साल 2025 में 25 वर्षीय टेनिस खिलाड़ी राधिका यादव की हत्या की खबर ने पूरे देश को झकझोर दिया। शुरुआती जांच में सामने आया कि उनकी हत्या किसी बाहरी व्यक्ति ने नहीं, बल्कि कथित तौर पर उनके पिता ने की। मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि पिता अपनी बेटी की कमाई जीने की ताने सुनकर परेशान थे। चौंकाने वाली बात यह है कि सोशल मीडिया पर कई लोग इस घटना को जायज़ ठहराने लगे। एक प्रतिभाशाली, आत्मनिर्भर और देश का नाम रोशन करने वाली खिलाड़ी की जान पितृसत्ता और पुरानी सोच ने छीन ली। यह घटना अकेली नहीं है। इंडियन एक्स्प्रेस की रिपोर्ट बताती है कि 18–49 वर्ष की लगभग 30 फीसद महिलाएं किसी न किसी रूप में शारीरिक या यौन हिंसा का सामना करती हैं। हिंसा घर के भीतर और परिचित लोगों से ही अधिक होती है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2022 रिपोर्ट बताती है कि 31.7 फीसद आत्महत्याओं से होती मौतों का कारण पारिवारिक समस्याएं और 4.8 फीसद का कारण शादी से जुड़ी समस्याएं होती हैं, जिनकी जड़ में अक्सर घरेलू हिंसा होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) के अनुसार हर तीन में से एक महिला अपने जीवन में हिंसा का सामना करती है। इस हिंसा का असर सिर्फ एक महिला तक सीमित नहीं रहता। यह उसकी शिक्षा, स्वास्थ्य, काम, आर्थिक स्वतंत्रता और सुरक्षा को प्रभावित करता है। महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक भागीदारी घटती है, जिससे देश की प्रगति भी धीमी पड़ जाती है। इसलिए, लैंगिक हिंसा सिर्फ व्यक्तिगत समस्या नहीं, बल्कि एक गंभीर राष्ट्रीय और आर्थिक समस्या है।
आईसीआरडब्ल्यू-यूएनएफपीए के संयुक्त अध्ययनों साल 2009-2018 और केयर इंटरनैशनल की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत को हर साल जीडीपी के 1.5 फीसद से 2 फीसद तक का नुकसान होता है। यह लगभग 4 से 6.5 लाख करोड़ रुपये का नुकसान है।
क्या लैंगिक हिंसा सिर्फ व्यक्तिगत है
लैंगिक हिंसा का असर आर्थिक रूप से बहुत गहरा है। यह महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान से जुड़े मुद्दों से कहीं आगे बढ़कर राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाता है। संयुक्त राष्ट्र वुमन की साल 2023 रिपोर्ट अनुसार, दुनिया भर में महिलाओं पर होने वाली हिंसा के कारण हर साल लगभग 1.5 ट्रिलियन अमरीकी डॉलर, यानी वैश्विक जीडीपी का लगभग 2 फीसद नुकसान होता है। कुछ देशों में यह नुकसान 3.7 फीसद तक भी होता है। यह आंकड़ा बताता है कि लैंगिक हिंसा विकास की गति को कितनी मजबूती से रोकती है। भारत भी इस आर्थिक नुकसान से अछूता नहीं है। आईसीआरडब्ल्यू-यूएनएफपीए के संयुक्त अध्ययनों साल 2009-2018 और केयर इंटरनैशनल की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत को हर साल जीडीपी के 1.5 फीसद से 2 फीसद तक का नुकसान होता है। यह लगभग 4 से 6.5 लाख करोड़ रुपये का नुकसान है।
