समाजकानून और नीति डॉ मीतू खुराना : देश की पहली महिला जिसने ‘बेटी’ को जन्म देने के लिए लड़ी क़ानूनी लड़ाई

डॉ मीतू खुराना : देश की पहली महिला जिसने ‘बेटी’ को जन्म देने के लिए लड़ी क़ानूनी लड़ाई

डॉ मीतू खुराना कोई हाई प्रोफ़ाइल इंसान नहीं थी। वह माँ थी। जुड़वा बच्चियों की माँ। वह माँ जिन्होंने PNDT एक्ट के तहत पहला मामला दर्ज कराया।

ममता सिंह

हमारे यहाँ हिंदू धर्म में पूरे साल देवी मैया को समर्पित ढेरों व्रत और त्योहार होते है, जिनमें से नवरात्रि भी एक अहम पर्व है। इसमें देवी मैया के गुणगान और कन्याओं की पूजा ज़ोर-शोर से की जाती है। देवीपूजन और कन्यापूजन को ढोंग कहने पर बहुत लोगों को आपत्ति होगी, उनकी भावनाएं आहत होंगी, इसलिए नहीं कहती लेकिन इन्हीं लोगों से पूछना चाहती हूं कि यूनिसेफ़ की रिपोर्ट कहती है कि हिंदुस्तान में रोज़ 7000 बच्चियाँ गर्भ में मारी जा रही हैं। जी हाँ रोज़ाना सात हज़ार बच्चियों की मौत से आपकी भावनाएं आहत होती हैं? अगर हाँ तो प्रतिक्रिया क्यों नहीं आती?  ग़ौरतलब है कि यह बच्चियाँ तब मारी जा रहीं हैं जब इस देश में कन्या भ्रूण हत्या के लिए 1994 में प्री नेटल डायग्नोस्टिक टेक्निक यानी पीएनडीटी क़ानून लागू है। एक अनुमान है कि पिछले तीस से चालीस साल में देश में तीन करोड़ से अधिक लड़कियाँ गर्भ में मार दी गई हैं। भ्रूण कन्या हत्या के अलावा, घरेलू हिंसा, बलात्कार, यौन उत्पीड़न जैसी तमाम महिला हिंसा से महिलाओं को जीवनभर दो-चार होना पड़ता है। एक तरफ समाज देवी मैया के भजन गाता है, दूसरी तरफ़ तीन करोड़ बच्चियों को महज़ इसलिए मार देता है कि वह लड़का नहीं हैं। कितने चुपचाप, कितनी ख़ामोशी और कितनी चालाकी से हम इन क्रूर आंकड़ों पर आँखें बंद कर लेते हैं..हाउ स्वीट न..!

हममे से बहुतों ने शायद डॉ मीतू खुराना का नाम सुना हो और शायद न भी सुना हो। वह कोई देवी नहीं थी और न कोई हाई प्रोफ़ाइल इंसान थी। वह माँ थी। जुड़वा बच्चियों की माँ। वह माँ जिन्होंने PNDT एक्ट के तहत पहला मामला दर्ज कराया।

उन्होंने अपने पति, ससुराली जनों के साथ-साथ उस हॉस्पिटल पर भी केस किया जिसने धोखे से उनके गर्भ की लिंग जाँच की। डॉ मीनू स्वयं डॉ थीं और उनके पति भी डॉ थे। यह पता चल गया था कि बच्चे जुड़वा हैं और दोनो लड़कियाँ। ससुर जी इतिहास के प्रोफ़ेसर और सास रिटायर्ड वाइस प्रिंसिपल। पर समाज की यह मानसिकता जिसमें वंश चलाने के लिए बेटे का होना अनिवार्य होता है, के चलते डॉ मीनू पर गर्भसमापन कराने के लिए शारीरिक, मानसिक अत्याचार हुए, घर से निकाला गया, उनपर दबाव डाला गया कि वह कम से कम एक बेटी की हत्या के लिए रज़ामंद हों।

साल 1994 में कानून बनने के बावज़ूद किसी ने इसके तहत कोई केस नहीं दर्ज़ किया था। पर डॉ मितू ने साल 2008 में जब इसके तहत मामला दर्ज़ कराया तब देशभर में एकबारगी कन्या भ्रूण हत्या कानून सुर्ख़ियों में आ गया। डॉ मीतू की ख़ुशकिस्मती थी कि उनके माता-पिता बेटी और बेटे में फ़र्क नहीं करते थे और उन्होंने हर कदम अपनी बेटी का साथ दिया। पर डॉ मीनू ने कई जगह कहा कि उनकी लड़ाई लम्बी और बहुत कठिन है क्योंकि यह एक परिवार की बात नहीं बल्कि एक माइंडसेट की लड़ाई है।

