मनुष्य की संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने के कई कला-माध्यम हैं, लेकिन फ़िल्में सबसे लोकप्रिय माध्यम मानी जाती हैं। द ग्रेट शमसुद्दीन फ़ैमिली में सच को कहने का फ़िल्मकार का अंदाज़ अलग और प्रभावी है। फ़िल्म दिल्ली के एक अपेक्षाकृत आधुनिक और कम पारंपरिक मुस्लिम परिवार की कहानी कहती है। फ़िल्म के दृश्य हास्य, गुस्से, जल्दबाज़ी और बेफ़िक्री से भरे हैं। यहां थोड़ी परंपरा है, थोड़ी आधुनिकता है। कहीं धार्मिकता है तो कहीं उससे दूरी। कुछ पात्र अक्खड़ हैं, तो कुछ बेहद संवेदनशील। यही भारत का वह यथार्थ है, जो अगर सांप्रदायिक राजनीति के नफ़रती एजेंडे से मुक्त हो, तो एक बहु-सांस्कृतिक समाज की सच्ची तस्वीर बन सकता है।
फ़िल्म में इरावती कर्वे की युगांत, अमिताभ घोष की सी ऑफ पॉपीज़ और ब्रजकिशन चांदीवाला जैसे लेखकों की किताबों का दिखना भी एक सुखद अनुभव है। यह संकेत देता है कि फ़िल्म केवल रिश्तों की नहीं, विचारों की भी कहानी है। अगर फ़िल्म को सतह से थोड़ा भीतर उतरकर देखा जाए, तो यह पूरी तरह एक राजनीतिक फ़िल्म नज़र आती है। समय की आहट इसमें लगातार महसूस होती है। यह भी महत्वपूर्ण है कि यह एक महिला निर्देशक की फ़िल्म है।
कहानी दिल्ली के एक मुस्लिम परिवार की महिलाओं के एक दिन के जीवन के इर्द-गिर्द बुनी गई है। पूरी फ़िल्म एक ही फ्लैट में फ़िल्माई गई है, जो बानी का घर है। फ़िल्म नए समय के प्रेम, विवाह, तलाक, अफेयर और ब्रेकअप जैसे विषयों को सहजता से छूती है। कहीं यह करुण है, तो कहीं बेहद हास्यपूर्ण।
कहानी दिल्ली के एक मुस्लिम परिवार की महिलाओं के एक दिन के जीवन के इर्द-गिर्द बुनी गई है। पूरी फ़िल्म एक ही फ्लैट में फ़िल्माई गई है, जो बानी का घर है। फ़िल्म नए समय के प्रेम, विवाह, तलाक, अफेयर और ब्रेकअप जैसे विषयों को सहजता से छूती है। कहीं यह करुण है, तो कहीं बेहद हास्यपूर्ण। फ़िल्म बिना भारीपन के, हल्के और मज़ाहिया अंदाज़ में अपनी बात कहती है। यह कहानी भले ही एक दिन में घटती है, लेकिन उसमें कई पीढ़ियों का समय समाया हुआ है। लगभग सभी पात्र अपने-अपने स्वभाव में गढ़े हुए हैं, जो फ़िल्म को दिलचस्प बनाते हैं। शायद इसी हल्के व्यंग्यात्मक अंदाज़ में अनुशा रिज़वी ने इसका नाम द ग्रेट शमसुद्दीन फ़ैमिली रखा है। देश के मौजूदा हालात फ़िल्म में बहुत सूक्ष्म ढंग से मौजूद हैं। वे बार-बार उभरते हैं, लेकिन हावी नहीं होते। इसके बावजूद फ़िल्म लगातार गुदगुदाती रहती है। यही इसका सबसे बड़ा गुण है। संवाद बेहद सटीक हैं। वे बिना सीधे कहे बहुत कुछ कह जाते हैं।
क्या कहती है कहानी
फ़िल्म कई तकलीफ़ों को बेहद नज़ाकत से छूती है। कई बार दृश्य ही सब कुछ कह देते हैं। जैसे बानी के फ़ोन पर बार-बार आने वाला कॉल, जिसे वह उठाती नहीं है। वह कॉल उसके विवाहित प्रेमी का है। जब बानी की बड़ी बहन उसे याद दिलाती है कि उसे पहले से पता था कि आदित्य शादीशुदा है, तो बानी कहती है कि आज पहली बार उसकी पत्नी से सामना हुआ और वह अपराधबोध से भर गई। यह दृश्य फ़िल्म की संवेदनशीलता को गहराई से दिखाता है।
