स्वास्थ्यमानसिक स्वास्थ्य अनौपचारिक क्षेत्र में कामकाज़ी महिलाओं का मानसिक स्वास्थ्य संकट और संघर्ष  

अनौपचारिक क्षेत्र में कामकाज़ी महिलाओं का मानसिक स्वास्थ्य संकट और संघर्ष  

सड़क किनारे ठेले, रेहड़ी, अस्थायी सामान-विक्रेता, या प्रवासी-महिलाएं जो अनौपचारिक काम से जुड़ी हैं, ये श्रमिक-समूह मानसिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से सबसे कमजोर श्रेणियों में आते हैं। क्योंकि इनका काम स्थिर नहीं होता है।

ट्रिगर वार्निंग: सेल्फ हार्म और आत्महत्या से मौत का जिक्र

आज के बदलते सामाजिक, आर्थिक और तकनीकी परिवेश में महिलाओं की भूमिका केवल घर तक सीमित नहीं रही है। वे शिक्षा, रोजगार, राजनीति, सेवा और उद्योग हर क्षेत्र में अपनी पहचान बना रही हैं। एक ओर अपनी पहचान की तरफ भागती महिलाएं हैं, तो वहीं दूसरी ओर अपनी घर की रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए सफ़ाई कर्मी के रूप में और सड़क किनारे ठेले लगाने वाली महिलाएं हैं। इस जद्दोजहद की प्रगति के पीछे मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी कई अदृश्य चुनौतियां छिपी हुई हैं। समाज में मौजूद लैंगिक भेदभाव, घरेलू हिंसा, कार्यस्थल पर असमान व्यवहार, दोहरी जिम्मेदारियां और सामाजिक अपेक्षाओं का बोझ महिलाओं के मानसिक संतुलन को गहराई से प्रभावित करता है। 

प्रगतिशील महिलाएं अपनी समस्या पर बात रखने में सक्षम हैं। उन्हें मानसिक स्वास्थ्य का मतलब पता है। लेकिन जो महिलाएं समाज के प्रगतिशील सूची में नहीं आती हैं। उन्हें इसके बारे में नहीं मालूम होता है, कि परिवार की जरूरतों को पूरा करते हुए वो अपने मानसिक स्वास्थ्य को कितना नुकसान पहुंचा रही हैं। भारत में बड़ी संख्या में महिलाएं अवसाद, चिंता और भावनात्मक थकान जैसी समस्याओं से जूझ रही हैं, लेकिन सामाजिक भेदभाव और जागरूकता की कमी के कारण वे खुलकर अपनी परेशानी व्यक्त नहीं कर पाती हैं। भारत की अर्थव्यवस्था में अनौपचारिक क्षेत्र की महिलाएं रीढ़ की हड्डी हैं, फिर भी उनकी मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति एक गंभीर संकट का रूप ले चुकी है। मॉल में रिटेल कार्यकर्ता, सफाई कर्मी और सड़क किनारे विक्रेता या दुकानदारी का काम करके अपनी रोज़गार चलाने वाली महिलाएं दैनिक संघर्षों से जूझती हैं, जहां तनाव, असुरक्षा और शोषण उनके मन को तोड़ रहे हैं। कामकाजी महिलाओं की मानसिक स्थिति सीधे-सीधे उनकी आजीविका, काम की अस्थिरता, सामाजिक सुरक्षा की कमी और कार्यस्थल की चुनौतियों से प्रभावित होती है।

मेरा बेटा जो चेन्नई से इंजीनियरिंग कर रहा है। उसकी सारी जिम्मेदारी मेरे कंधों पर है। सुबह मैं अपने छोटे बच्चों के लिए खाना बनाकर जाती हूं, फिर सारा दिन स्कूल में काम करती हूं। मेरा  वेतन महज 8000 रुपये महीना है। इतने कम वेतन में घर की रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करना और बेटे को खर्चा भेजना। इसके साथ -साथ बाकी बच्चों की जरूरतों को पूरा कर पाना बहुत मुश्किल होता है।

