कहते हैं कि बच्चे भगवान का रूप होते है और इसी कहावत के चलते है अक्सर हमारे भारतीय समाज में बच्चे को महिला-पुरुष के शारीरिक संबंध से बनने वाले भ्रूण की बजाय भगवान की देन माना जाता है| पर ये बात सिर्फ बात तक सीमित नहीं है बल्कि इसे बकायदा धर्म से जोड़कर महिलाओं के अधिकारों को प्रभावित किया गया है| इसबात का सीधा उदाहरण है गर्भ समापन का अधिकार और इसकी क़ानूनी वैधता की स्वीकार्यता|
शुरूआती दौर से ही बच्चे को धर्म और आस्था से इस कदर जोड़ा गया है कि हमारे समाज में गर्भ समापन की कानूनी वैधता को भी समाज अवैध मानता है| ये अपने आपमें भी एक विचित्र-सी चुनौती है| पर ऐसी मान्यताओं के बीच महिला-अधिकार को वरीयता देने वाले भारतीय कानून का सफर भी इतना आसान नहीं रहा|
‘चिकित्सीय गर्भ समापन अधिनियम’ की बात
भारत में साल 1971 के चिकित्सीय गर्भ समापन अधिनियम में साल 2002 और 2003 में संशोधन किया गया| इन संशोधनों के अंतर्गत वह सेवाओं का विकेंद्रीकरण कर, उन्हें जिला स्तर पर उपलब्ध कराया गया| इनमें असुरक्षित गर्भ समापन प्रणालियों को रोकने के लिए सजा के प्रावधान, सुरक्षित गर्भ समापन चिकित्सालय देने के लिए ज़रूरी भौतिक आवश्यकताओं और चिकित्सीय गर्भ समापन की स्वीकृति शामिल है| इन सभी का उद्देश्य था कि गर्भ समापन संबंधित सुरक्षित सेवाओं में इजाफा हो सके|
बच्चे को धर्म और आस्था से इस कदर जोड़ा गया है कि हमारे समाज में गर्भ समापन की कानूनी वैधता को भी समाज अवैध मानता है|
वैधता तक पहुंचने में आती है अटकलें
गर्भ समापन को क़ानूनी रूप से वैध माना जाता है लेकिन इस तक पहुंचने में महिलाओं को ढ़ेरों दिक्कतों का सामना करना पड़ता है| कानून की अपर्याप्त जानकारी, अनावश्यक पति की स्वीकृति की ज़रूरत, गर्भ समापन से जुड़े गर्भ निरोधन के लक्ष्य और अनौपचारिक और ऊंची सेवा शुक्ल भी बाधक के रूप में काम करते हैं|
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कुछ समस्याएं जिनका अभी भी सामना करना पड़ता है जैसे – दोनों, प्राइवेट और जन स्वास्थ्य प्रणालियों में सेवा प्रदाताओं का अपर्याप्त विनियमन, केवल डॉक्टरों को गर्भ समापन करने की अनुमति होना (जिसके कारण मध्य-स्तरीय प्रदाताओं का छूट जाना) और पंजीकृत शहरी अस्पतालों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में कम संख्या में पंजीकृत अस्पताल होना| ऐसे में यह सभी इन सेवाओं तक औरतों की पहुंच को सीमित रखने के कारण बन जाते हैं|
सेवा प्रदाताओं का प्रशिक्षण, पंजीकरण प्रक्रियाओं को सरल बनाना, अस्पताल और सेवा प्रदाता की स्वीकृतियों को एक-दूसरे से अलग करना और नीतियों को नवीनतम तकनीकों, अध्ययन और सबसे बढ़िया प्रथाओं से जोड़ना – यह कुछ महत्वपूर्ण उपाय हैं, जो औरतों की सुरक्षित गर्भ समापन सेवाओं तक पहुंच सुधारने में मदद कर सकते हैं|
आज़ादी से पहले सीमित थी गर्भ समापन की वैधता
भारतीय दंड संहिता 1862 और अपराधिक दंड संहिता 1898 (जिनका मूल ब्रिटिश ऑफेंसेज अगेंस्ट द पर्सन एक्ट 1861 में है|) के अंतर्गत केवल औरत की जान को बचाने की स्थिति को छोड़कर गर्भ समापन को औरत और सेवा प्रदाता दोनों के लिए आपराधिक कृत्य बना दिया गया| साल 1960 और 70 के दशकों में पूरे यूरोप और अमरीका में गर्भ समापन कानूनों में उदारीकरण का चरण आया, जो विश्व के अन्य भागों में 1980 के दशक में ज़ारी रहा| भारत में गर्भ समापन कानून के उदारीकरण की प्रक्रिया साल 1964 में असुरक्षित गर्भ समापनों के कारण मातृ मृत्यु दरों की बहुत ऊंची दरों के संदर्भ में शुरू हुई| डॉक्टरों के पास नियमित रूप से, अप्रशिक्षित प्रदाताओं द्वारा असुरक्षित गर्भ समापन प्रक्रियाओं के इस्तेमाल के कारण गंभीर रूप से अस्वस्थ या मृत्यु की कगार पर औरतें आती थीं| उन्हें अहसास हुआ कि गर्भ समापन करवाने वाली औरतें ज्यादातर विवाहित थीं और उनपर अपने गर्भ को छिपाने का कोई सामाजिक दबाव नहीं था| गर्भ समापन के गैर अपराधीकरण से यह औरतें क़ानूनी मान्यता प्राप्त और सुरक्षित जगहों पर गर्भ समापन करवा सकती हैं|
