पूरे केस का कोर्टरूम ड्रामा है जो कुछ सालों तक चला। वास्तव में शाह बानो 62 साल की थी और तलाक के बाद उन्हें कई तरह की बीमारियां भी रहती थी। वहीं फिल्म में उनके किरदार को युवा नायिका पेश करती है। जिससे यथार्थ या सच्चाई खोजने वाले दर्शकों को शिकायत हो सकती है। लेकिन वह अपने अभिनय से उतार चढ़ाव को बड़ी गहनता से पूरा करती है। फिल्म की कहानी शाजिया बानो से शुरू होती है, जो अपने पति अब्बास खान (इमरान हाशमी) से मोहब्बत करती है। फिल्म की शुरुआत में यह भी दिखाया गया है कि अब्बास भी उनसे मोहब्बत करते हैं और उनकी हर फरमाइश का ख्याल रखते हैं, 

यहां तक कि अगर उन्हें अपनी बेगम के लिए किसी से लड़ाई करनी पड़ी तो वह पीछे नहीं हटते। फिल्म का एक दृश्य या वाक्य है, जब शाजिया की बहस उनके पड़ोस में रह रहे मौलाना से हो जाती है। क्योंकि वह जमीन में कुछ फूल लगाना चाहती है। लेकिन उनके छत की दीवार धूप को रोक रही थी। वह मौलाना की बीवी से उसे तोड़ने की इजाजत मांग लेती है। लेकिन मौलाना इससे राज़ी नहीं होते और उससे बहस करते हैं। साथ ही यह भी कहते हैं कि ये तुम्हारा घर नहीं है और न तुम्हारी जमीन तो तुम कैसे फैसला करोगी। जब ये बात वह अब्बास को बताती है, तो अब्बास जमीन का वो हिस्सा उसके नाम करवा देता है। पर कहानी का पड़ाव तब शुरू होता है, जब अब्बास उसे नजरअंदाज करना शुरू करते हैं और कुछ दिनों के लिए पाकिस्तान काम के सिलसिले में जाते हैं । जब वे वहां से जब लौटते है, तब अपनी दूसरी बेगम शायरा को साथ लाते हैं। फिल्म का यह दृश्य एकदम से दर्शकों की भावनाओं की दिशा ही बदल देता है जिस अब्बास से दर्शक मोहब्बत करने लगते हैं । अगले ही पल आप उसे बद्दुआएं देने को मजबूर हो सकते हैं।

कहानी का पड़ाव तब शुरू होता है, जब अब्बास उसे नजरअंदाज करना शुरू करते हैं और कुछ दिनों के लिए पाकिस्तान काम के सिलसिले में जाते हैं। जब वे वहां से जब लौटते है, तब अपनी दूसरी बेगम शायरा को साथ लाते हैं। फिल्म का यह दृश्य एकदम से दर्शकों की भावनाओं की दिशा ही बदल देता है।

क्या धार्मिक नियमों का दायरा एकतरफा है? 

फिल्म का अगला पड़ाव पूरी स्क्रिप्ट को ही पलट देता है। आप खुद में ही तमाम तर्कों से घिर जाते हैं। अभी तक शाजिया और अब्बास की मोहब्बत भरी दुनिया में डूबे हुए दर्शक विशाल मिश्रा के संगीत का आनंद ले रहे थे और अगले ही पल सब कुछ हवा में तब्दील हो जाता है। शाजिया के चेहरे का सन्नाटा बताता है, कि प्यार को नहीं बांटा जा सकता है। सायरा जो अब्बास की दूसरी बीवी बन चुकी है। उसके बारे में शाज़िया को बताया जाता है कि वह एक बेज़ार, मजलूम या अकेली और बेसहारा महिला है। उन पर उनका पति जुल्म करता था और कुछ कर्ज़ और जिम्मेदारियों के चलते उसको उससे शादी करनी पड़ी। लेकिन खुद सायरा उसके सामने सच लेकर आती है कि वह उनसे पहले से मोहब्बत करते थे । लेकिन शादी नहीं कर पाए थे, शाजिया की सांसे थम जाती हैं और चेहरे पर सवालों की कतार उमड़ने लगती है। इस वक्त वह खुद को पूरी तरह से धोखे में रखा हुआ महसूस करती है।