यह नुकसान सिर्फ उपचार, कानूनी सहायता या पुनर्वास पर खर्च होने वाली राशि तक सीमित नहीं है। यह उन अवसरों पर भी लागू होती है, जो हिंसा के कारण महिलाओं से छिन जाते हैं। इनमें उनकी शिक्षा में रुकावट, करियर चुनने की स्वतंत्रता, कार्यस्थलों पर लैंगिक भेदभाव, वैतनिक भेदभाव, नौकरी छोड़ने का दबाव और घर के अवैतनिक काम का बोझ शामिल है। यह पूरा चक्र महिलाओं की आर्थिक भागीदारी को कमजोर कर देता है और सीधे-सीधे देश की विकास यात्रा को धीमा कर देता है। इसलिए, लैंगिक हिंसा को केवल एक निजी समस्या मानकर नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। यह एक गंभीर राष्ट्रीय मुद्दा है, जो हमारी सामाजिक प्रगति और आर्थिक भविष्य दोनों को प्रभावित करता है।
जब मैंने यह बात अपने अब्बू को बताई, तो उन्होंने कहा कि बस ऑफिस से छुट्टी मांग लो, क्या दिक्कत है। उनको लगा कि मैं बहाने बना रही हूं। लेकिन मेरे लिए यह प्रोफ़ेशनलिज़्म और नौकरी की सुरक्षा का मामला था।
लैंगिक हिंसा का आर्थिक असर
असल में लैंगिक हिंसा केवल व्यक्तिगत जीवन तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह धीरे-धीरे जीवन की हर परत में रिसकर आर्थिक अवसरों को भी खत्म करती जाती है। इसका असर सबसे पहले शिक्षा पर दिखता है और महिलाएं पढ़ाई से दूर हो जाती हैं। एक बार पढ़ाई छूट जाए तो आगे की राह सीमित हो जाती है। अक्सर कम कौशल, कमतर नौकरी, कम पैसे और परिवार के सदस्यों पर आर्थिक निर्भरता विभिन्न तरह के लैंगिक हिंसा के लिए उन्हें कारक बनाता है। विश्व बैंक के साल 2024 की रिपोर्ट अनुसार लगभग 13 फीसद महिलाएं शादी के बाद परिवार के दबाव में नौकरी छोड़ देती हैं। इसी विषय पर वैष्णवी जो फिलहाल देश में रह रही हैं, पर कुछ समय पहले वह जर्मनी में बतौर सॉफ्टवेयर इंजीनियर अच्छे पैकेज के साथ 4 साल से नौकरी कर रही थी बताती हैं, “हालांकि मैंने इंजीनियरिंग भी विदेश से ही कि थी पर शादी के बाद मेरी दुनिया ही बदल गई। आदर्शवादी महिला और संस्कारों के नाम पर सामाजिक दवाब डाला गया और आखिरकार मजबूरन मैंने नौकरी छोड़ दी। अब मैं दिल्ली में अपनी योग्यता से कम की नौकरी कर रही है। हालांकि मुझे विदेश में पढ़ाई और नौकरी करने के लिए घरवालों से बहुत लड़ाई करनी पड़ी थी।” पितृसत्तात्मक नियमों ने आखिरकार वैष्णवी के संघर्षों को शून्य कर दिया।
कुछ ऐसा ही अनुभव मिस्बाह का भी है जो अभी बतौर पब्लिक रिलेशन प्रोफेशनल काम कर रही है। वह बताती हैं, “मैं एक शिया मुस्लिम परिवार से हूं और हर साल हम अपने पैतृक जगह में दस दिनों का मुहर्रम मनाते हैं। यह परंपरा हमारे दादा-परदादाओं के समय से, लगभग पचास सालों से चल रही है। इस साल, जब मैंने नई नौकरी शुरू की थी, तो मैं लंबी छुट्टी नहीं ले सकती थी और सिर्फ चार-पांच दिन ही जा पाती। जब मैंने यह बात अपने अब्बू को बताई, तो उन्होंने कहा कि बस ऑफिस से छुट्टी मांग लो, क्या दिक्कत है। उनको लगा कि मैं बहाने बना रही हूं। लेकिन मेरे लिए यह प्रोफ़ेशनलिज़्म और नौकरी की सुरक्षा का मामला था। उसी समय मेरे भाई ने कहा कि वह सिर्फ आख़िरी चार-पांच दिन आ पाएगा, और सबने उसे सहजता से स्वीकार कर लिया। एक ही स्थिति में मेरे साथ व्यवहार अलग था।”