महिलाओं पर बढ़ता मानसिक बोझ

हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट अनुसार एक सर्वे में 5000 कामकाज़ी लोगों को शामिल किया गया था, जिसमें पाया गया कि लगभग 72 फीसदी भारतीय महिलाओं का तनाव स्तर बहुत उच्च है, जबकि पुरुषों में यह संख्या 53.6 फीसदी रही। इसके साथ ही 18 फीसदी महिलाओं ने कहा कि उन्हें व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन में संतुलन बनाने में संघर्ष करना पड़ता है, जबकि पुरुषों में यह आंकड़ा केवल 12 फीसदी था। नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के एक शोध मुताबिक ग्रामीण ओडिशा में महिलाओं की स्वच्छता अनुभवों और मानसिक स्वास्थ्य के बीच मजबूत संबंध पाया गया, जहां खराब शौचालय सुविधा चिंता और अवसाद को बढ़ाती हैं। वहीं रिटेल क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं पर एक शोध से पता चलता है कि कार्य-संबंधी तनाव उनकी शारीरिक और मानसिक सेहत को बुरी तरह प्रभावित करता है, जिसमें लंबे घंटे और ग्राहक दुर्व्यवहार प्रमुख कारक हैं। ये दिखाता है कि समाज की यह उदासीनता न केवल इन महिलाओं को तोड़ रही है, बल्कि पूरे राष्ट्र की प्रगति को बाधित कर रही है।

45 वर्षीय बीना देवी एक निजी स्कूल में सफाईकर्मी हैं। वह बताती हैं, “मेरे दो बेटे और 2 बेटियां हैं। पति के अधिकतर समय बेरोजगार रहने और घर की रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने की जद्दोजहद मुझे हर वक्त परेशान करती हैं। मेरा बेटा जो चेन्नई से इंजीनियरिंग कर रहा है। उसकी सारी जिम्मेदारी मेरे कंधों पर है। सुबह मैं अपने छोटे बच्चों के लिए खाना बनाकर जाती हूं, फिर सारा दिन स्कूल में काम करती हूं । मेरा  वेतन महज 8000 रुपये महीना है। इतने कम वेतन में घर की रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करना और बेटे को खर्चा भेजना। इसके साथ -साथ बाकी बच्चों की जरूरतों को पूरा कर पाना बहुत मुश्किल होता है। आगे वह बताती हैं, मेरे बेटे ने सरकारी लोन करा रखा है, जिससे कुछ महीने उसके जिम्मेदारी से निजात मिल जाती है। मेरे पति अधिकतर समय बेरोजगार रहते हैं और चाहते कि मेरे वेतन से उनकी ख्वाहिश पूरी हो। मना करने पर गाली देते हैं और लड़ाई करते हैं। मैं कभी- कभी अपनी परेशानियों से बहुत थक जाती हूं और सोचती हूं कि किसी ट्रेन के आगे कूद जाऊं लेकिन अपने बच्चों का चेहरा देख कर रुक जाती हूं।”

मेरे बेटे ने सरकारी लोन करा रखा है, जिससे कुछ महीने उसके जिम्मेदारी से निजात मिल जाती है। मेरे पति अधिकतर समय बेरोजगार रहते हैं और चाहते कि मेरे वेतन से उनकी ख्वाहिश पूरी हो। मना करने पर गाली देते हैं और लड़ाई करते हैं। मैं कभी- कभी अपनी परेशानियों से बहुत थक जाती हूं और सोचती हूं कि किसी ट्रेन के आगे कूद जाऊं लेकिन अपने बच्चों का चेहरा देख कर रुक जाती हूं।

कामकाज़ी जीवन, शोषण और मानसिक स्वास्थ्य

भारत की अधिकतर महिलाएं गरीबी के साथ- साथ बेवजह के पितृसत्तात्मक व्यवहार का सामना कर रही हैं, जो उनके अवसाद में बढ़ोत्तरी का कारण बनता हैं। उसमें भी अगर पुरुष बेरोजगार हो तो उनका जीवन दूभर हो जाता हैं। इंटरनैशनल जर्नल ऑफ क्रिएटिव रिसर्च थॉट्स (आईजेसीआरटी) में छपी एक  रिपोर्ट के मुताबिक, रिटेल, मॉल सेक्टर में काम करने वाली महिलाएं अक्सर औपचारिक और अनौपचारिक दोनों स्तरों पर मानसिक स्वास्थ्य समस्या या तनाव का सामना करती हैं। लंबे काम के घंटे, ग्राहकों का दबाव, देर रात तक की शिफ्ट, वेतन और अवसरों में जेंडर आधारित भेदभाव आदि ये सभी काम से जुड़ी स्थितियां महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य के लिए खतरा बन जाती हैं।

