‘पीरियड तो एक नार्मल प्रक्रिया है| अब तो सभी इसपर खुलकर बात करते हैं| इतना ही नहीं, आजकल की लड़कियां भी इन सबके बारे में जानती है|’ बिना रुके डॉक्टर साहिबा ने अपनी बात ज़ारी रखी और मंच से उन्होंने लड़कियों को संबोधित करते हुए कहा कि, ‘लेकिन आज़ादी के साथ-साथ हमें अपनी मर्यादाओं और संस्कृति को कभी नहीं भूलना चाहिए| यही हमारा असली गहना है| अब अगर कहा जाता है कि पीरियड के दौरान हमें मन्दिर नहीं जाना चाहिए तो इसमें गलत क्या है? आप अपने शास्त्र उठाकर देखिये इन सभी पाबंदियों की वाजिब वजहें बताई गयी हैं वैज्ञानिक तरीके से| अरे, अगर आप चार-पांच दिन मन्दिर नहीं जाएंगीं तो कुछ घट थोड़े न जायेगा| मैं बहुत आभारी हूँ इस मीडिया ग्रुप की जिन्होंने पीरियड के मुद्दे पर यह पहल की| एक गाय्नोलोजिस्ट के तौर पर आप सभी को यही कहूंगी कि पीरियड के दौरान आप साफ़ और अच्छे क्वालिटी का पैड इस्तेमाल करें और साफ़-सफाई का ध्यान रखें|’
पीरियड पर पहल कहीं बन न जाए ढ़ेरों समस्याओं की जड़
समय के साथ काफी कुछ बदला है| पीरियड के संदर्भ में भी| हमारा वो समाज जहाँ पीरियड को हमेशा से शर्म का विषय माना जाता था और इसपर बात करना हमारी संस्कृति के विरुद्ध था, एक फिल्म और चंद सरकारी नीतियों के बाद से ये विषय पैड के साथ सेल्फी लगाने का बन गया| अब क्या महिला और क्या पुरुष सोशल मीडिया पर हर तरफ बेबाकी से लोग पैड के साथ फोटो लगाने लगे| वो मीडिया, जो इन सबसे से पहले पीरियड के केंद्रित किसी खबर में इस शब्द को लिखने से कतराती थी अब वो इस विषय पर अभियान चलाने लगी है| इसी क्रम में, वे अपने अभियानों में पितृसत्तात्मक सोच वाली गाय्नोलोजिस्ट को केंद्र में रखती है, जो एक साथ कई क्षति पहुंचा रही हैं, क्योंकि जिस ओहदे और प्रभावों के साथ ये बातें कहीं जा रही है वे आने वाले समय में बड़ी समस्या बन जायेगी| या यों कहें कि भविष्य की इस गंभीर समस्या की झलक अभी से दिखाई पड़ने लगी है, जिसे हम लेख में और जानने की कोशिश करेंगें|
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पीरियड पर अभियान माने बाजारवाद को बढ़ावा
पीरियड के मुद्दे पर मौजूदा समय में होने वाली बाजारवादी पहल सिर्फ और सिर्फ पैड और चिकित्सा के बाज़ार को फायदे पहुँचाने की दिशा में है| सरल शब्दों में कहें तो अब पीरियड को एक समस्या के रूप में देखा जाता है, जिसका उपाय सेनेटरी पैड को बताया जा रहा है| नतीजतन पीरियड पर बिना किसी चर्चा-जागरूकता से धड़ल्ले से पैड वितरण करना एक अज़ीब पर पॉपुलर वाला काम बन चुका है| वहीं दूसरी तरफ, पीरियड जैसे प्राकृतिक प्रक्रिया पर बात करने के लिए सिर्फ डॉक्टरों को चुनना ये भी इस विषय को चिकित्सा के सांचे में फिट कर रहा, जो इसे प्राकृतिक से ज्यादा चिकित्सा का विषय बना रहा है|
ये तो बात हुई पीरियड के मुद्दे पर मौजूदा समय में हो रहे प्रयासों और उनकी सार्थकता की| आइये अब जरा बात करते है ऐसी जमीनी हकीकत की जहाँ हालात बद से बदतर हैं|
पीरियड के मुद्दे पर मौजूदा समय में होने वाली बाजारवादी पहल सिर्फ और सिर्फ पैड और चिकित्सा के बाज़ार को फायदे पहुँचाने की दिशा में है|
यहाँ पीरियड के दौरान भेदभाव कर महिलाओं से छीन रहे मौलिक अधिकार
नेपाल सीमा से लगे उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के कई गाँव में लड़कियां और महिलाएं पीरियड की वजह से सामाजिक संघर्ष कर रही है| उनका ये संघर्ष है उनके मौलिक अधिकारों को लेकर – उनकी शिक्षा और रोजगार का अधिकार|
