संस्कृतिसिनेमा ‘कबीर सिंह’ फ़िल्म ही नहीं समाज का आईना भी है

‘कबीर सिंह’ फ़िल्म ही नहीं समाज का आईना भी है

‘कबीर सिंह’ को जैसे ही हम फिल्म के संदेश के आधार पर इसकी आलोचना करना शुरू करें तो इसे समाज के लिए बुरी फिल्म के दायरे में रखेंगें|

बेख्याली में भी तेरा ही ख्याल आये

क्यों बिछड़ना है ज़रूरी ये ख्याल आये……

एक प्रेमी जो अपनी प्रेमिका के प्यार में है, उसका प्यार इस कदर प्रेमी में रग-रग में समाया है कि वो एक पल को भी अपनी प्रेमिका से दूर नहीं होना चाहता है| वो हर पल अपनी प्रेमिका के ख्याल में डूबा रहता है| कितना प्यारा है ये प्यार| साफ़-पाक़ सा| एक-दूसरे में डूबा, बेबाक़, बेपरवाह और अपने प्यार के लिए पूरा समर्पित| जब पहली बार हाल ही में आई फिल्म ‘कबीर सिंह’ का ये गाना सुना तो मन में यही कल्पना चलने लगी| इतना रोमांटिक और प्यारा गाना है| काश इस गाने में प्यार को जितनी सिद्धत और संजीदगी के साथ फिल्म के जिन किरदारों के लिए लिखा गया है उनमें भी इतनी सिद्धत और संजीदगी होती| संजीदगी – सम्मान की, लैंगिक समानता की और अहिंसा की|

मसाला फिल्मों ने नाम से जाना जाने वाला अपना बॉलीवुड हमेशा अपनी मसाला फिल्मों के लिए दुनियाभर में जाना जाता है| अब बात अगर फिल्मों के मसालों की करें तो ये कभी हमारे समाज से मसाले चुनती है तो खुद नये मसाले परोसती है| पर बात चाहे जो हो मसाला ज़रूर होता है, हमारी बॉलीवुड की फिल्मों में| ये बात पब्लिक भी बहुत अच्छे से जानती है, तभी तो बड़े बेबाक अंदाज़ में कहती है – फिल्म को फिल्म की तरह देखना चाहिए जो मनोरंजन का साधन मात्र है| इसपर कोई भी बखेड़ा खड़ा करने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि फिल्मों में कुछ भी रियल नहीं होता|

कितना आसान सा मसालेदार जवाब है न? पर जब फिल्मों के फूहड़ गाने राह चलती लड़कियों के लिए इस्तेमाल किये जाने लगे तब क्या कहेंगें आप? जब अपनी प्रेमिका, पत्नी या ज़िन्दगी से जुड़ी किसी भी औरत कोई कोई मर्द फ़िल्मी हीरो की तरह अपनी बपौती समझने लगे तो आप क्या कहेंगें? कैसा हो जब फ़िल्मी हीरो की नक़ल करते हुए कोई सिरफिरा लड़का किसी लड़की से चाक़ू की नोंक पर बलात्कार करने की करे? क्या तब भी आपका जवाब उतना ही चिल वाला होगा? बेशक नहीं|

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हाल ही में आई फिल्म ‘कबीर सिंह’ भी ऐसी ही एक फिल्म है, जिसको लेकर आपको इन सभी पहलुओं पर सोचने की ज़रूरत है| फिल्म दिन दुगनी और चौगुनी की रफ्तार से कमाई के नए-नये रिकॉर्ड बना रही है| साफ़ है ये फिल्म लोगों को खूब भा रही है और देखी जा रही है| इसकी लोकप्रियता जितनी बढ़ रही है, उतनी ही इसकी आलोचना भी की जा रही है| अगर हम इस फिल्म की आलोचना फ़िल्मी परिपेक्ष्य में करेंगें तो बेशक हम इसे फिल्म की थ्योरी के मानकों के आधार पर आंकेगे और कहेंगे कि फिल्म अच्छी है| पर जैसे ही हम फिल्म के संदेश के आधार पर इसकी आलोचना करना शुरू करें तो इसे समाज के लिए बुरी फिल्म के दायरे में रखेंगें| किन आधारों पर आइये जानते हैं –

