दृश्य एक : निम्मी तब सिर्फ ग्यारह साल की थी जब उसके पीरियडस शुरू हुए| बेहद घबरा गयी थी वो जब उसने पहली बार अपने कपड़े में पीरियड के खून का दाग देखा| माँ ने उसे देखते ही सूती कपड़े का एक टुकड़ा देते हुए कहा कि ‘ये कपड़ा ले लो| किसी को इसके बारे में मत कहना और तारीख याद रखना अपने महीने की|’ निम्मी के लिए ये ‘महीना’ शब्द जनवरी-फरवरी वाले महीने से अलग था| उसने चुपचाप माँ की बात मानते हुए कपड़ा लिया|पर शायद वो कपड़ा काफी नहीं था| पीरियड्स के दौरान अक्सर वो बार-बार अपने कपड़े बदलती या फिर घंटों खुद को बाथरूम में कैद रखती| उसने कभी माँ से इस बारे में कुछ नहीं कहा और न माँ ने इसपर बात करना ज़रूरी समझा|
दृश्य दो : मुक्ता बाई कमलेश्वर विहार में घरों का कचड़ा इकट्ठा कर उन्हें कचड़ा गाड़ी तक ले जाने का काम करती है| छह महीने पहले ही उसने एक बेटी को जन्म दिया है| आये दिन मुक्ता को कचड़े में से गंदे सेनेटरी पैड अपने हाथों से निकाल कर कचड़ा गाड़ी में डालना होता है| उसके पास अपने हाथ साफ करने के लिए कोई उपाय भी नहीं होता, इससे कई बार उसे अपने गंदे हाथों से अपनी बच्ची दूध पिलाना पड़ जाता था| नतीजतन कुछ दिनों में उसकी बेटी की किसी संक्रामक रोग से मौत हो गयी| डॉक्टर ने बताया कि गंदगी के कारण बच्ची के पूरे शरीर में इंफेक्शन फ़ैल गया था|
समस्या सेनेटरी पैड की
मौजूदा समाज के ये दो ऐसे दृश्य है जिससे महिलाओं के स्वास्थ्य संबंधी उनकी जागरूकता की स्थिति का अंदाज़ा लगाया जा सकता है| एक तबका ऐसा है जो पीरियड्स को लेकर खुलकर बात न करके हजारों-लाखों युवा लड़कियों को शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को खतरे में डाल रहा है| वहीं दूसरा तबका पर्यावरण और अपने जैसे दूसरे इंसानों की चिंता किये बगैर धड़ल्ले से गैर-बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक सेनेटरी पैड का इस्तेमाल कर रहा है| पर एक तर्क यह भी है कि बाज़ार में प्लास्टिक सेनेटरी पैड के इस्तेमाल के अलावा उनके पास और कोई भी विकल्प मौजूद नहीं है| गौरतलब है कि इन दोनों की समस्या एक है – सेनेटरी पैड| एक तबका इसके अभाव में है, वहीं दूसरा तबका इसके इस्तेमाल से पर्यावरण के लिए गंभीर समस्या के तौर पर उपज रहा है| साल 2013 में, डाउन अर्थ पत्रिका ने भारत में महिलाओं द्वारा हर महीने इस्तेमाल किये जाने वाले सेनेटरी पैड की संख्या जानने के लिए एक सर्वेक्षण किया| इस सर्वेक्षण में उन्होंने पाया कि भारत में 12 फीसद यानी कि 36 मिलियन महिलाएं सेनेटरी पैड का इस्तेमाल करती है|
हानिकारक प्लास्टिक सेनेटरी पैड
यों तो भारत में गंदे सेनेटरी पैड्स के कचरे का कोई आधिकारिक आंकड़ा मौजूद नहीं है, पर कई सारे अनुमान ज़रूर मौजूद है| ब्लॉग ईको लोकलिका का अनुमान है कि अगर एक महिला 33 साल (12 से 45 वर्ष की उम्र के बीच) पीरियड्स से गुजरती है तो वह हर पीरियड साइकिल के दौरान करीब 20 से 25 पैड का इस्तेमाल करती है| इस आधार पर वह अपने जीवन में करीब 8,000-10,000 पैड को फेंक देती है| भारत में उपलब्ध सेनेटरी पैड प्लास्टिक के बने होते है और इन्हें बनाने में इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री गैर-बायोडिग्रैडबल होती है| इन सेनेटरी पैड्स को जलाने पर इससे निकलने वाले हानिकारक पदार्थ वायुमंडल को प्रभावित करते है| वहीं दूसरी ओर इनमें इस्तेमाल की जाने वाली प्लास्टिक सामाग्री के चलते ये सड़-गल भी नहीं सकते है| इसका मतलब यह है कि इस्तेमाल किए गए सेनेटरी पैड का निपटारा करने के लिए कोई भी विकल्प मौजूद नहीं है|