फ़िल्म के संवाद भले ही ऊंचे स्वर में न हों, लेकिन वे बेहद प्रभावशाली हैं। कई संवाद मुहावरों में कहे गए हैं, जो बिना शोर किए गहरी बात कह जाते हैं। एक सेकुलर देश में कहा गया संवाद भाई, इस देश में कम से कम रिश्वत तो सेकुलर होनी चाहिए अपने आप में एक सवाल बनकर सामने आता है।
फ़िल्म में उमरा जाने से जुड़ा प्रसंग दर्शकों के चेहरे पर मुस्कान ले आता है। बानी की अम्मी फोन पर कहती हैं कि उन्हें उमरा जाना है। बानी तुरंत जवाब देती है कि आप तो कभी नमाज़ नहीं पढ़तीं।
यह संवाद दर्शक को सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर यह देश किसका है और हम किस दिशा में जा रहे हैं। इन संवादों और फ़िल्म में घटते दृश्यों के ज़रिए फ़िल्म परिवार, समुदाय और राष्ट्र की मौजूदा हकीकत को धीरे-धीरे सामने रखती है। यह किसी एक घटना की कहानी नहीं कहती, बल्कि समय की सच्चाई को बहुत सहज ढंग से दर्ज करती है। फ़िल्म में फरीदा जलाल, शीबा चड्ढा और डॉली अहलुवालिया जैसे कलाकारों का अभिनय बेहद स्वाभाविक है। उनके किरदार ऐसे लगते हैं, जैसे वे हमारे आस-पास या हमारे परिवारों से ही उठकर आए हों। हर किरदार अपनी जगह पूरी तरह सधा हुआ है। छोटे-छोटे पात्रों से बुनी गई यह फ़िल्म अपने समय की एक ज़रूरी दस्तावेज़ बनती है।
फिल्म में साहित्य की झलक
फ़िल्म में साहित्य की झलक भी दिखाई देती है। इरावती कर्वे की ‘युगांत’, अमिताभ घोष की ‘सी ऑफ़ पॉपीज़’ और ब्रजकिशन चांदीवाला जैसे लेखकों की किताबें फ़िल्म के दृश्य संसार को और गहराई देती हैं। फ़िल्म को लेकर कुछ सवाल उठना स्वाभाविक है। जैसे, इसमें दिखाया गया मुस्लिम परिवार अपेक्षाकृत एलीट वर्ग से आता है, जबकि ऐसे परिवारों की संख्या सीमित है। लेकिन, जब समाज में सांप्रदायिकता हावी हो जाती है या राज्य उसे बढ़ावा देता है, तो ख़तरा सभी के लिए होता है। तकलीफ़ हर किसी को झेलनी पड़ती है। सड़क पर लिंचिंग करती भीड़ यह नहीं देखती कि सामने वाला किस वर्ग या समुदाय से है। उन्माद की स्थिति में उसकी आँखों में सिर्फ़ नफ़रत होती है, और उसी नफ़रत में सब कुछ जलकर ख़ाक हो जाता है। सांप्रदायिकता किसी भी देश के लिए एक बड़ी विपत्ति है। हालांकि यह भी सच है कि इस विपत्ति का सबसे ज़्यादा असर हाशिए पर मौजूद समुदायों पर पड़ता है। मध्यवर्ग और उच्च वर्ग के पास संसाधन और सामाजिक ताक़त होती है, जिससे वे किसी हद तक खुद को बचा पाते हैं। लेकिन, हाशिए के लोगों के लिए यह संकट कहीं ज़्यादा गहरा और घातक साबित होता है।
अगर फ़िल्म को सतह से थोड़ा भीतर उतरकर देखा जाए, तो यह पूरी तरह एक राजनीतिक फ़िल्म नज़र आती है। समय की आहट इसमें लगातार महसूस होती है। यह भी महत्वपूर्ण है कि यह एक महिला निर्देशक की फ़िल्म है।
फिल्म में महिलाओं का चित्रण