बपौती की वो बात

फिल्म का मुख्य किरदार कबीर सिंह को कॉलेज की फर्स्ट इयर की एक लड़की को देखते ही प्यार हो जाता है| पूरी फिल्म में वो हिरोइन को ‘अपनी बंदी’ से संबोधित करता है| इतना ही नहीं, इस सीन में हिरोइन की औकात पर ऊँगली उठाते हुए ये कहता है कि – तेरी औकात क्या है? तू मेरी बंदी है|’ उल्लेखनीय है कि हिरोइन भी अच्छे नम्बरों के साथ उस कॉलेज में एडमिशन लेती है, माने वो किसी भी मायने में लड़के से कम नहीं है, लेकिन फिर भी उसका वजूद पूरी फिल्म में सिर्फ कबीर सिंह की बंदी में ही सिमटा है|

फिल्म को सिर्फ मनोरंजन के संदर्भ से नहीं समाज में संदेश देने वाले एक माध्यम के तौर पर देखिये|

लड़की का सम्मान

लड़की माने कबीर सिंह की बंदी से लेकर हर लड़की फिर वो उसके घर में काम करने वाली ही क्यों न हो| पूरी फिल्म में लड़की का सम्मान हीरो कबीर सिंह की किरदार से नदारद है| वो चाक़ू की नोंक पर एक लड़की से बलात्कार करने की कोशिश करता है| वहीं दूसरी तरफ, हिरोइन को कबीर बेहद आसानी से थप्पड़ मारता है| माने हीरो के लिए लड़की का सम्मान कोई विषय नहीं है क्योंकि लड़की उसके लिए सिर्फ एक सामान है|

पितृसत्ता वाला नियम ख़ास ‘अपनी बंदी’ के नाम

फिल्म में कबीर सिंह हिरोइन को अपना दुपट्टा ठीक करने के लिए कहता है| होली पर उसे सबसे पहले रंग लगाने के लिए ढ़ेरों इंतजाम करता है| साफ़ है वो खुद को पितृसत्ता की प्रतिमूर्ति की तरह व्यवहार कर ही रहा है, वहीं दूसरी तरफ महिला के संदर्भ में पितृसत्ता के मूल्यों को कायम किये हुए| इन सबको को बेहद आसानी से अपनी बंदी का नाम देकर जस्टिफाई करता है|

सौ की एक बात ‘संदेश’

फ़िल्में संचार का एक प्रभावी माध्यम है| ये कभी समाज को आईना दिखाती है तो कभी समाज का आईना दिखाती है| संचार माने – संदेश का आदान-प्रदान| वो संदेश जिसे देखकर हमारा समाज अपनी हेयरस्टाइल, कपड़े, लाइफस्टाइल और विचारों को आकार देता है| मौजूदा समय में जब एक तरफ हमारे देश को महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित बताया जा रहा है और हर दिन हम छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार, महिला हिंसा और यौन उत्पीडन की खबरें देखते है| ऐसे में कबीर सिंह का किरदार चंद घंटे की फिल्म में एक मुश्त उन तमाम विचारों को बेहद सकारात्मक तरीके से दर्शकों के सामने परोसती है कि सभी की संवेदना हीरो के साथ खड़ी होती है| इसबात हम और आप अच्छी तरीके से जानते है कि ये कहीं से हमारे, आपके और समाज के लिए सही नहीं है|

इसलिए फिल्म को सिर्फ मनोरंजन के संदर्भ से नहीं समाज में संदेश देने वाले एक माध्यम के तौर पर देखिये|

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तस्वीर साभार : aajtak

Comments:

  1. avaneesh kumar says:

    फ़िल्म कबीर सिंह के कुछ सीन याद कीजिए। कबीर के पिता जब उससे बार बार एक ही सवाल करते हैं तो कबीर झल्ला जाता है। जिसे आप बद्तमीजी भी कह सकते हैं। कबीर जब एक लिमिट से अधिक दारू पीने लगता है तब भाई के रोकने पर भी कबीर चिल्ला उठता है और बद्तमीजी से उसे भी धक्का दे देता है। कबीर अपने सबसे करीबी दोस्त को भी डांट देता है।

    इन सीन्स को बताना बोरिंग था लेकिन उतना ही जरूरी भी। यह याद दिलाने के लिए कि कबीर के पिता, उसका बड़ा भाई, उसका सबसे प्यारा दोस्त तीनों ही पुरुष हैं। कबीर तीनों से ही सनककर बात करता है। इसलिए जब वह अपनी प्रेमिका से भी सनकियों जैसा व्यवहार करता है तो उसमें पुरुषवाद ढूंढना उतना सही नहीं लगता। वैसे ही मछलियों के ग्लास टूटने पर अपनी काम वाली बाई के पीछे दौड़ते कबीर में पुरुषवाद ढूंढना।