ऐसे में यह ज़रूरी हो जाता है कि प्लास्टिक सेनेटरी पैड के वैकल्पिक विल्कप तैयार किये जाए जो कि बायोडिग्रेडेबल हो|
खतरनाक बिमारियों वाला प्लास्टिक सेनेटरी पैड का ढेर
स्वास्थ्य के लिहाज से भी ये सेनेटरी पैड्स हानिकारक है क्योंकि ये देर तक खून को संचित करने में तो सक्षम है, जिससे दाग लगने या बार-बार पैड बदलने की समस्या से छुटकारा मिल जाता है| पर इस संचित खून में कोलाई जैसे कई बैक्टीरिया जमा होते है जिससे कई तरह की संक्रामक बीमारी होने की संभावना बढ़ जाती है| वहीं दूसरी ओर इन जीवाणुओं के मरने पर ये और कभी कई सारी खतरनाक बिमारियों के रूप में तब्दील हो जाते हैं| ऐसे में यह ज़रूरी हो जाता है कि प्लास्टिक सेनेटरी पैड के वैकल्पिक विल्कप तैयार किये जाए जो कि बायोडिग्रेडेबल हो|
भारत में 12 फीसद यानी कि 36 मिलियन महिलाएं सेनेटरी पैड का इस्तेमाल करती है|
हिचक के नहीं खुलकर हो बात और काम
इसके साथ ही, यह ज़रूरी है कि इस पीरियड के मुद्दे पर खुलकर बात करने का चलन बढ़ाया जाए और महिलाओं को पीरियड के दौरान स्वछता संबंधी जानकारियों से भी अवगत कराया जाए| विकल्प चाहे कई मौजूद हों लेकिन उन्हें बिना जागरूकता के इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता है| इस तर्ज पर यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि सदियों से लेकर आज तक पीरियड की समस्या पर बातचीत, जागरूकता अभियान और स्वस्थ सेनेटरी पैड्स के विकल्प के मौजूद न होने के पीछे कहीं-न-कहीं महिलाओं की चुप्पी भी जिम्मेदार रही है|
पर अगर महिलाओं की इस चुप्पी का विश्लेषण किया जाए तो हम यह पाते हैं कि पितृसत्ता ने शुरूआती दौर से स्त्री को देह के इर्द-गिर्द समेटने की साजिश की है| इसके तहत स्त्रियाँ बचपन से ही अपनी देह को छुपाने का उपक्रम करने लगीं| स्त्री की शर्म और संकोच पर पुरुष ने अपने गर्व का शिकंजा कसा| इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश में कॉन्डोम को न केवल टैक्स फ्री रखा गया बल्कि कई जगहों पर इसके लिए वेंडिंग मशीनें भी लगाई गई हैं| इतना ही नहीं वैज्ञानिकों ने मर्दों के लिए कंडोम्स में कई तरह की वैरायटी भी उपलब्ध करवा दी| पर महिलाओं के लिए सिर्फ चूड़ियाँ और सिंदूर को टैक्स फ्री रखा गया| वाकई यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विकासपथ पर लगातार आगे बढ़ते देश के वैज्ञानिक महिलाओं के लिए सस्ते व स्वस्थ सेनेटरी पैड्स ईजात नहीं कर पाए| लेकिन हाँ बाज़ार में उपलब्ध एकमात्र विकल्प प्लास्टिक सेनेटरी पैड्स पर टैक्स ज़रूर लगा दिया गया| कुछ कंपनियों ने छोटे स्तर पर सूती के सेनेटरी पैड्स-निर्माण का काम शुरू किया है, पर अभी इनका विस्तार बेहद सीमित दायरे तक ही है|
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