इतिहास एल्वेरा ब्रिटो: ‘हॉकी क्वीन’ कहलाई जाने वाली दिग्गज खिलाड़ी| #IndianWomenInHistory

एल्वेरा ब्रिटो: ‘हॉकी क्वीन’ कहलाई जाने वाली दिग्गज खिलाड़ी| #IndianWomenInHistory

एल्वेरा ब्रिटो भारतीय फील्ड हॉकी की एक प्रमुख खिलाड़ी थीं। इसके साथ ही उन्होंने भारतीय महिला हॉकी टीम और मैसूर राज्य टीम की कप्तानी भी की।

भारत की महिला हॉकी खिलाड़ियों की कहानी मेहनत, जुनून और हिम्मत से भरी हुई है। उन्होंने समाज की रूढ़िवादी सोच और कई तरह की मुश्किलों का सामना करके पुरुषों का खेल माने जाने वाले, हॉकी खेल में अपनी जगह बनाई। भारत में महिला हॉकी खेल धीरे–धीरे आगे बढ़ा। इसमें खिलाड़ियों की कड़ी मेहनत के साथ-साथ हॉकी इंडिया का भी बड़ा योगदान है, जिसने महिला टीम को बेहतर ट्रेनिंग, सुविधाएं और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में खेलने के मौके दिए। यह रास्ता इतना आसान नहीं था, महिलाओं ने संसाधनों की कमी, समाज की रूढ़िवादी सोच और अवसरों की कमी जैसी कई बाधाओं का सामना किया। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और इन सबको पार कर अपनी एक अलग पहचान बनाई। आज भारतीय महिला हॉकी टीम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान मजबूती से स्थापित कर चुकी है। लेकिन इसकी शुरुआत बेहद सीमित संसाधनों और सामाजिक स्वीकार्यता की चुनौतियों के बीच हुई थी। 

साल 1950 के दशक को भारत में महिला हॉकी के औपचारिक विकास का काल माना जाता है। विभिन्न राज्यों में स्थानीय स्तर पर टूर्नामेंट शुरू हुए, और धीरे-धीरे राष्ट्रीय प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जाने लगीं। इसी दौर ने पहली ऐसी महिला खिलाड़ियों को जन्म दिया जिन्होंने इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। भारतीय महिला हॉकी के शुरुआती दौर में नेतृत्व, कौशल और दृढ़ता का प्रतीक बनकर उभरते हुए खेल को नई दिशा दी। उन्हीं में से एक खिलाड़ी थीं, एल्वेरा ब्रिटो जो कि भारतीय फील्ड हॉकी की एक प्रमुख खिलाड़ी थीं। इसके साथ ही उन्होंने भारतीय महिला हॉकी टीम और मैसूर राज्य की टीम की कप्तानी भी की। वह अन्य महिलाओं के लिए भी प्रेरणा का स्त्रोत बनीं। उनकी यह यात्रा आज लाखों लड़कियों को खेलों में आगे बढ़ने और अपने सपने पूरे करने की प्रेरणा देती है।

एल्वेरा ब्रिटो भारतीय फील्ड हॉकी की एक प्रमुख खिलाड़ी थीं। इसके साथ ही उन्होंने भारतीय महिला हॉकी टीम और मैसूर राज्य की टीम की कप्तानी भी की।

शुरुआती जीवन और खेल के क्षेत्र में रुचि 

एल्वेरा ब्रिटो भारतीय महिला हॉकी टीम के शुरुआती खिलाड़ियों में से एक थी। उनका जन्म 15 जून 1940 को बैंगलोर के एक उपनगर कुक टाउन में एक एंग्लो-इंडियन परिवार में हुआ था जो खेलों को अधिक महत्व देता था। वह चार बहनों में सबसे बड़ी थीं, जिनमें से तीन ने राष्ट्रीय महिला हॉकी टीम के सदस्य के रूप में देश का प्रतिनिधित्व किया। उनकी बहनें रीता और मॅई भी महिला हॉकी की सक्रिय और सफल खिलाड़ी बनीं। यह भारतीय खेल इतिहास में एक अनोखा अध्याय है। 

जहां एक ही परिवार की तीन बहनों ने राष्ट्रीय स्तर पर अपने प्रदर्शन से अपनी पहचान बनाई। अपने बचपन में, उन्होंने क्रिकेट, तैराकी और फुटबॉल सहित कई खेलों में भाग लिया। उन्होंने बैंगलोर के सेंट फ्रांसिस जेवियर गर्ल्स हाई स्कूल में पढ़ाई की। इसके साथ ही उन्होंने 13 साल की उम्र में हॉकी खेलना शुरू कर दिया था। जिसकी बदौलत साल 1960 के दशक में वह भारतीय महिला हॉकी की सबसे बड़ी शख्सियतों में से एक बन गई। वे खेल में बहुत अच्छी थी और साथ ही टीम को संभालने, नियमों का पालन करने और सबको साथ लेकर चलने में भी बेहतरीन कप्तान और खिलाड़ी थीं। 

उन्होंने बैंगलोर के सेंट फ्रांसिस जेवियर गर्ल्स हाई स्कूल में पढ़ाई की। इसके साथ ही उन्होंने 13 साल की उम्र में हॉकी खेलना शुरू कर दिया था। जिसकी बदौलत साल 1960 के दशक में वह भारतीय महिला हॉकी की सबसे बड़ी शख्सियतों में से एक बन गई।