    ग्लास किसी लड़के पर भी टूटा होता… कबीर उसके पीछे भी दौड़ ही रहा होता.. एक छोटे से ग्लास के टूटने पर पीछे दौड़ने के पीछे “पुरुषवाद” नहीं बल्कि उसका मानसिक असुंतलन था। जो तत्कालीन स्थितियों से उपजा था। किसी रिश्ते के टूट जाने के बाद, किसी अपने के कहीं दूर चले जाने के बाद उपजा हुआ बदहवासीपन, चिड़चिड़ापन,Unnatural behavior. हम सबने देखें हैं।

    जहां डिप्रेशन पर विमर्श तैयार करना था वहाँ जेंडर पर विमर्श करके हम जता रहे हैं कि स्थिति को हमने कितना सतही होकर समझा है।

    कबीर साइको है ये उसका मेंटल स्टेटस है लेकिन ये उसकी विचारधारा नहीं। कबीर सनकी है लेकिन सनकी होना पुरुषवादी नहीं। सनकी स्त्री भी हो सकती है।

    कबीर की प्रेमिका जब उसे थप्पड़ मार देती है तब उससे गुस्सा होने के बजाय कबीर उसे चूम लेता है। क्योंकि प्रेमिका के थप्पड़ में अपनापन था और कबीर के चूमने में माफी। इसे केवल दो प्रेमी-प्रेमिका की फीलिंग्स के परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है। जहां प्रेमिका का थप्पड़ खाना अपमान नहीं वहीं प्रेमिका को चूमना भी सेक्सुअल नहीं। यहां तो प्रेमिका का थप्पड़ खाना और चूमना दोनों ही प्रेम के प्रतीक बन गए। क्या यह अन्य स्थितियों में संभव है सिवाय प्रेम के ?

    इसलिए प्रेम कहानियों का मूल्यांकन उन परिस्थितियों की उपेक्षा करके नहीं किया जा जाना चाहिए जिनसे प्रेम कहानियों का जन्म होता है।

    जब कोई प्रेमी कहता है कि ” वो सिर्फ मेरी बंदी है”
    तब ऐसा कहने में प्रेमिका की चॉइस के अधिग्रहण होने के जोखिम छिपे हुए होते हैं जिसकी आलोचना भी की जा सकती है लेकिन कबीर ने “केवल अपनी बंदी” कहकर प्रेमिका की देह पर ही दावा नहीं किया था। इसे उसने तब सच भी साबित किया जबकि उसकी प्रेमिका की देह में किसी और का बच्चा पल रहा था तब भी कबीर प्रीति को “मेरी बंदी” कहता है। उसे अपना ही मानता है।

    चूंकि कबीर के लिए उसकी प्रेमिका देह भर नहीं थी। देह से ज्यादा थी। तब ही कबीर के लिए प्रेमिका का मैरिटल स्टेटस, उसके सेक्सुअल रिलेशन्स उतने महत्वपूर्ण नहीं रह जाते। जिस “बंदी” शब्द की हम आलोचना करते हैं उसमें तो प्रेमिका के पेट में दूसरे का बच्चा सुनने भर से ही मेल ईगो हर्ट हो जाता। जिनके लिए स्त्री की योनि में ही प्रेम की सुचिता छुपी हुई होती है।

    जब कबीर का दोस्त कहता है कि उसकी प्रेमिका के पेट में किसी और का बच्चा है,क्या तब भी वह उससे प्यार करेगा। कबीर तब भी कहता है “वो मेरी बंदी है” प्रीति मेरी है। प्रीति के पेट में किसी और का बच्चा है इससे मेरे लिए प्रीति बदल नहीं जाती।

    प्रेम की इस खूबसूरती पर ध्यान देने की जरूरत थी… लेकिन नहीं दिया गया

    “वह मेरी बंदी है” इस वाक्य पर बहस की जानी चाहिए। इसमें छुपी पेट्रिआर्की पर बात की जानी चाहिए। लेकिन उससे पहले इस बात को समझने की जरूरत है कि
    प्रेम में पजेसिव होने पर उत्पन्न प्रतिक्रियाएं अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग हो सकती हैं। अगर प्रेमी या प्रेमिका में से कोई एक प्यार नहीं करता तब दूसरे वाले का एक्सट्रा पजेसिव होना सामने वाले के लिए सरदर्द बन सकता है सफोकेटिव हो सकता है। लेकिन अगर दोनों प्यार करते हैं तब पजेसिवनेस भी ब्लेसिंग में बदल जाती है। तब प्रेमी-प्रेमिका दोनों चाहते हैं कि एक दूसरे के लिए पजेसिव हों। तब प्रेमिका भी कहना चाहती है ” He is my boy”