हालांकि मैंने इंजीनियरिंग भी विदेश से ही कि थी पर शादी के बाद मेरी दुनिया ही बदल गई। आदर्शवादी महिला और संस्कारों के नाम पर सामाजिक दवाब डाला गया और आखिरकार मजबूरन मैंने नौकरी छोड़ दी। अब मैं दिल्ली में अपनी योग्यता से कम की नौकरी कर रही है।
कई बार यह भी देखा जाता है कि महिलाओं को उनकी कमाई पर भी हक नहीं होता है। एनएफएचएस-5 के अनुसार भारत में 16 फीसद विवाहित महिलाएं अपने कमाए पैसे पर खुद का नियंत्रण नहीं रख पातीं नतीजतन उन्हें अपने पैसों भी परिवार वालों से जरूरत के हिसाब से मांगने पड़ते है। आज भी कई हजारों ऐसी महिलाएं हैं जिनका बैंकों में खाता तक नहीं है। ये सारी घटनाएं आर्थिक हिंसा को बढ़ाने में कारक का काम करती है, जो अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करती है। साल 2015 में मैकिंज़ी ग्लोबल इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट बताती है कि अगर भारत में लैंगिक समानता पूरी तरह से लागू हो जाए तो 2025 तक जीडीपी में अतिरिक्त 46 लाख करोड़ रुपये जुड़ सकते हैं। लैंगिक हिंसा रोकना दुनिया का न सिर्फ मानवाधिकार से जुड़ है बल्कि यह देश के लिए आर्थिक सुधार भी हो सकता है।
हिंसा का सामना करते व्यक्ति की उत्पादकता और स्वास्थ्य पर असर
बचपन से ही लड़कियों के विकल्प परिवार और समाज द्वारा सीमित कर दिए जाते हैं; खाने-पीने से लेकर करियर तक। इस वजह से कई बार वे ऐसे काम चुनने को मजबूर होती हैं, जो उनकी रुचियों या क्षमताओं से मेल नहीं खाते। लैंगिक हिंसा का प्रभाव उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर भी गहराई से पड़ता है। जो महिलाएं या किशोरियां लगातार तनाव, डर या भेदभाव झेलती हैं, उनमें चिंता, अवसाद और अन्य स्वास्थ्य समस्याएँ अधिक दिखाई देती हैं। कार्यस्थलों पर सेक्सिस्ट मज़ाक, वेतन असमानता या असुरक्षित माहौल भी उनकी उत्पादकता और स्वास्थ्य दोनों को नुकसान पहुंचाता है। इस विषय पर दिल्ली की पत्रकार शिवांगी सक्सेना बताती हैं, “कई ऐसे मौके आए हैं, जब मुझे लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ा है, जिसने मुझे समय-समय पर कमतर महसूस करवाया है। एक ऐसा ही किस्सा मेरी पहली नौकरी का है, जहां पर अक्सर मुझे ऐसा महसूस करवाया गया जैसे मुझे कुछ पता ही नहीं है।”
वो आगे बताती हैं, “मुझे चीजें समझ नहीं आती हैं या फिर मेरे किए गए कामों में कुछ न कुछ गलती जरूर है। अक्सर मुझे अपने काम के लिए किसी पुरुष को समझाने में ज्यादा वक्त लगता था। वो ज्यादातर असमहति दर्ज करते थे। वहीं इसके उलट वे किसी पुरुष की बातों पर तुरंत मान जाते थे। ऐसे मौकों पर किसी ने मुझसे मौखिक तौर पर हिंसा नहीं की या बदतमीजी भले ही न की हो, लेकिन इन घटनाओं ने मेरे आत्मविश्वास को जरूर कम कर दिया था।” उनका अनुभव यह दिखाता है कि लैंगिक हिंसा सिर्फ निजी जीवन को नहीं बल्कि महिलाओं की कार्यक्षमता और पेशेवर पहचान को भी प्रभावित करती है। वन इंडिया की साल 2024 की 24,000 महिलाओं पर की गई स्टडी बताती है कि कार्यस्थल पर पूर्वाग्रह या असंवेदनशीलता का सामना करने वाली 21 फीसद महिलाएं एक साल के भीतर नौकरी छोड़ देती हैं, जबकि आम तौर पर यह सिर्फ 6 फीसद होता है।
