महीने के वो ‘पांच दिन’ (कभी कम तो कभी ज्यादा) हर स्त्री के लिए तकलीफ लेकर आते हैं। मगर इसके साथ ही प्रकृति उसमें नारीत्व का बोध कराती है और यह जताती है कि उसके स्त्री होने से ही यह दुनिया है। दरअसल, मेन्सट्रुअल यानी मासिक चक्र संपूर्ण नारी होने का अहसास है। वह एक मां है, एक सहयोगी है, एक दोस्त है और एक पत्नी भी। सब कुछ है पुरुषों के लिए। मगर मेन्सट्रुअल पर घर-परिवार में खामोशी इतनी जानलेवा है कि खुद औरतें भी इस पर चर्चा करने से कतरातीं हैं। जबकि उन पांच दिनों को हमें हैप्पी डेज में बदल कर आम दिनों की तरह जीना चाहिए।
बीते दिनों ओपेन मैगजीन में मुंबई के पास अंबरनाथ गांव की एक 14 साल की बच्ची की सुसाइड की खबर पढ़ी। लोगों का कहना था कि जरा सी उम्र में पढ़ाई का बोझ वो सह नहीं पाई और उसने खुदकुशी कर ली। मगर उसकी सहेलियों ने बताया कि वह डिप्रेशन का शिकार थी। पीरियड के समय होने वाले दर्द की वजह से वह हर महीने छुट्टी लेती थी, लेकिन उसके मां-बाप को इसका अंदाजा भी नहीं था। सुसाइड के बाद उसकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला कि उस समय भी उसके पीरियड चल रहे थे।
हम बच्चियों की हर एक छोटी-बड़ी चीज का ध्यान रखते हैं। अगर उन्हें हल्की-सी खरोंच भी आ जाए, तो तुरंत उन्हें डॉक्टर के पास ले जाते है। ऐसे में बच्चियों की बढ़ती उम्र के साथ शारीरिक व मानसिक परिवर्तनों को न समझ पाना या समझते हुए भी उन्हें न समझा पाना, हमारी बड़ी असफलता है। ग्रामीण इलाकों में मेन्सट्रुअल यानी मासिक धर्म शुरू होते ही लड़कियों के स्कूल छोड़ देने की एक वजह यह भी है। कम से कम स्कूलों में शौचालय के अभाव के बाद यही सबसे बड़ा कारण है।
किशोरावस्था में, जब प्रजनन क्षमता विकसित होती है तो योनि मार्ग से प्रतिमाह खास दिनों में रक्त का स्राव होता है। इसे मासिक धर्म कहा जाता है। ज्ञात रहे इस धरती की सभी मादाएं मासिक धर्म की इस प्रक्रिया से गुजरती है। हमारे समप्रजातीय बंदर, औरंगयुटैन और चिम्पांजी मादाओं को भी स्त्रियों की तरह मेन्सट्रुअल से गुजरना होता है, पर दुर्भाग्यवश इस जैविक स्थिति को एक मिथ बना दिया गया। जानकारी के अभाव में इस प्रक्रिया को समाज में सदियों से इतना छुपाया गया कि इसके प्रति बहुत-सी भ्रांतियों व वर्जनाओं का निर्माण होता चला गया, जिनका समाज में कड़ाई से पालन होने लगा।
बोझ बना लिया मेन्सट्रुअल मिथ को
सदियों से पर्दे में छिपाए गए मासिक धर्म को जानकारी के अभाव में महिलाओं ने इसे प्रजनन के बाद प्रकृति से मिला दूसरा अतिरिक्त बोझ ही समझा। इस प्रक्रिया के दौरान स्त्रियों को पेट में असहनीय दर्द व कमजोरी के साथ अन्य कई प्रकार के असहज शारीरिक-प्रभाव का अनुभव करना पड़ता है। चूंकि यह प्रक्रिया केवल मादाओं में ही होती है इसलिए इसे प्रकृति द्वारा स्त्रियों को दिया जाने वाला दंड समझा गया। इस बारे में घर की बड़ी-बूढ़ी महिलाओं के अलावा किसी को भी जानकारी नहीं होती थी। यहां तक कि घर के पुरुषों को भी इन सब बातों से अनजान रखा जाता था।
पीरियड्स के लिए भी कोड-वर्ड?
