एक दौर वो था अपने भारतीय समाज में जब धड़ल्ले से अजन्मी लड़कियों को कोख में ही मार दिया जाता था| क्योंकि समाज को लड़कियां नहीं लड़के ज्यादा पसंद आते थे| पितृसत्ता की इस पसंद ने लिंग-परीक्षण के कन्या भ्रूण हत्या के चलन की शुरुआत कर दी, जिसने बेहद कम समय में एक गंभीर सामाजिक समस्या का रूप ले लिया|
सालों कड़ी मेहनत के बाद धीरे-धीरे ही सही कन्या भ्रूण हत्या रोकने में चिकित्सा महकमा और सरकार ने काफी सफलता हासिल की है| समय बदला और लड़कियों के सन्दर्भ में सवाल भी बदल गये – अब समस्या यह है कि जीती जागती लड़कियों की मानसिक हत्या को रोकने का बीड़ा कौन उठाएगा? लड़की शिक्षित तो है पर वह कहां नौकरी करेगी? शहर से बाहर जाएगी या नहीं? इसबात का फैसला लेने का हक आज भी लड़की को नहीं है। लड़की को उम्र भर इस मुगालते में रखा जाता है कि वो रानी बेटी है प्यारी बेटी है लेकिन पैदा होते ही उसे एहसास दिला दिया जाता है कि तू तो पराया धन है और जब वह ससुराल जाती है तो उसे पराए घर से आई है कि उपमा से नवाजा जाता है।
अगर लड़की को समाज का हिस्सा बने रहना है तो समाज की सोच को अपनी सोच बनाना होगा और उसी पर अमल करना होगा।
हम एक ऐसे देश का हिस्सा हैं जिसमें बेटी का परिवार अपनी जिंदगीभर की कमाई बेटी की पढ़ाई के बजाय उसकी शादी में लगा देता है। देश तो आजाद है लेकिन यहाँ रहने वालों लोगों की मानसिकता आज भी गुलाम और विकृत है, खासकर महिलाओं के संबंध में। घर की बेटी अगर किसी लड़के से बात कर लेती है तो उससे घर का मान-सम्मान कलंकित होने लगता है| लेकिन इसके विपरीत अगर घर के बेटे के ऐसा करने पर शेर और हीरो जैसी संज्ञाएं देकर उसके हौसले और बुलंद कर दिए जाते हैं।
किसी अंजान इंसान से बात करने की आजादी लड़की को बचपन से नहीं दी जाती लेकिन अनजान आदमी से शादी करवाने पर पूरा जोर लगाकर समाज इसमें अपनी इज्जत और शनौ शौकत की बढ़त को आंकता है। खुद को समाज का बुद्धिजीवि ठेकेदार मानने वालों ने एक बहुत ही गज़ब का नियम बनाया है – बेटी अगर अंतरजातीय विवाह करती है तो उसे और उसके परिवार वालों को समाज से बाहर निकाल दिया जाता है लेकिन बेटा अगर अंतरजातीय विवाह करता है तो उसे समाज में रहने का हक तो है ही साथ ही उस लड़की, जिसे लड़का ब्याह कर लाया है, उसको भी समाज का हिस्सा बना दिया जाता है। अब ये प्रगतिशील समाज की ही तो निशानी है कि जहां ऐसी विकृत और दकियानूसी विचारधारा के गुलाम सब से ताकतवर ठेकेदार बन बैठे हैं।
अब क्या सिर्फ लड़कियों की आजादी का मतलब ये है कि हम उसे पढ़ा-लिखा दें? इसपर हमें विचार करने की ज़रूरत है।
अगर लड़की को समाज का हिस्सा बने रहना है तो समाज की सोच को अपनी सोच बनाना होगा और उसी पर अमल करना होगा। एक तरफ तो हमने लड़कियों को पढ़ा लिखाकर उसे सशक्त होने का झुनझुना तो पकड़ा दिया पर आज भी वो किस तरह के कपड़े पहनेगी इस बात का फैसला घर के पुरूष सदस्य ही करेंगे। सुरक्षा के नाम पर पहनाई जा रही इन बेड़ियों से पता नहीं कब आजाद किया जाएगा लड़की को। क्यों छोटे कपड़े पहनना अपराध माना जाता हैं। या फिर इसका मतलब ये मान लिया जाए कि हमारे अपने ही लड़कियों को सिर्फ देह मानने की समाज की मानसिकता को फलित-फूलित कर रहे हैं।
देश तो आजाद है लेकिन यहाँ रहने वालों लोगों की मानसिकता आज भी गुलाम और विकृत है, खासकर महिलाओं के संबंध में।
और इतना ही नहीं, अगर अपने प्रगति के रास्ते खुद तलाश कर लड़की पढ़ लिख भी ले और नौकरी भी कर ले लेकिन कार्यस्थल पर भी उसे यौन-उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। ऐसे में भी अगर वो ऑफिस के उच्चतम पद को प्राप्त कर ले तो ये ही ढोंगी लोग इस मसले में भी मसाला खोज ही लेंगे।
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आज भी कोई फॉर्म भरना हो तो उसमें नाम के ठीक बाद पति या पिता का नाम लिखा जाना अनिवार्य होता है। शादी के बाद उपनाम यानि की सरनेम बदलने की परंपरा को भी आज तक निभाया जा रहा है। अब क्या सिर्फ लड़कियों की आजादी का मतलब ये है कि हम उसे पढ़ा-लिखा दें? इसपर हमें विचार करने की ज़रूरत है। जब तक हम लड़कियों के व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए उन्हें लड़कों के समान अवसर नहीं देंगे तब सशक्तिकरण और महिला-अधिकार के नामपर की जाने वाली हमारी सारी कोशिशें कोशिशें किसी काम की नहीं होगी।
लहरों के इस दौर में जब ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ हर तरफ गुंजायमान है तब हमें इसबात पर सोचना होगा कि क्या वाकई हम अपनी बेटियों को जीने का अधिकार दे रहें है जो उनकी पहचान को समाज में बचाए रखेगा? अगर नहीं तो ऐसे नारों को हम कभी सार्थक सिद्ध नहीं कर पाएंगे|
यह लेख डॉ कृति जैन ने लिखा है|