कई ऐसे मौके आए हैं, जब मुझे लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ा है, जिसने मुझे समय-समय पर कमतर महसूस करवाया है। एक ऐसा ही किस्सा मेरी पहली नौकरी का है, जहां पर अक्सर मुझे ऐसा महसूस करवाया गया जैसे मुझे कुछ पता ही नहीं है। मुझे चीजें समझ नहीं आती हैं या फिर मेरे किए गए कामों में कुछ न कुछ गलती जरूर है।
सिस्टम और संरचना की भूमिका
महिलाओं के खिलाफ हिंसा और भेदभाव की जड़ें पितृसत्तात्मक सोच में गहरी बसी हैं। यह सोच केवल घर में नहीं, बल्कि कार्यस्थलों, संस्थानों और नीतियों में भी दिखाई देती है, जहां निर्णय और नियम अक्सर पुरुष केंद्रित होते हैं। इसका सीधा असर महिलाओं की शिक्षा, रोजगार, आय और करियर ग्रोथ पर पड़ता है। ऑक्सफैम की 2024 रिपोर्ट दिखाती है कि भारत में पुरुष कुल श्रम आय का 82 फीसद कमाते हैं, जबकि महिलाओं का हिस्सा केवल 18 फीसद है। वहीं अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, 60–70 फीसद महिलाएं बिना किसी भुगतान के काम करती हैं, यानी उनका श्रम अदृश्य बना रहता है। दिल्ली की वकील अपर्णा कहती हैं, “पेशेवर स्पेस में भी महिलाओं की आवाज़ उतनी गंभीरता से नहीं सुनी जाती। क्लाइंट पुरुष वकील पर ज़्यादा भरोसा करते हैं और कोर्ट में भी पुरुष सहकर्मी की आवाज़ को तुरंत महत्व मिलता है। अपने ही काम को साबित करने के लिए हमें दोगुनी मेहनत करनी पड़ती है।” अपर्णा यह सब उस जगह सामना कर रही हैं जहां पॉश ऐक्ट कानूनों और समानता पर चर्चा होती है।
नीतियों और कानूनों में आर्थिक आयाम की कमी
भारत में घरेलू हिंसा और लैंगिक समानता से जुड़े कई कानून मौजूद हैं, लेकिन आर्थिक हिंसा जैसे आय, संपत्ति, बैंकिंग, रोज़गार और संसाधनों पर नियंत्रण को आज भी नीतियों में पर्याप्त मान्यता नहीं मिलती। घरेलू हिंसा अधिनियम में आर्थिक हिंसा की परिभाषा तो है, लेकिन इसे रोकने के लिए न पर्याप्त बजट है और न ही प्रशिक्षित संसाधन। वेतन असमानता, सीमित मातृत्व लाभ, क्रेच सुविधाओं की कमी और घरेलू काम को अर्थव्यवस्था में शामिल न करने जैसी संरचनात्मक समस्याएं आर्थिक हिंसा को बढ़ाती हैं, पर उनके समाधान के लिए ठोस तंत्र नहीं बन पाया है। आर्थिक स्वतंत्रता ही वह आधार है जो महिलाओं को हिंसा, निर्भरता और भेदभाव के चक्र से बाहर निकाल सकती है। जब महिलाओं के पास अपनी आमदनी पर अधिकार, संपत्ति में बराबरी और सुरक्षित और समान रोजगार हों, तभी वे शिक्षा, स्वास्थ्य और अपने जीवन के फैसले खुद ले सकती हैं। इसलिए, लैंगिक समानता और न्याय का रास्ता आर्थिक न्याय से होकर ही गुजरता है जहां महिलाओं को प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि वास्तविक सुरक्षा और स्थिरता मिले।

