समाजकैंपस शहरों में प्रवासी विद्यार्थियों के संघर्ष और बिगड़ता मानसिक स्वास्थ्य

शहरों में प्रवासी विद्यार्थियों के संघर्ष और बिगड़ता मानसिक स्वास्थ्य

न्यू इंडियन एक्स्प्रेस की एक रिपोर्ट बताती है कि साल 2014 से 2018 के बीच भारत में प्राथमिक शिक्षा की लागत 30.7 फीसद बढ़ गई। इसी दौरान ग्रेजुएट कोर्स की फीस में 5.8 प्रतिशत और पोस्ट-ग्रेजुएट कोर्स की फीस में 13.19 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।

भारत में, शैक्षिक प्रवास कुछ समय से चल रहा है और हाल के सालों में इसमें तेजी आई है। आज के वैश्विक समय में हजारों विद्यार्थी पढ़ाई के लिए अपने घरों से दूर दूसरे शहरों या देशों में जाते हैं। गाँवों से छोटे शहरों तक, छोटे शहरों से महानगरों तक और महानगरों से विदेशों तक लाखों युवा बेहतर भविष्य की तलाश में अपना घर, परिवार और परिचित माहौल छोड़ देते हैं। रिसर्चगेट में प्रकाशित एक अध्ययन में साल 1991 से 2021 तक भारत में शैक्षिक प्रवासन के बदलावों को समझने की कोशिश की गई। इसमें बताया गया है कि कैसे विद्यार्थी पढ़ाई के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं और इसमें समय के साथ क्या बदलाव आए हैं। देश में शैक्षिक प्रवासन साल 2011 के 5.4 मिलियन से बढ़कर 2021 में लगभग 7.7 मिलियन दर्ज किया गया।

अध्ययन के अनुसार अधिकांश विद्यार्थी छोटी दूरी पर ही प्रवास करते हैं। साल 2021 में करीब 89.3 फीसद विद्यार्थी अपने ही जिले या पास के जिले में पढ़ाई के लिए गए। वहीं साल 2011 में कुल विद्यार्थी आबादी में शैक्षिक प्रवासन 3.63 फीसद था, जो 2021 में घटकर 2.69 फीसद रह गया। उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में शैक्षिक प्रवासन दर कम है। लेकिन, शिक्षा के लिए प्रवासन का सफर सिर्फ किताबों या डिग्री तक सीमित नहीं है। यह एक गहरा अनुभव होता है, जिसमें शिक्षा व्यवस्था की चुनौतियां और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी मुश्किलें शामिल होती हैं। घर से दूर रहना एक तरफ स्वतंत्रता देता है, तो दूसरी तरफ अकेलापन, तनाव और नई परिस्थितियों में ढलने की जिम्मेदारी भी लाता है। विद्यार्थियों को नई भाषा, नई संस्कृति, नए खाने और नए सामाजिक ढांचे के साथ तालमेल बैठाना पड़ता है।

माँ की तबियत ख़राब होने के बावजूद सबने मुझे पढ़ने के लिए बाहर भेजा। आर्थिक तौर पर हॉस्टल की फीस भी जुटा पाना मुश्किल था फिर भी इसका इंतज़ाम घरवालों ने किया। लेकिन हॉस्टल में बेहतर सुविधएं और अच्छे खाने के लिए प्रोटेस्ट करने की वजह से बाहर निकाल दिया गया।

हालांकि 2011 के जनगणना के अनुसार, भारत में 5.5 मिलियन से अधिक लोग शिक्षा के लिए प्रवास दर्ज किया गया, जो कुल प्रवासियों का लगभग 1.2 फीसद था। लेकिन, अब तक अधिकतर अध्ययन जनगणना 2011 और एनएसएस 64वें दौर के आंकड़ों पर आधारित रहे हैं। शोध बताते हैं कि शैक्षिक प्रवासन पर शोध तो हुआ है, पर साल 2011 के बाद के नए और व्यापक आंकड़ों पर आधारित अध्ययन अभी बहुत कम हैं। इसलिए, ये जानना जरूरी है कि घर से दूर रह रहे विद्यार्थी किस तरह के मानसिक या भावनात्मक समस्याओं का सामना कर रहे हैं। प्रवासी विद्यार्थी अक्सर 16–18 साल की उम्र में घर छोड़कर बड़े शहरों में आते हैं, जहां वे छोटे कस्बों और गांवों की परिचित दुनिया से एकदम अलग भाषा, संस्कृति और जीवनशैली का सामना करते हैं। शुरुआत में यह बदलाव रोमांचक लगता है, लेकिन समय के साथ चुनौतियां बढ़ने लगती हैं। लड़कियों के लिए सुरक्षा की चिंता हमेशा साथ रहती है। क्वीयर विद्यार्थियों के लिए परिस्थितियां और कठिन हो जाती हैं।