और इस तरह भारतीय कानून ने की ‘गर्भ समापन वैधता की पुष्टि’
भारत सरकार द्वारा नियुक्त शाह कमिटी ने गर्भ समापन संबंधी सामाजिक-सांस्कृतिक, क़ानूनी और चिकित्सीय पहलुओं का अध्ययन किया और साल 1966 में सुझाव दिया कि सहानुभूति और चिकित्सीय कारणों से गर्भ समापन को क़ानूनी मान्यता दी जाए, जिससे कि औरतों के स्वास्थ्य पर होने वाली हानि को बचाया जा सके| हालांकि कुछ राज्यों ने प्रस्तावित कानून को जनसंख्या कम करने की रणनीति के रूप देखा| शाह कमिटी ने इस उद्देश्य से स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया| चिकित्सीय गर्भ समापन अधिनियम, संसद द्वारा 1971 में पारित कर भारत के सभी राज्यों में गर्भ समापन को क़ानूनी मान्यता दे दी गयी| लेकिन उदारवादी कानून अपनाए जाने के 30 सालों के बाद भी भारत में औरतों को सुरक्षित गर्भ समापन सेवाएं प्राप्त नहीं हैं|
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समय के साथ हुए ज़रूरी क़ानूनी बदलाव
विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं, व्यावसायिक संगठनों और सक्रियतावादियों के साथ विचार-विमर्श के बाद, भारतीय संसद ने चिकित्सीय गर्भ समापन (संशोधित) अधिनियम, 2002 पारित किया और 2003 में उसके नियम और विनियमों को संशोधित किया| चिकित्सालयों के पंजीकरण से संबंधित प्रक्रियाओं की जटिलता को कम करने के प्रयास में, नए अधिनियम ने गर्भ समापन चिकित्सालयों का नियन्त्रण विकेंद्रीकरण करके उसकी जिम्मेदारी राज्य स्तर से जिला स्तर पर दे दी है|
भारतीय समाज में बच्चे को महिला-पुरुष के शारीरिक संबंध से बनने वाले भ्रूण की बजाय भगवान की देन माना जाता है|
चिकित्सीय गर्भ समापन अधिनियम की एक प्रमुख आलोचना है कि वह चिकित्सकों के पक्ष में है| प्रदाताओं के रूप में ‘केवल डॉक्टर’ नीति के कारण मध्य-स्तरीय प्रदाता और वैकल्पिक चिकित्सा प्रणालियों का पालन करने वाले छूट जाते हैं| दूसरे तिमाह के गर्भ समापनों के लिए और दूसरे चिकित्सक की स्वीकृति की ज़रूरत के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में इन सेवाओं तक पहुंच में बाधा आती है| चिकित्सीय गर्भ समापन अधिनियम के अंतर्गत राज्यों की जिम्मेदारी है कि वे सभी सरकारी अस्पतालों में गर्भ समापन सेवाएं उपलब्ध कराएं| लेकिन, जन स्वास्थ्य चिकित्सालयों के लिए स्वीकृतियों की ज़रूरत अनिवार्य न होने के कारण उनपर वे नियंत्रक नियम लागू नहीं होते, जो प्राइवेट चिकित्सालयों के लिए लागू हैं| भारत में गर्भ समापन नीति की एक खास कमी है कि इसमें स्तरीय रोगों संबंधित जानकारी और अध्ययन के लिए स्पष्ट नीति नहीं है|
जैसा कि भारत में करीब सभी स्वास्थ्य सेवाओं के संदर्भ में देखा जा सकता है कि कागज पर नीतियाँ और उन्हें जमीन पर लागू करने की तस्वीर में कितना ज्यादा फर्क होता है| उसी तर्ज पर या यों कहें कि उससे भी बदतर गर्भ समापन का विषय देखरेख सेवाओं खासकर जन स्वास्थ्य प्रणाली में, एक उपेक्षित क्षेत्र रहा है| जन स्वास्थ्य प्रणाली में देखरेख सेवाओं में गुणवत्ता की कमी और कर्मचारियों के अनुचित व्यवहार व अप्रभावी कानून (या उसे लागू करने में विफलता) के कारण, प्राइवेट स्वास्थ्य प्रणाली में अनियंत्रित व शोषक सेवाओं को पनपने का मौका मिला है| हालांकि भारतीय गर्भ समापन नीति और कानून प्रगतिशील हैं, उन्हें प्रभावकारी तरीके से सुरक्षित गर्भ समापन सेवाओं तक पहुंच बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करने के रास्ते में अक्सर गलत और अनावश्यक प्रथाएं बाधक बन जाती है|
यह लेख क्रिया संस्था के वार्षिक पत्रिका हिन्दी र्रिप्रोडक्टिव हेल्थ मैटर्स से प्रेरित है| इसका मूल लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें|
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तस्वीर साभार: povertyactionlab