आपने शायद नांगेली का नाम तो सुना होगा! बहुत ज्यादा विस्तार से ना जाऊं तो नांगेली वह महिला थी जिसने अपने स्तन ढकने के लिए बड़ी लड़ाई लड़ी थी। 19वीं शताब्दी में छोटी जाति की महिलाओं ने अपने स्तन ढकने के लिए एक लड़ाई लड़ी थी क्योंकि उस समय उन महिलाओं को अपने स्तन ढकने के लिए स्तन कर (टैक्स) देना पड़ता था। नांगेली ने इससे तंग आकर अपने स्तन ही काट दिए थे और कर लेने आए अफसर के आगे पेश कर दिए थे, जिसके बाद नांगेली की जान चली गई लेकिन उनकी शहादत बेकार नहीं गई और आखिरकार स्तन कर हटाया गया। आज यहां इस वाकये को इसलिए साझा किया जा रहा है क्योंकि बॉम्बे हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है कि यदि कोई व्यक्ति छोटे बच्चों के स्तन को कपड़ों के ऊपर से छूता है तो वह मामला पोक्सो के तहत ‘यौन उत्पीड़न’ का गंभीर मामला नहीं होगा। चूंकि बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर पीठ की न्यायमूर्ति पुष्पा गनेडीवाला द्वारा दिए गए इस फ़ैसले के अनुसार यौन हमले का कृत्य माने जाने के लिए यौन मंशा से स्किन से स्किन का संपर्क होना ज़रूरी है। उनका ये आदेश 19 जनवरी को आया था। सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट के इस फैसले पर कल यानि बुधवार को स्टे लगा दिया है। उम्मीद है सज़ा और फैसला भी बदला जाएगा, फैसला और कड़ा होगा।
19वीं सदी से 21वीं सदी आ गया है लेकिन बदला क्या। पहले स्तन ढकने नहीं दिए जाते थे इसलिए महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा की कोई सुध नहीं लेता था। आज कपड़े पहनने का अधिकार तो मिला लेकिन महिलाओं के साथ यौन हिंसा होने पर भी उसे गंभीर नहीं समझा जा रहा जबकि इस देश की अधिकतर महिलाओं को इस तरह के अनुभव से जूझना पड़ता है। यदि बॉम्बे हाईकोर्ट की मानी जाए तो जो व्यक्ति सार्वजनिक या अकेले में भी किसी भी बच्ची को चलते-फिरते उनके स्तन को मसल दे, दबा दे, हाथ मार दे, उनकी जांघों और नितम्बों को दबोच ले तो भी वह यौन उत्पीड़न का गंभीर मामला नहीं माना जाएगा क्योंकि फै़सले के मुताबिक स्किन टू स्किन कॉन्टैक्ट नहीं हुआ, उनके बीच तो कपड़ा आ गया।
एनसीआरबी 2019 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में बलात्कार के कुल 31,755 मामले दर्ज किए गए, यानी औसतन प्रतिदिन 87 मामले। ऐसे में एक महिला जज की तरफ़ से इस तरह का फैसला आना उन महिलाओं के बल और साहस को कमज़ोर करेगा जो हिम्मत कर के अपने खिलाफ़ हो रहे गलत को गलत कहने का साहस रखती है।
और पढ़ें : चन्नार क्रांति : दलित महिलाओं की अपने ‘स्तन ढकने के अधिकार’ की लड़ाई
कोर्ट के इस आदेश के बाद बसों में, ट्रेन में या किसी भी सार्वजनिक स्थानों पर भीड़ की आड़ में यौन हिंसा करने वालों पर कोई बड़ी कार्रवाई नहीं होगी क्योंकि इस फैसले की नज़र में यह कौई यौन उत्पीड़न का गंभीर मामला नहीं है। उनके इस फैसले से यौन हिंसा करनेवालों को आज़ादी मिल जाएगी। जहां हमारे देश में लगातार बलात्कार जैसी घटनाएं दिन पर दिन बढ़ रही हैं, वहां इस तरह की खबरें और चौंकाने वाली होती हैं। एनसीआरबी 2019 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में बलात्कार के कुल 31,755 मामले दर्ज किए गए, यानी औसतन प्रतिदिन 87 मामले। ऐसे में एक महिला जज की तरफ़ से इस तरह का फैसला आना उन महिलाओं के बल और साहस को कमज़ोर करेगा जो हिम्मत कर के अपने खिलाफ़ हो रहे गलत को गलत कहने का साहस रखती हैं।