विद्यार्थियों की आर्थिक चुनौतियां और मानसिक स्वास्थ्य

आर्थिक तनाव इन चुनौतियों को और भी मुश्किल बना देता है। देश में बढ़ती महंगाई, शिक्षा की ऊंची लागत और सीमित आय के कारण परिवारों पर भारी दबाव रहता है। यह तनाव विद्यार्थियों तक भी पहुंचता है। उन्हें फीस, किराया, पीजी का खर्च, खाना और आना-जाना सब कुछ संभालना पड़ता है। उत्तरप्रदेश की ख़दीजा ताहेरा जो अभी जामिया मिलिया इस्लामिया से मास्टर्स कर रही हैं कहती हैं,  “मैं एक छोटे से गाँव से आती हूं। माँ की तबियत ख़राब होने के बावजूद सबने मुझे पढ़ने के लिए बाहर भेजा। आर्थिक तौर पर हॉस्टल की फीस भी जुटा पाना मुश्किल था फिर भी इसका इंतज़ाम घरवालों ने किया। लेकिन हॉस्टल में बेहतर सुविधएं और अच्छे खाने के लिए प्रोटेस्ट करने की वजह से बाहर निकाल दिया गया। ऐसे में खर्च और अधिक बढ़ गया। इन दिनों लगा जैसे और मुश्किल हो रहा है। फिर भी पिताजी ने हर कोशिश की कि मैं पढ़ाई जारी रखूं। एक लड़की के तौर पर बाहर रहना मेरे और घरवालों दोनों के लिए चिंता का कारण है। पढ़ाई, जीवन और सफलता तीनों की जो लड़ाई बराबर बनी रहती है, उससे जूझना आसान नहीं है। साथ ही आर्थिक समस्या तो बराबर बनी रहती है। पी.जी का खर्च, खाने का खर्च और कैंपस आने-जाने का किराया ये सब मैनेज करना मुश्किल है।”

ग्रामीण क्षेत्रों में साल 2008 में एक विद्यार्थी पर सालाना खर्च 5,856 रुपये था, जो साल 2018 में बढ़कर 12,345 रुपये हो गया। शहरी क्षेत्रों में यह खर्च 12,000 रुपये से बढ़कर 28,000 रुपये तक पहुंच गया। ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन के 2020-21 की रिपोर्ट मुताबिक निजी संस्थानों में इंजीनियरिंग कोर्स की ट्यूशन फीस पिछले दस सालों में 50 प्रतिशत से भी ज़्यादा बढ़ी है।

शिक्षा को आगे बढ़ने का रास्ता माना जाता है, लेकिन इसकी बढ़ती कीमत परिवारों के लिए तनाव का कारण बन रही है। आज शिक्षा का आर्थिक दबाव निम्न मध्यम वर्ग को प्रभावित कर रहा है। न्यू इंडियन एक्स्प्रेस की एक रिपोर्ट बताती है कि साल 2014 से 2018 के बीच भारत में प्राथमिक शिक्षा की लागत 30.7 फीसद बढ़ गई। इसी दौरान ग्रेजुएट कोर्स की फीस में 5.8 प्रतिशत और पोस्ट-ग्रेजुएट कोर्स की फीस में 13.19 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय की 2020 की रिपोर्ट अनुसार पिछले दस सालों में शिक्षा पर होने वाला औसत खर्च लगभग दोगुना हो गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में साल 2008 में एक विद्यार्थी पर सालाना खर्च 5,856 रुपये था, जो साल 2018 में बढ़कर 12,345 रुपये हो गया। शहरी क्षेत्रों में यह खर्च 12,000 रुपये से बढ़कर 28,000 रुपये तक पहुंच गया। ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन के 2020-21 की रिपोर्ट मुताबिक निजी संस्थानों में इंजीनियरिंग कोर्स की ट्यूशन फीस पिछले दस सालों में 50 प्रतिशत से भी ज़्यादा बढ़ी है। रिपोर्ट बताती है कि शिक्षा महंगाई महामारी के दौरान अप्रैल 2021 में कुछ समय के लिए 0.63 प्रतिशत तक गिर गई थी। लेकिन एक साल बाद यह फिर बढ़कर 4.12 प्रतिशत हो गई। साल 2024 की रिपोर्ट अनुसार यह औसतन 11 से 12 प्रतिशत के आसपास बनी हुई है।