डॉ मीतू खुराना कोई हाई प्रोफ़ाइल इंसान नहीं थी। वह माँ थी। जुड़वा बच्चियों की माँ। वह माँ जिन्होंने PNDT एक्ट के तहत पहला मामला दर्ज कराया।

वह माइंडसेट जिसमें हर जगह लड़की को कम्प्रोमाइज करने, ससुराल के हर ऊंच-नीच को सहने और बेटा होने की अनिवार्यता को सहज माना जाता है। यह माइंडसेट सोसाइटी, ज्यूडिशरी से लेकर पुलिस प्रशासन तक हर जगह व्याप्त है। तभी उन्हें हर जगह हतोत्साहित किया गया। एक बड़े पुलिस अधिकारी ने डॉ मीतू से कहा कि आप लड़ते-लड़ते मर जायेंगी पर आपको कोई न्याय नहीं मिलेगा। वहीं एक बड़ी अथॉरिटी ने कहा कि आप एक बेटा क्यों नहीं दे देतीं अपने ससुराल वालों को, बेटे की चाह रखना उनका अधिकार है। डॉ मीतू के लिए बहुत आसान था सबकुछ सह लेना और बहुत मुश्किल था इस माइंडसेट से एक अंतहीन लड़ाई लड़ना।

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निचली अदालत ने उनका केस खारिज़ कर दिया कि उनके पास अल्ट्रासाउंड का कोई प्रूफ़ नहीं था जबकि वह कहती रहीं कि जिस हॉस्पिटल में अल्ट्रासाउंड हुआ वह उनके पति के मित्र का था, जब रोज़ाना आमलोग हज़ारों बच्चियों की जाँच और अबॉर्शन आसानी से करा रहे तब एक डॉ के लिए अपने मित्र से जाँच कराना कौन सा मुश्किल काम था। आमिर खान के ‘सत्यमेव जयते’ कार्यक्रम में इस मुद्दे के एक शोधकर्ता ने बताया कि यह मिथ है कि कन्या भ्रूण हत्या अनपढ़ लोगों और पिछड़े इलाकों में होता है। उन्होंने बताया कि कन्या भ्रूण हत्या कराने वालों में मध्यवर्ग से लेकर उच्च वर्ग तक के लोग शामिल हैं जिनमें स्वयं डॉक्टर्स, आईएएस, चार्टर्ड एकाउंटेंट और मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाले लोग तक शामिल हैं। साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने ने ऑर्डर दिया कि पीएनडीटी एक्ट के तहत हुए मुकदमों का शीघ्र निस्तारण हो पर डॉ मीतू का केस वहीं का वहीं रहा। यहाँ तक कि भारत के प्रधानमंत्री के ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ के नारे के बाद डॉ मीनू को उम्मीद जगी थी कि उनके केस में अब कोई फ़ैसला होगा इसके लिए उनके छात्रों(वह एक मेडिकल कॉलेज में पढ़ा रही थीं) ने कैम्पेन के तहत लगभग तीस हज़ार हस्ताक्षर प्रधानमंत्री को भेजा, पर वहाँ से भी कोई सुनवाई नहीं हुई।

कुछ नारे केवल कहने में ही आसान और अच्छे लगते हैं उनपर क्रियान्वयन करने की न ज़रूरत है न उत्साह। डॉ मीतू, जिन्हें डिफेंडर ऑफ बेबी ग़र्ल्स कहा जाता है कि हार्ट सर्जरी से जुड़ी कॉम्प्लिकेशन के कारण मृत्यु हो गई। करोड़ों बच्चियों का दर्द दिल में लिए हमारी एक हीरो हमसे विदा हो गईं। काश हमारा समाज और समय उनके इस अवदान को समझ सके और उनकी लड़ाई को अंज़ाम तक पहुंचा सके। विदा डॉ मीतू !

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यह लेख ममता सिंह ने लिखा है, जिसे इससे पहले चोखेरबाली में प्रकाशित किया जा चुका है।

तस्वीर साभार : change.org

Comments:

  1. Nidhi says:

    अच्छा और ज़रुरी लेख। शेयर करना बनता है। बस एक निवेदन है कि “कन्या भ्रूण हत्या” शब्द के बजाय नारीवादी विमर्श में स्वीकृत शब्द “सेक्स सेलेक्टिव अबार्शन” का प्रयोग किया जाए अन्यथा आने वाले समय में “अबार्शन” को “हत्या” बताते हुए तमाम कट्टर धार्मिक लोग औरतों के अबार्शन के अधिकार पर ही हल्ला बोल देंगे। जो हासिल किए गए अधिकारों को पीछे ढकेल देगा। अमरीका में हो रहा। अल्बामा में हो चुका। यहां होते देर नहीं लगेगी।

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