एल्वेरा ब्रिटो की खेल यात्रा और सफलताएं 

ब्रिटो ने कम उम्र में हॉकी खेलना शुरू कर दिया था। हॉकी के प्रति उनकी रुचि और जुनून के कारण आगे चलकर वह मैसूर राज्य की महिला हॉकी टीम की कप्तान बनीं। उन्होंने साल 1960 में तत्कालीन मैसूर का प्रतिनिधित्व करते हुए राष्ट्रीय स्तर के स्कूल टूर्नामेंट में अपनी बहनों के साथ बड़े लीग में प्रवेश किया। साल 1960 और 1967 के बीच कप्तान के रूप में, उन्होंने टीम को लगातार आठ सालों तक राष्ट्रीय खिताब जीतने में मदद की और प्रशंसकों के बीच गहरी रुचि पैदा की। उन्होंने ऑस्ट्रेलिया, जापान और श्रीलंका के खिलाफ खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया। वो भारत की दूसरी महिला हॉकी खिलाड़ी थीं, जिन्हें अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 

इससे पहले, ऐनी लम्सडेन ने साल 1961 में यह पुरस्कार जीता था। ब्रिटो का भारत के लिए उनका आखिरी प्रदर्शन साल 1967 में हुआ था, जब उन्होंने मेहमान ऑस्ट्रेलियाई टीम के खिलाफ खेला था, जो एक अंतरराष्ट्रीय मैच के लिए जाते समय भारत आई थी। साल 1970 में उन्होंने हॉकी से सन्यास ले लिया। टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी खबर के मुताबिक, अपने संन्यास पर उन्होंने कहा था, ‘वह खेलना जारी रखना चाहती थी, उनमें  अभी भी बहुत हॉकी बाकी थी। लेकिन जब आपको यह संदेश दिया जाता है कि अब आपकी ज़रूरत नहीं है, तो आप समझ जाते हैं कि अब सिर ऊंचा करके विदा लेने का समय आ गया है।’

साल 1960 और 1967 के बीच कप्तान के रूप में, उन्होंने टीम को लगातार आठ सालों तक राष्ट्रीय खिताब जीतने में मदद की और प्रशंसकों के बीच गहरी रुचि पैदा की। उन्होंने ऑस्ट्रेलिया, जापान और श्रीलंका के खिलाफ खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया।

हॉकी से संन्यास और उसके बाद का योगदान

संन्यास लेने के बाद वह एक प्रशासक के रूप में खेल से जुड़ी रहीं। वह आठ साल दो कार्यकालों के लिए कर्नाटक राज्य महिला हॉकी संघ की अध्यक्ष रहीं। उन्होंने बारह साल से अधिक समय तक राष्ट्रीय हॉकी टीम की चयनकर्ता और प्रबंधक के रूप में भी काम किया। साथ ही राज्य में महिला हॉकी के लिए बदलाव किए, हॉकी को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने विद्यालयों में प्रतियोगिताओं का आयोजन करवाया। एक प्रशासक के रूप में, वह सक्रिय रूप से काम करती रहीं। इस दौरान वह राष्ट्रीय चयनकर्ता, सरकारी पर्यवेक्षक रहीं और साल 1998 और 1990 में कज़ाकिस्तान और बीजिंग में आयोजित प्रतियोगिताओं के लिए भारतीय टीम की प्रबंधक के रूप में भी काम किया। इसके साथ ही पद से हटने के बाद भी, उन्होंने महिला हॉकी की प्रगति पर गहरी नज़र रखी।

भारत के पूर्व पुरुष हॉकी कप्तान जूड फेलिक्स ने, महिला हॉकी की स्थिति सुधारने के लिए एल्वेरा की अटूट मेहनत को देखते हुए कहा था, ‘हर बार जब वो उनसे मिलता था, तो महिला हॉकी के प्रति उनके जुनून को देखकर दंग रह जाता था। उनका मानना ​​था कि महिलाओं को खेल में पुरुषों के समान अवसर नहीं मिलते हैं, इसलिए उन्होंने हमेशा महिला हॉकी के लिए चीजों को बेहतर बनाने की कोशिश की।’ इससे यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि उन्होंने हॉकी के लिए अपने पूरे जीवन लग्न और मेहनत से अपना योगदान दिया। 81 साल की उम्र में, 26 अप्रैल 2022 को बैंगलोर में दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई।

 लेकिन अपने योगदान के लिए वो हर एक हॉकी प्रेमी के मन में जीवित रहेंगी और प्रेरणा के तौर पर याद की जाती रहेंगी। यही नहीं उनका जीवन आज भी अनगिनत लड़कियों और खिलाड़ियों के लिए प्रेरणा बनकर चमकता है। उन्होंने ऐसे समय में हॉकी खेली, जब महिलाओं के लिए खेल के मैदान में कदम रखना भी आसान नहीं था। न सुविधाएं थीं, न समाज का समर्थन लेकिन उनके अंदर हिम्मत, जुनून और खुद पर मजबूत विश्वास था। उन्होंने यह साबित किया कि बड़ी उपलब्धियां पाने के लिए बड़े संसाधन नहीं, बल्कि मेहनत जरूरी होती है। आज जब भारतीय महिलाएं हॉकी में निरंतर सफलताएं हासिल कर रही हैं, तो उसके पीछे उनके जैसी खिलाड़ियों की मेहनत और संघर्ष दिखाई देता है। वे केवल एक इतिहास का हिस्सा नहीं, बल्कि उन सभी लड़कियों के लिए उम्मीद और प्रेरणा का स्रोत हैं, जो सीमाओं को तोड़कर अपने सपनों को सच करना चाहती हैं और आगे बढ़ना चाहती हैं। 

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