डिजिटल दुनिया और विद्यार्थियों मानसिक स्वास्थ्य

आज की दुनिया में तकनीक, सोशल मीडिया और डिजिटल कनेक्टिविटी बहुत बढ़ गई है, फिर भी लोग पहले से ज़्यादा अकेलापन महसूस कर रहे हैं। एकाकीपन और सामाजिक अलगाव अब सिर्फ़ एक भावना नहीं, बल्कि एक गंभीर सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा बन गया है। दोस्ती, सपोर्ट सिस्टम और अपनापन न होने से यह समस्या और बढ़ जाती है। यह चुनौती खासकर उन प्रवासी विद्यार्थियों के लिए ज़्यादा गहरी होती है जो अपने घर, गांव या राज्य को छोड़कर पढ़ाई के लिए दूसरे शहर जाते हैं। परिवार से दूर एक नए माहौल में रहना, जहां अपना कोई नहीं होता, उन्हें असहज कर सकता है। इस कारण वे दोस्त, सपोर्ट सिस्टम और बिलॉंगिंग की कमी महसूस करते हैं।

मैं पहली बार घर से इतनी दूर पढ़ने आई हूं। परिवार ने मुझ पर भरोसा किया है, इसलिए अच्छा करने का दबाव रहता है। जब अकेलापन महसूस होता है, तो लगता है यहां मुझे सपोर्ट करने वाला कोई नहीं है। इसका असर मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है।

उड़ीसा की रख़संदा जो मौलाना आज़ाद नैशनल उर्दू यूनिवर्सिटी में मास्टर्स कर रही हैं, कहती हैं, “मैंने ग्रेजुएशन उड़ीसा में किया था। पढ़ाई में कोई खास फर्क नहीं है, बस राज्य और केंद्रीय विश्वविद्यालय का फर्क है। लेकिन मानसिक स्वास्थ्य की बात अलग है। मैं पहली बार घर से इतनी दूर पढ़ने आई हूं। परिवार ने मुझ पर भरोसा किया है, इसलिए अच्छा करने का दबाव रहता है। जब अकेलापन महसूस होता है, तो लगता है यहां मुझे सपोर्ट करने वाला कोई नहीं है। इसका असर मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है।” साफ तौर पर एकाकीपन और सामाजिक अलगाव प्रवासी विद्यार्थियों के लिए एक बड़ी और वास्तविक समस्या है। यह केवल भावनात्मक बोझ नहीं, बल्कि एक व्यापक मानसिक स्वास्थ्य संकट का हिस्सा है। इसलिए, शैक्षणिक संस्थानों इस मुद्दे को गंभीरता से लेना चाहिए और विद्यार्थियों के लिए सुलभ मानसिक स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना चाहिए कराएं, ताकि उन्हें मानसिक तौर पर कमजोर और असुरक्षित महसूस न हो।

भाषा, संस्कृति और भेदभाव की दीवारें और बढ़ता मानसिक तनाव

आज के समय में लोग शिक्षा, नौकरी, कारोबार और सुरक्षा के कारण लगातार एक जगह से दूसरी जगह जा रहे हैं। लेकिन नया शहर, नई भाषा और अलग संस्कृति कई बार अपनापन महसूस नहीं होने देती। जब आसपास का माहौल अनजान हो, तो घुलना-मिलना कठिन हो जाता है और यही दूरी धीरे-धीरे मानसिक तनाव में बदलने लगती है। केरल के रहने वाले अभिनंत, जो हैदराबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी में मास्टर्स कर रहे हैं, बताते हैं, “मलयालम और अकादमिक अंग्रेज़ी से अचानक तेलुगु और हिंदी के माहौल में आना आसान नहीं था। निर्देश समझने और समूह में बात करने में दिक्कत आती थी। खाने में भी अपने राज्य का स्वाद ढूँढ़ना मुश्किल था। इन सब कारणों से मुझे सामाजिक बातचीत में हिचक होने लगी और शुरुआत में नए लोगों से दोस्ती करना कठिन था।”