रिटेल क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं में कार्य-संबंधित तनाव काफी अधिक पाया गया है। वे अपने काम-स्थल में लगातार ‘स्माइलिंग फेस’ बनाए रखने के दबाव में होती हैं, भावनाओं को दबाती हैं। जिस कारण  बर्नआउट का खतरा बढ़ जाता है। बायोमेड सेंट्रल पब्लिक हेल्थ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय कार्य स्थलों में मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियों की पहचान और खुलकर बताने (डिस्क्लोज़र) का सांस्कृतिक-आयाम कमजोर है, खासकर  महिलाओं के लिए। यानी समस्या केवल यह नहीं कि महिलाएं तनाव का अनुभव कर रही हैं, बल्कि यह भी है कि वे उसे सार्वजनिक रूप से साझा नहीं कर पाती हैं। क्योंकि मज़ाक और डर उनके लिए रुकावट पैदा करता है। वहीं मॉल/रिटेल के काम में उन महिलाओं के लिए विशेष रूप से कठिन यह है कि काम के स्थान पर सामाजिक समर्थन कम होता है।

मेरे पति एक समय के बाद अपने पूरे परिवार को छोड़कर चले गए। हमने उन्हें बहुत ढूंढा पर कोई खबर नहीं मिली। पति के जाने के बाद घर की सारी जिम्मेदारी मुझ पर आ गई। उसके बाद से मैं गांव से शहर आकर अमरूद बेचने काम कर रही हूं। मैंने एक बेटी की शादी कर दी है और दूसरी बेटी की शादी के लिए पैसे इकट्ठा कर रही हूं। बेटी की शादी के बाद थोड़ा सुकून मिलेगा।

 बहुत बार अकेले काम करना पड़ता है, रात की शिफ्ट में परिवार के साथ समय सीमित होता है। इसके साथ ही अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं होतीं हैं। ऐसे में काम की जगह का माहौल महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर डालता है। 75 वर्षीय लाजवंती देवी अमरूद बेचती हैं। ये शहर से लगे गांव में अपने परिवार के साथ जीवन यापन करती हैं। इनके 2 बेटा 2 बेटियां हैं। यह बताती हैं , “मेरे पति एक समय के बाद अपने पूरे परिवार को छोड़कर चले गए। हमने उन्हें बहुत ढूंढा पर कोई खबर नहीं मिली। पति के जाने के बाद घर की सारी जिम्मेदारी मुझ पर आ गई। उसके बाद से मैं गांव से शहर आकर अमरूद बेचने काम कर रही हूं। मैंने अपने बेटे की शादी की लेकिन कुछ वक्त बाद उसकी मृत्यु हो गई और उसके कुछ समय बाद मेरे पोते और बहु की भी मृत्यु हो गई।” आगे वह कहती हैं,  मुझसे बड़ी दुखियारी कौन होगी। मेरा एक बेटा दिल्ली में जाकर काम करता है जिसके ऊपर बहुत कम उम्र में मां और बहन की जिम्मेदारी आ गई है। मैंने एक बेटी की शादी कर दी है और दूसरी बेटी की शादी के लिए पैसे इकट्ठा कर रही हूं। बेटी की शादी के बाद थोड़ा सुकून मिलेगा। “ जिस उम्र में सभी आराम करते हैं वे सर पर अमरूद की टोकरी उठाए अपनी जिम्मेदारी निभा रही हैं।