 अब्बास और उसकी माँ धार्मिक तर्कों और आधे-अधूरे किस्सों के सहारे शाजिया को इस रिश्ते को स्वीकारने के लिए कहते हैं। लेकिन जब मामला आत्मसम्मान और अस्तित्व पर आकर ठहरता है, तो वह रुकने का फ़ैसला नहीं करती। वह अपने बच्चों के साथ मायके लौट जाती है। अब सबसे बड़ा सवाल यहीं खड़ा होता है, कि मुस्लिम पर्सनल लॉ का वह तर्क जो पुरुष को एक से अधिक शादी की अनुमति देता है, लेकिन उसकी कई शर्तें हैं। कुरान में साफ तौर पर देखा जा सकता है कि दूसरी शादी तब ही जायज़ है। जब महिला विधवा हो, असहाय हो या उसकी सुरक्षा का कोई सहारा न हो और सबसे अहम पहली पत्नी को इसकी  जानकारी होना जरूरी है । शादी  उनकी सहमति के बिना नहीं कर सकते है। लेकिन पितृसत्तात्मक समाज हमेशा से ही कथित धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या को तोड़ मरोड़ कर महिलाओं का शोषण करता रहा है। और अपनी सहूलियत के हिसाब से धार्मिक नियमों में फेरबदल करता रहा है। गौरतलब है कि महिलाओं को ऐसा करने पर उन्हें समाज से बेदखल कर दिया जाता है।

अब्बास और उसकी माँ धार्मिक तर्कों और आधे-अधूरे किस्सों के सहारे शाजिया को इस रिश्ते को स्वीकारने के लिए कहते हैं। लेकिन जब मामला आत्मसम्मान और अस्तित्व पर आकर ठहरता है, तो वह रुकने का फ़ैसला नहीं करती। वह अपने बच्चों के साथ मायके लौट जाती है।

एक महिला की संवैधानिक और सामाजिक लड़ाई

तुमने जब मुझे तलाक़ कहा था, तब तुम्हें लगा होगा कि एक शब्द से मेरी दुनिया ढह जाएगी, पर सुनो, ढही नहीं ,सिर्फ़ बदली है। महिला की जिंदगी किसी मर्द के तीन लफ्ज़ों की मोहताज नहीं होती। ये अब्बास के लिए शाज़िया के स्वर हैं, जिसे बिना कुछ सोचे समझे  उसने तलाक़ दे दिया। इसके बाद कहानी शाजिया की रोज़मर्रा की जद्दोजहद में उतरती है। बच्चों की फीस, घर का राशन , और समाज के ताने। इसी बीच मजहबी ठेकेदारों के फतवे आते हैं, उसका सामाजिक बहिष्कार करने की मांग उठती है। क्योंकि वह अपने हक के लिए अदालत के दरवाजे खटखटाती है और भरण पोषण की मांग करती है जो किसी भी महिला का संवैधानिक हक है। उसका किरदार दो लड़ाईयां लड़ता है एक वो जो हक के लिए कोर्ट रूम में चल रही है। दूसरी लड़ाई समाज से है जो उसे प्रतिदिन नियमों के रूप में धर्म के ठेकेदारों से लड़नी पड़ती है। लेकिन वह हार नहीं मानती क्योंकि उसे उसके अब्बू के शब्द जोड़े रखते हैं, ‘ तुम सही हो बानो’ और आखिरकार उसकी जीत होती है। 

सदियों से धर्म का रंग चाहे कोई भी रहा हो, नियमों की मार हमेशा महिलाओं पर ही पड़ी है। धर्म -मजहब के कायदे-कानून पुरुषों की सहूलियत के हिसाब से बदलते रहे। लेकिन जब वही नियमों में औरत बदलाव लाएं तो उसे बागी का तमगा दे दिया जाता है। पुरुषों के सामान्य जरूरतों के लिए भी महिलाओं को सालों संघर्ष करना पड़ा है। फिल्म का आखिरी संवाद कितना सटीक बैठता है महिलाओं की स्थिति पर ‘पिछड़ों में भी सबसे पिछड़ी हैं महिलाएं’ क्योंकि सामान्य अधिकारों के लिए भी महिलाओं को संघर्ष करना पड़ता है। फिल्म की खूबसूरती यही है कि इतने संवेदनशील और कंट्रोवर्सियल केस को वह बिना किसी राजनीतिक रंग चढ़ाए, धार्मिक और संवैधानिक नियमों को साफ तौर पर पेश करती है। हालांकि अगर आप इसे शाह बानो के केस से जोड़ के देखेंगे तो शायद उतनी न्यायपूर्ण न लगे लेकिन अभिनय के मामले यामी, इमरान हाशमी ने कमाल किया है। 

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