हमारे देश में महिलाओं पर वैसे ही झूठी इज़्ज़त और शान का बोझ इतना होता है कि वह या उनका परिवार गलत को गलत कहने से पहले ही कई बार सोचते हैं। अगर हिम्मत कर के बोल भी दिया तो इस तरह के फैसले से उन महिलाओं में और उनके परिवार में एक ये नया डर भी पैदा कर देगा कि फलाना व्यक्ति ने रास्ता रोका, चलते-फिरते छाती पर हाथ मारा, नितम्ब पर हाथ मारा, इन सब घटनाओं को वह यौन उत्पीड़न कैसे साबित करेगी क्योंकि इनमें तो त्वचा से त्वचा का छूअन तो हुआ नहीं है। या इस तरह की तमाम घटनाओं को उसे अब चुपचाप सहना पड़ेगा क्योंकि ये भी उसी की गलती मानी जाएगी कि उसे किसी ने बिना उसकी मर्जी, जोर-जबरदस्ती के छूआ तो सही लेकिन उसकी मंशा बलात्कार करने की नहीं थी, यौन उत्पीड़न की नहीं थी। अगर ऐसा होता तो वह उसके कपड़ो में हाथ डालता लेकिन फलाना व्यक्ति ने ऐसा किया नहीं इसलिए उसकी नीयत बहुत साफ थी और बेचारे ने कपड़ों के ऊपरे से ही किया जो करना था। इसमें भी शायद महिला की गलती होगी कि वो ऐसी छोटी घटनाओं को बड़ा बना रही है।
और पढ़ें : नंगेली का साहस और विरोध आज भी गूंजता है!
देश ही नहीं विदेशों में भी दिल्ली में साल 2012 में हुए गैंगरेप की खूब चर्चा हुई थी। देश के नौजवानों ने कसमें खाई थी, अब इस तरह की घटनाएं बर्दाश्त नहीं की जाएंगी। इसके लिए उन्होंने पुलिसवालों के कई डंडे भी खाएं, सर्दी में पानी की बौछारें झेली, आंसू गैस के आगे भी डटकर टिके रहे। कई सख्त कानून भी बनाए गए, कुछ नए कानून बने तो कुछ बनने से रह गए। लेकिन आख़िर में हुआ क्या।। धीरे-धीरे सब भूल गए। ऐसी घिनौनी और डरावनी घटनाएं आए दिन देखी जा रही हैं। एनसीआरबी हर साल अपनी रिपोर्ट पेश करती है जिसमें हमेशा ग्राफ ऊपर ही जाता है नीचे नहीं। जबकि ये केवल वही आंकड़ा है जिनका केस दर्ज हो पाता है। ऐसे हजारों केस हैं जो इज्जत और समाज के डर से पुलिस थाने तक तो दूर घर की दहलीज के बाहर भी नहीं निकल पाते, ऐसे कई केस हैं जो थाने तक अगर पहुंच भी जाते हैं तो उनका केस फाइल नहीं हो पाता है। जिस 12 साल की नाबालिग के साथ स्तन छूने वाली घटना हुई वो जैसे-तैसे अदालत तक पहुंच पाई होगी। इस केस के ज़रिए होना यह चाहिए था कि कानून को और सख्त किया जाता, अगर सख्त कानून है तो इस बात पर विचार किया जाता कि ऐसे अपराध दिन पर दिन क्यों बढ़ रहे हैं लेकिन हर बार की तरह दोषी को दोषी तो बताया गया लेकिन बिना तीन-पांच किए ये भी बता दिया कि उसकी मंशा क्या थी! सर्वाइवर की गलती ना होते हुए भी उसे एहसास करवा दिया गया कि तुम यहां तक पहुंची इसमें तुम्हारी ही गलती है।
खैर, ऐसा पहली बार तो हुआ नहीं है सदियों से यही होता आ रहा है। देश की आधी आबादी को हिस्सेदार तो बनाया गया लेकिन अपने अधिकारों को प्राप्त करने का हक़ अभी नहीं मिला, अपने लिए आवाज़ बुलंद करने पर दोषी भी खुद को ही बनना होगा। इसलिए लड़ाई लंबी है इस तरह के फैसलों से डरना नहीं बल्कि इनके ख़िलाफ़ आवाज़ और बुलंद करनी पड़ेगी ताकि आज नहीं तो कल ये दुनिया याद रखेगी कि केवल आधी आबादी का दर्ज़ा देने से कुछ नहीं होगा उनके लिए वह सहुलियत भी लानी होगी, जिनसे वो सदियों से वंचित हैं। इसका सकारात्मक परिणाम ये होगा कि इस तरह के कानूनों और फैसलों को बदलना होगा।
और पढ़ें : बाल यौन शोषण के मुद्दे पर है जागरूकता और संवेदनशीलता की कमी
तस्वीर साभार: DNA