अनौपचारिक श्रम में महिलाएं और संघर्ष

सड़क किनारे ठेले, रेहड़ी, अस्थायी सामान-विक्रेता, या प्रवासी-महिलाएं जो अनौपचारिक काम से जुड़ी हैं, ये श्रमिक-समूह मानसिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से सबसे कमजोर श्रेणियों में आते हैं। क्योंकि इनका काम स्थिर नहीं होता है।  साथ ही सामाजिक सुरक्षा भी न के बराबर होती है, और उन्हें नस्ल, श्रेणी, जेंडर और आर्थिक-स्थिति के आधार पर कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। फ्रंटियर्स में छपे एक अध्ययन के मुताबिक,  महिलाओं ने बताया कि उन्हें कई तरह की दिक्कतों की वजह से तनाव होता है, जैसे ओवरटाइम या लंबे समय तक काम करना, ज़रूरत पड़ने पर छुट्टी न मिलना, वेतन में असमानता, नौकरी जाने का डर, और कार्यस्थल पर सुविधाओं की कमी। इसके अलावा, अवसरों की कमी भी तनाव बढ़ाती है।  साथ ही, आवास-सुरक्षा, स्वास्थ्य-सेवाओं तक पहुंच, सामाजिक-नेटवर्क की कमी ये सब कारण अनौपचारिक काम से जुड़ी महिलाओं के लिए दोहरे मानसिक दबाव पैदा करते हैं।

मेरे पति बेहद गुस्सैल स्वभाव के इंसान हैं। मेरे 4 छोटे -छोटे बच्चे हैं जिनकी परवरिश मैं चाय पकौड़ा बेच के कर रही हूं और हमारा घर भी अपना नहीं हैं। अस्थाई ठिकाना और बच्चों का भविष्य मुझे सबसे अधिक परेशान करता है।

वहीं रुकसार जो मॉल के सामने रेंट पर ठेला लेकर चाय बेचती हैं। वह बताती हैं, “मेरे पति बेहद गुस्सैल स्वभाव के इंसान हैं। मेरे 4 छोटे -छोटे बच्चे हैं जिनकी परवरिश मैं चाय पकौड़ा बेच के कर रही हूं और हमारा घर भी अपना नहीं हैं। अस्थाई ठिकाना और बच्चों का भविष्य मुझे सबसे अधिक परेशान करता है।” उनसे पूछने पर कि वे अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती हैं तो वे कहती हैं, “ये संभव नहीं है हमारी आमदनी उतनी नहीं है। घर की जरूरतें इतनी है कि इसपर सोच पाना आसान नहीं है।”भारत की अर्थव्यवस्था में अनौपचारिक क्षेत्र की महिलाएं सबसे अधिक मेहनत करती हैं, लेकिन मानसिक स्वास्थ्य के मामले में सबसे अधिक नज़रअंदाज़ की जाती हैं। घर का काम, सामाजिक भेदभाव और लैंगिक असमानता के बोझ के बीच वे चुपचाप टूटती रहती हैं, क्योंकि समाज ने उन्हें अपनी पीड़ा को आवाज़ देने का अधिकार ही नहीं दिया है।

सरकार, एनजीओ या गैर सरकारी संस्थाओं को मिलकर समाज में लोगों को यह समझाने के लिए जागरूकता अभियान शुरू करने चाहिए कि मानसिक स्वास्थ्य समस्या कोई ‘शर्म’ की बात नहीं हैं, बल्कि इसके बारे में खुलकर बात करना एक बुनियादी स्वास्थ्य अधिकार है। अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को सुरक्षित कार्यस्थल, तय काम के घंटे, सामाजिक सुरक्षा, मातृत्व लाभ और सस्ती मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना जरूरी है। महिलाओं का अच्छा मानसिक स्वास्थ्य उनकी व्यक्तिगत खुशहाली नहीं है, बल्कि पूरे समाज की प्रगति का आधार है। अगर एक महिला मानसिक रूप से स्वस्थ होगी। तब ही समाज एक परिवार और समाज की नीव मज़बूत हो सकती है। जरूरी है कि मानसिक स्वास्थ्य को स्वास्थ्य नीति का केंद्रीय हिस्सा बनाया जाए, कार्यस्थलों को सुरक्षित और संवेदनशील बनाया जाए। जब अनौपचारिक क्षेत्र की महिलाएं मानसिक रूप से स्वस्थ होंगी, तभी भारत की सामाजिक और आर्थिक नींव असल में मजबूत हो पाएगी।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content