देश में शैक्षिक प्रवासन साल 2011 के 5.4 मिलियन से बढ़कर 2021 में लगभग 7.7 मिलियन दर्ज किया गया। अध्ययन के अनुसार अधिकांश विद्यार्थी छोटी दूरी पर ही प्रवास करते हैं। साल 2021 में करीब 89.3 फीसद विद्यार्थी अपने ही जिले या पास के जिले में पढ़ाई के लिए गए।

वहीं बिहार के सलमान, जो हैदराबाद विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में मास्टर्स कर रहे हैं, कहते हैं, “मुझे हिंदी साहित्य बहुत पसंद है, इसलिए मैं इंजीनियरिंग छोड़कर हिंदी पढ़ने आया। लेकिन कई लोग यह सुनकर हैरान होते हैं कि एक मुसलमान हिंदी क्यों पढ़ रहा है। वे मानते हैं कि मुसलमानों को उर्दू या अरबी ही पढ़नी चाहिए। यह सोच गलत है, क्योंकि भाषा का धर्म से कोई संबंध नहीं होता। लेकिन ऐसी टिप्पणियां मानसिक तनाव का कारण बंटी है।” बता दें कि नीति आयोग के अनुसार अनेक राज्यों के सरकारी विश्वविद्यालयों से पास होने वाले कई युवा कमजोर अंग्रेज़ी दक्षता के कारण रोजगार से वंचित रह जाते हैं। इसलिए आयोग ने सुझाव दिया था कि ये विश्वविद्यालय अंतरराष्ट्रीय भाषा संस्थाओं के साथ मिलकर अंग्रेज़ी और अन्य विदेशी भाषाओं के प्रशिक्षण प्रोग्राम शुरू करें।

कॉलेजों में परामर्श और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की कमी

आज की शिक्षा व्यवस्था में प्रतियोगिता, करियर और सफलता पर बहुत ज़ोर है, लेकिन विद्यार्थियों का मानसिक स्वास्थ्य लगातार प्रभावित हो रहा है। पढ़ाई का दबाव, पारिवारिक और सामाजिक अपेक्षाएं, आर्थिक समस्याएं और सोशल मीडिया जैसे कई कारण विद्यार्थियों में तनाव, चिंता और अकेलेपन को बढ़ाते हैं। ऐसी स्थिति में काउंसलिंग की ज़रूरत और भी बढ़ जाती है। लेकिन हकीकत यह है कि ज़्यादातर कॉलेजों में ये सुविधाएं या तो नहीं हैं या बहुत सीमित हैं। कई कॉलेजों में काउंसलर की पोस्ट खाली रहती है और कई जगह काउंसलर सिर्फ औपचारिकता के लिए रखे जाते हैं। प्रशासन भी मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता नहीं देता। इस कमी के कारण उनमें ध्यान और आत्मविश्वास में कमी और नकारात्मक विचार बढ़ते हैं। यह सिर्फ एक व्यवस्थागत खामी नहीं, बल्कि उनके भविष्य को प्रभावित करने वाला गंभीर मुद्दा है। शैक्षणिक संस्थानों को समझना होगा कि मानसिक स्वास्थ्य कोई अतिरिक्त सुविधा नहीं, बल्कि बुनियादी ज़रूरत है। आज की प्रतिस्पर्धा में शिक्षा जरूरी है, लेकिन मानसिक स्वास्थ्य भी जरूरी है। घर से दूर रहने वाले विद्यार्थियों के लिए यह चुनौती और भी बढ़ जाती है। इसलिए कॉलेजों, परिवारों और समाज को मिलकर एक ऐसा माहौल बनाना चाहिए जहां विद्यार्थी सुरक्षित महससो करें, सुने जाएं गए और समर्थित महसूस करें।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content