फ़िल्म ‘द ग्रेट शमशुद्दीन फैमिली’ भले ही एक पुरुष के नाम पर आधारित लगे, लेकिन पूरी फ़िल्म को स्त्री किरदार ही आगे बढ़ाते हैं। फ़िल्म की सभी महिलाएं आत्मविश्वास से भरी, बेफ़िक्र और मज़बूत नज़र आती हैं। कहानी दो पीढ़ियों की स्त्रियों की दुनिया को केंद्र में रखकर बुनी गई है। दोनों पीढ़ियों के बीच टकराव है, लेकिन साथ ही समझ और सामंजस्य भी बार-बार उभरकर सामने आता है। परिवार के बेटे के अंतरजातीय विवाह की बात सामने आते ही बुज़ुर्ग महिलाएं पहले नाराज़ होती हैं। उन्हें इस शादी के अंजाम की चिंता सताने लगती है।
लेकिन, जैसे ही कहानी में लड़के की माँ का प्रवेश होता है, पूरा माहौल बदल जाता है। सभी महिलाएं युवा पीढ़ी के साथ खड़ी दिखाई देती हैं और समाधान खोजने लगती हैं। फ़िल्म के अंत में बन्ना गीत गाते हुए महिलाएं जैसे समय के सभी डर को पीछे छोड़ देती हैं। यह दृश्य फ़िल्म का सबसे सुंदर और सुकून देने वाला पल है। गीत के बोल प्रेम और अपनापन को प्राथमिकता देते हैं। इसमें धर्म या समुदाय की कोई दीवार नहीं दिखती। यह हमारी साझी संस्कृति का प्रतीक है, जिसे किसी धार्मिक खाँचे में नहीं बांधा जा सकता।
फ़िल्म में उमरा जाने से जुड़ा प्रसंग दर्शकों के चेहरे पर मुस्कान ले आता है। बानी की अम्मी फोन पर कहती हैं कि उन्हें उमरा जाना है। बानी तुरंत जवाब देती है कि आप तो कभी नमाज़ नहीं पढ़तीं। इस पर अम्मी का डांटना और तर्क देना हमें हर उस भारतीय माँ की याद दिलाता है, जो आधुनिक भी है और थोड़ी पारंपरिक भी। बुज़ुर्ग महिलाओं के बीच नमाज़ को लेकर होने वाली नोकझोंक और फरीदा जलाल के बेबाक संवाद फ़िल्म की जान हैं।
ये संवाद हमारे घरों की कहानी लगते हैं। फ़िल्म में तलाक़ को जिस सहजता से दिखाया गया है, वह नई पीढ़ी की स्त्रियों की सोच को दिखाता है। यहां तलाक़ को जीवन की एक घटना की तरह लिया गया है, न कि किसी त्रासदी की तरह। वहीं पिछली पीढ़ी में तलाक़ का ज़िक्र आते ही दर्द और टूटन की यादें उभर आती हैं। एक बच्चा माँ से अलग हो जाता है और उसके मन में कड़वाहट भर जाती है। यह सामाजिक व्यवस्था की विडंबना को दिखाता है, जहां माँ को बेटा छोड़ना पड़ता है और बेटी को साथ रखना होता है। पैतृक संपत्ति और संरक्षकता में मौजूद लैंगिक भेदभाव यहां साफ़ दिखाई देता है।
नई पीढ़ी की महिलाएं इन बंधनों से आज़ाद दिखती हैं। वे अपने बच्चों को अपने पास रखकर पाल रही हैं, कानूनी लड़ाई लड़ रही हैं और आत्मनिर्भर हैं। यही उनकी ताक़त है। आज जब बॉलीवुड में बड़े बजट की फ़िल्मों के ज़रिए नफ़रत को बढ़ावा देने की कोशिशें हो रही हैं, ऐसे समय में यह फ़िल्म एक उम्मीद की तरह सामने आती है। यह बिना शोर किए, बिना तंज कसे, बड़े सवाल उठाती है। फ़िल्म को उसकी सादगी, संवेदनशीलता और मानवीय दृष्टि के लिए याद रखा जाएगा। फ़िल्म देखते हुए आधा गाँव, काला जल और गर्म हवा जैसी रचनाएं याद आती हैं। अंत में जब बानी और अमिताभ ‘हम बेकसों को अपना प्यारा वतन मुबारक…’ गाते हुए नज़र आते हैं, तो उनकी आँखों में दर्द के साथ उम्मीद भी झिलमिलाती है। यह उम्मीद सौहार्द, साथ और इंसानियत की है। शायद इसी उम्मीद के सहारे दुनिया आज भी चल रही है कि एक दिन फिर चमन में बहारें लौट आएगी।