आज के आधुनिक दौर में लड़कियां इस अहसास के साथ जीना सीख रही हैं कि वे लड़कों से किसी भी मामले में पीछे नहीं। अब वे बेबाकी से अपने विचारों को न केवल सबके सामने रख रही हैं बल्कि उनका प्रसार-प्रचार भी बढ़-चढ़ के कर रही है। ऐसे में यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज भी दुनिया भर की औरतें मासिक धर्म से जुड़ी समस्याओं के बारे में किसी से चर्चा नहीं करतीं। बल्कि इसके लिए कोड वर्ड का उपयोग करती हैं जैसे, उत्तर-भारत में ‘कपड़े आना’, ‘महीना आना’, ‘सिग्नल डाउन’, ‘रेड सिग्नल’, ‘नेचर पनिशमेंट’, ‘मेहमान आना’ और आजकल की छोटी बच्चियों में ‘केक कट गया’ जैसी शब्दावली उपयोग में लाई जा रही है। कितनी शर्मनाक बात है यह।
पिछले दिनों दिल्ली के एक वूमंस कालेज में छात्राओं ने खुद ही सेनेटरी पैड बना कर मेन्सट्रुअल से जुड़े मिथ को तोड़ने की पहल की। महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक बड़ा कदम उठा रहीं इन युवतियों ने इस दौरान साथ पढ़ने वाली जूनियर छात्राओं से मेन्सट्रुअल से जुड़े सवाल किए, तो कई को यह मालूम ही नहीं था कि यह होता क्यों हैं। ज्यादातर ने पीरियड का जिक्र कोडवर्ड से किया। जब देश की राजधानी की लड़कियों का यह माइंडसेट है, तो गांवों की लड़कियों की मनोदशा का अंदाजा लगाया जा सकता है। आज भी शिक्षित लड़कियां सेनेटरी नैपकिन पिता या भाई से मंगवाने से हिचकती हैं। पीरियड्स के बारे में बताना तो बहुत दूर की बात है।
हमें तोड़ना होगा इन वर्जनाओं को
भारत में आज भी लड़कियां मेन्सट्रुअल यानी मासिक चक्र को लेकर कई भ्रांतियां मन में पाले रखती हैं। और बहुत-सी वर्जनाएं भी निभा रही हैं, जिनका आज के युग में कोई औचित्य नहीं। भारत के बड़े शहरों में ही नहीं, महानगरों की महिलाएं भी उन खास दिनों में अचार या अन्य खाद्य पदार्थों को हाथ नहीं लगातीं। पुरुष की थाली को नहीं छूतीं, खाना नहीं बनाती हैं, जल स्त्रोतों-जल भंडारण को हाथ नहीं लगाती हैं, पौधों- पत्तों और नवजात शिशुओं तक से दूर रहती हैं। इस दौरान इन नियमों का पालन भी होता है- न नहाना और न सर धोना, अलग बिस्तर या जमीन पर सोना। साथ ही इन दिनों किसी पूजा स्थल पर नहीं जाना, जैसे नियमों का पालन किया जाता है। तर्क यह कि मासिक धर्म के दौरान महिला के संपर्क में आने से यह सब दूषित हो जाएंगे। यानी एक तरह से लड़कियों को अछूत की तरह बर्ताव किया जाता है। मगर अब संकोच के इस दायरे से निकलने का वक्त आ गया है। आधुनिक सोच की युवतियों ने मासिक धर्म को लेकर पारिवारिक वर्जनाएं तोड़ी हैं। यह उनके पर्सनल हाइजीन के लिए जरूरी भी है।
न ये गंदी बात, न छुपाने की चीज
वर्तमान समय में एक लड़की के मेन्सट्रुअल शुरू होने की औसत आयु 12 वर्ष से घट कर 9 वर्ष हो गई है। इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 70 फीसद लड़कियों को पहली बार मासिक धर्म से पहले पता नहीं होता कि यह क्या है? सबसे पहले मां ही यह जता देती है कि यह गंदी चीज है। और इसे छिपाने को उचित ठहराती है। इसके इस बारे में चाह कर भी लड़की किसी से बात नहीं कर पाती। देश में 88 फीसद लड़कियां मासिक धर्म के दौरान आज भी गंदे व पुराने कपड़े के पैड व राख का उपयोग करती है। इसका कारण यह है कि महंगे सेनेटरी पैड आम महिलाओं की पहुंच से आज भी बाहर है।
गंदे पुराने कपड़ों के टुकड़ों से मासिक धर्म का प्रबंध करने के कारण भारत की 70 फीसद महिलाएं मेन्सट्रुअल हाइजीन से दूर हैं। वे प्राइवेट पार्ट में संक्रमण का शिकार हो जाती है। साल 2010 के एक सर्वे के मुताबिक देश की हर 100 महिलाओं में से 12 ही सेनेटरी नैपकिन का उपयोग करती है। देश में पीरियड्स की उम्र में होने वाली महिलाओं की संख्या 35 करोड़ से भी ज्यादा है। बरसों पहले ज्यादातर औरतें केवल कपड़ों को धो-सुखा कर उसका बार-बार इस्तेमाल कर रही थीं। कपड़े का उपयोग करने से साइड इफेक्ट होता था। वेजाइना में खुजली और लाली से लेकर उस जगह संक्रमण तक हो जाता था। कई बार इतना गंभीर कि जिसकी कल्पना भर से जी कांप उठता है।
मेन्सट्रुअल हाइजीन मुद्दा क्यों नहीं?