इसकी वजह है हमारी संस्कृति का वो हिस्सा जिसे विज्ञान वाले डॉक्टर भी पूजनीय और स्वीकार्य मानते है| यानी कि पीरियड के दौरान मन्दिर न जाने की प्रथा| ऐसा माना जाता है कि पीरियड के दौरान महिलाएं अपवित्र हो जाती है, इसलिए उन्हें किसी पवित्र (यानी पूजा-पाठ से जुड़े) स्थान नहीं जाना चाहिए| पिथौरागढ़ जिले के गाँव की महिलाएं इस प्रथा के चलते अपने काम पर और लड़कियां स्कूल नहीं जा पा रही है, क्योंकि वे जिस रास्ते अपने स्कूल और काम पर जाती है उस रास्ते में मंदिर आता है|
पीरियड से जुड़ी ये पाबंदियां सिर्फ हमारे गाँव का ही नहीं बल्कि हमारे शहरों का भी हिस्सा है|
पिथौरागढ़ जिले के रौतगढ़ा गाँव में गवर्नमेंट इंटर कॉलेज के रास्ते पर स्थानीय देवता का मन्दिर पड़ता है| स्थानीय लोगों का मानना है कि अगर पीरियड के दौरान लड़कियां इस रास्ते से गुजरीं तो मन्दिर अपवित्र हो जाएगा| ऐसे में लड़कियों को महीने के पांच दिन तक स्कूल नहीं जाने दिया जाता है| वहीं दूसरी तरफ, धारचूला गाँव में हिमालय क्षेत्र में होने वाली जड़ी यारसा गुंबा कई परिवारों की रोजी का जरिया है| यह मंहगी बिकती है| साल 2013 में राज्य में भयावह आपदा आई, जिसमें धारचूला भी बुरी तरह प्रभावित हुआ था| कुछ लोगों ने माहौल बना दिया कि महिलाएं पीरियड के वक़्त गुंबा खोजने जाती है, जिससे नाराज़ होकर भगवान ने आपदा का श्राप दिया है| इसके बाद महिलाओं से यह काम छीना जाने लगा|
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चंद मायनों से परे, बढ़ानी होगी पीरियड पर समझ
पीरियड से जुड़ी ये पाबंदियां सिर्फ हमारे गाँव का ही नहीं बल्कि हमारे शहरों का भी हिस्सा है| लेकिन दुर्भाग्यवश आज हमारा तथाकथित आधुनिक और शिक्षित समाज इस मुद्दे पर ढ़ेरों पहल कर रहा है, पर इनकी दिशा सिर्फ बाज़ारों की चंद सेवाओं और उत्पादों तक सीमित है| ऐसे में ज़रूरी है कि हम पीरियड के मुद्दे को दाग और दर्द से अधिक समझकर, इससे जुड़े अन्य पहलुओं को अपनी समझ बनाने का काम करें| गाँव की ये घटनाएँ लेख के शुरुआत में गाय्नोलोजिस्ट मैडम की चार दिन मन्दिर न जाने और इससे फर्क न पड़ने की बात को साफ़ करती है| अब हमें खुद से अपने प्रयासों पर सवाल करने और इसे चंद मायनों समेटने की बजाय पीरियड से जुड़ी जमीनी चुनौतियों को समझने और दूर करने की ज़रूरत है|
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तस्वीर साभार : laseptimaentrevista
अपने जो आर्टिकल लिखा है वह काफी विचाराधीन है,और इससे मई पूर्णतः सहमत हु, माहवारी एक अभिश्राप और वरदान भी है, पर मनुष्य जाती इसे दोष मानती है, जो पूर्ण तह गलत है, मै मानता हु की समाज में कुछ दायरे है जहाँ इसे छूत मन गया है, परन्तु इसके परे, जैसे हम जानते है की माहवारी के दौरान महिला से कोई पुरुष सेक्स करना नई पसंद करता, परन्तु शोध में ये पाया गया है की, महिलाओ की उत्तेजना इस समय चरम पर होती है, जो महिलाये इस प्रकार का कष्ट झे रही है उनके लिए सेक्स टॉयज एक अच्छा उपाय है, विदेशो में महिलाये आज पुरुष के बजाय, सेक्स टॉयज से ज्यादा आनद लेती है, जो ab भारत में भी हो रहा है, और एक सर्वे में पाया गया की भारतीय महिलाये, सबसे ज्यादा सेक्स वाइब्रेटर का उपयोग कर रही है जो ऑनलाइन आर्डर किया जाता है साथ ही यह पाया गया है एक ThatsPersonal.com वेबसाइट भारत में सबसे ज्यादा ऑनलाइन सेक्स टॉयज बेचती है