    इसलिए “मेरी बंदी है” शब्द स्थितिपरक है एक समय पर ऐसा कहना पैट्रिआर्क भी हो सकता है तो दूसरी स्थिति में ऐसा कहना सुखद भी हो सकता है, लोकतांत्रिक भी।
    पूर्व में प्रेम करने वाले इन परिस्थितियों से परिचित होंगे।

    प्रेम की परिभाषाएं इतनी विस्तृत हैं कि किसी एक परिभाषा के बनते ही वह प्रेम की किसी दूसरी परिभाषाओं से टकराने लगती हैं। इसलिए प्रेम किसी भी फिट परिभाषा से परे है। एक प्रेमी के रूप में आप कबीर से संयम की उम्मीद कर सकते हैं। सभ्य होने की उम्मीद कर सकते हैं। एक अनुशासित प्रेमी होने की अपेक्षा कर सकते हैं। लेकिन वह तो साइको है? फिर उससे अनुशासन की अनिवार्य अपेक्षा कैसी ?

    क्या सनकी लड़के-लड़की हमारे बीच से नहीं होते?
    क्या सनकी लड़के-लड़की प्रेम नहीं कर सकते ?
    सनकीपन, पागलपन एक बीमारी है लेकिन चरित्र नहीं।
    सनकी होना परिस्थितिक असक्षमता हो सकती है लेकिन उस व्यक्ति के चरित्र निर्धारण के लिए सही मानक नहीं है। उसकी बोली-भाषा से आप नफरत कर सकते हैं। लेकिन इससे व्यक्ति नफरत करने योग्य कहाँ हो जाता है?

    अपने सबसे अधिक चाहने वाले के न मिलने पर एकदम टूट जाने वाला कबीर कोई भी हो सकता है। हर किसी की क्षमता नहीं है कि प्रेम में टूट जाने के बाद भी वह अनुशासित ही बना रहे। हरेक की क्षमता नहीं कि प्रेम में टूट जाने के बाद भी लैपटॉप पर घण्टों बैठ सके। सुबह आठ बजे ऑफिस के लिए उठ सके। हरेक की क्षमता नहीं कि प्रेम में बिखर जाने के बाद भी वह बॉस के सामने भीनी सी स्माइल दे सके ये कहते हुए कि “कुछ नहीं हुआ है, सब ठीक है”

    कबीर उन अनगिनत लड़के-लड़कियों जैसा ही है जिनका अपने इमोशन्स पर नियंत्रण नहीं। जो प्रेम में रो देते हैं। जो अपने प्रेमी या प्रेमिका के जाने के महीनों बाद भी हिस्से हिस्से मरते हैं। महीनों बाद भी कभी कभी जिनके हलक से रोटी नहीं उतरती। जिन्हें द्वारिका की ओर जाने वाली मेट्रो से भी अपनी प्रेमिका की याद आ जाती। कबीर उन्हीं प्रेमियों से एक है जो प्रेमिका की पसन्द का रंग नहीं भूले। वो लड़के जो किसी मोमोज के ठेले को देखकर भी प्रेमिका को याद कर आते हैं।

    इन अनगिनत लड़के-लड़कियों को हग करने की जरूरत है। इनके माथे को चूमने लेने की जरूरत है। घृणा करने की नहीं।

    कबीर के द्वारा की गईं स्त्री-विरोधी किसी भी हरकत पर आपत्ति की जानी चाहिए। प्रेमी भी आलोचनाओं से परे नहीं है। फ़िल्म कई जगहों पर मिसोजिनिस्ट है। कई जगह रेग्रेसिव है। लेकिन कई जगह अच्छे संदेश भी देती है। यहां गांधी की एक बात पुरानी और बोरिंग लग सकती है लेकिन काम की है “पाप से घृणा करो पापी से नहीं”
    फ़िल्म के उन सभी हिस्सों पर बहसें होनी चाहिए जो वर्तमान प्रगतिशीलता के पैमानों पर खरी नहीं उतरतीं जो किसी भी जेंडर या रेस को कमतर आंकती हैं।

    कबीर सनकी हो सकता है, कबीर असभ्य भी हो सकता है लेकिन ऐसा होने भर से उसका प्रेमी होना कम नहीं हो जाता… ♥️

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