टाइम्स ऑफ़ इंडिया में 2009 में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) ने एक सर्वे किया। पोस्टमॉर्टम के लिए आर्इं महिलाओं की लाशों में से ऐसे शरीर अलग किए गए, जो 15 से 45 की उम्र के बीच के थे। उनके यूट्रस से टिशू निकाल कर, उनके पीरियड्स की साइकल का पता लगाया। इस तरह 100 लाशें अलग की गर्इं। ये उन महिलाओं की थीं, मौत के समय जिनके पीरियड्स चल रहे थे। पाया गया कि इनमें से आधे से ज्यादा औरतों की मौत का कारण सुसाइड था। यह महज संयोग नहीं हो सकता। पीरियड्स कई औरतों के लिए एक मेडिकल समस्या है, लेकिन इस समस्या का सुसाइड में बदलना एक समाज के तौर पर हमारी नाकामी है। अपनी औरतों को समझ पाने की, उन्हें बचा पाने की।
पिछले कुछ दशकों में सरकार ने पोलियो-ड्रॉप से लेकर कंडोम के प्रचार तक में खूब पैसे लगाए हैं। आज बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसी स्कीमें निकाली जा रही है। प्रधानमंत्री लोगों से सबसिडी छोड़ने की अपील करते है। यह सभी अच्छे काम है। लेकिन जिस तरह शौचालय बनवाने की बात हो रही है, उसी तरह देश की करोड़ों महिलाओं से कोई सेनेटरी पैड यूज करने की अपील नहीं करता। इसके दो ही कारण हो सकते हैं- या तो महिलाओं के मेन्सट्रुअल हाइजीन का मुद्दा इतना बड़ा माना नहीं जाता या फिर इससे जुड़े मिथ या फिर कहें शर्म के कारण इसे छोड़ दिया जाता है।
जब औरतों के सामने मुंह-बाए खड़ी इस शारीरिक समस्या के बारे में लोग बात करने से इतना कतराते हैं, तो मानसिक विषयों पर बात होना तो और भी असंभव है। लोगों की यही जानलेवा चुप्पी औरतों को लील रही है।
लेकिन अब बदल रही है धारणा
सेनेटरी नैपकिन के प्रचलन ने महिलाओं में आत्मविश्वास बढ़ाया है। नैपकिन बनाने वाली एक कंपनी उन पांच दिनों को ‘हैप्पी पीरियड’ बता कर अपने नए प्रोडक्ट के साथ बाजार में ही उतर आई है। आज युवतियां दुकानों से बेझिझक सेनेटरी पैड खरीदती हैं। पश्चिमी देशों में महिलाएं इस पर खुल कर बात करती हैं। इसलिए वहां पुरुष ज्यादा सजग रहते हैं और महिला मित्र या पत्नी का ख्याल रखते हैं। ब्रिटेन में महिलाएं उन पांच दिनों में कलाई पर एक बैंड लगा रही हैं, जिससे पतियों को ये पता चल जाता है कि उनकी पत्नी ‘पीएमएस’ में है। इस बैंड में तापमान दिखाने का सूचक होता है। ‘पीएमएस’ के दौरान शरीर का तापमान बदलने लगता है। इससे पता चल जाता है कि महिलाएं उन पांच दिनों के दौर से गुजर रही हैं।
भारत में अभी स्त्री-पुरुष खुलकर इस पर बात तो नहीं करते, पर बदलाव यहां भी शुरू हो चुका है। मेन्सट्रुअल हाइजीन को लेकर युवतियों में सजगता आई है। उन पांच दिनों में वे समाज और परिवार से अलग-थलग नहीं रहतीं। स्कूल-कालेज जाती हैं। जॉब के लिए निकलती हैं। किचन में खाना बनाती हैं और थाली परोस कर परिवार को खिलाती भी हैं। यह एक बड़ा बदलाव है। दकियानूसी सोच से युवा लड़कियां भी बाहर निकल रही हैं।
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