शिवधाम कॉलोनी का सबसे ऊंचा हवेली जैसा मकान टंडन अंकल का था| और भला होता भी क्यों न? टंडन अंकल आईएएस और उनका बेटा आईपीएस जो थे| आंटी ने हिंदी से पीएचडी की थी और हाउसवाइफ थी| घर में सबसे छोटी थी उनकी बेटी- अंजली| आईआईटी एग्जाम में अंजली की टॉप फ़िफ्टी में रैंक थी| लेकिन इसके बावजूद उसका एडमिशन घर के पास वाले प्राइवेट कॉलेज में बीए के कोर्स में करवा दिया गया| इसपर टंडन आंटी अक्सर कहा करती कि “क्या करेगी इतना पढ़-लिखकर, घर में सभी तो है कमाने वाले| बस बीए के बाद अच्छे घर में शादी करवा देंगे, घर में बैठकर राज करेगी, बस|” आंटी, अंजली को हमेशा एक आदर्श-शाही बहु बनने के सभी गुण सीखाती रहती थी| इसे देखकर ऐसा लगता जैसे अंजली को उसकी अपनी पहचान से दूर समाज की गढ़ी लड़की होने की परिभाषा वाले सांचे में ढाला जा रहा हो|
यह कहानी उस जमाने की है, जब हम खुद को ‘वेल-एजुकेटेड-मॉडर्न एंड सिविलाइजड’ कहकर कभी टीवी के सामने अपने कान खड़े करके यूपीएससी टॉपर टीना डाबी का इंटरव्यू सुनते है, तो कभी ओलंपिक गेम में महिला-खिलाड़ियों के शानदार प्रदर्शन को देखने के लिए मोहल्ले-कॉलोनियों में बड़े परदे लगवाते है| महिलाओं के संदर्भ में हमारा समाज हमेशा सकारात्मक परिवर्तन का पक्षधर रहा है और इसकी शुरुआत की आश भी इसने निरंतर लगायी रखी है| पर दुर्भाग्यवश वह इसका आगाज पड़ोसी के घर से चाहता है| समाज की कथनी और करनी के बीच का फ़र्क समाज के उन दोहरे-मानकों को उजागर करता है, जिससे हम आधुनिकता की नकली खोल के नीचे संकीर्ण-पितृसत्तात्मक सोच को साफ़ देख सकते है|
महिलाओं के सन्दर्भ में सिमोन द बोउवार ने कहा था कि ‘महिला होती नहीं, बल्कि बनाई जाती है’| समाज में महिलाओं के इस निर्माण-कार्य और उनके हिस्से आती ‘असमानता’ का विश्लेषण किया जाए तो हम इसका एक प्रमुख कारक – ‘जेंडर की अवधारणा’ को पाते है|
जेंडर का ताल्लुक समाज में स्त्री-पुरुष के बीच गैर-बराबरी के आईने से है| यह अंग्रेजी के ‘सेक्स’ या हिंदी के ‘लिंग’ से अलग है| ‘सेक्स’ का संबंध महिला-पुरुष के बीच शारीरिक बनावट के फ़र्क से है| वहीं, ‘जेंडर’ का संबंध महिला-पुरुष के बीच सामाजिक तौर पर होने वाले फ़र्क से है| पितृसत्तात्मक समाज की संरचना जेंडर-विभेद पर आधारित होती है| जैसे – बेटे की चाह, कन्या-हत्या, स्त्री-पुरुष में भेदभाव व सामाजिक कामों में स्त्रियों का पुरुषों से नीचे का दर्जा| जेंडर हमें इन सभी सामाजिक-भेदभाव को समझने का नजरिया देता है| सरल शब्दों में कहा जाए तो यह एक इनफार्मेशन है, जो ज्ञान के रास्ते से होकर गुजरता है और हमें समाज में सोचने समझने का नजरिया देता है|
यह सत्य है कि स्त्री-पुरुष दोनों ही जैविक संरचना है| पर इनकी पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक व राजैनैतिक भूमिका का निर्धारण ‘जेंडर’ करता है| जेंडर, अस्मिता की पहचान का सबसे मूक घटक है जो हमें स्त्री व पुरुष की निर्धारित सीमा को परिभाषित करने और दुनिया को देखने के नजरिए की नाटकीय भूमिका को बताता है। यह केवल लिंगों के बीच के अंतर को नहीं बताता बल्कि सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक स्तर पर सत्ता से इसके संबंध को भी परिभाषित करता है|
ब्रिटिश समाजशास्त्री व नारीवादी लेखिका ऐना ओक्ले के अनुसार ‘जेंडर’ सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना है, जो स्त्रीत्व और पुरुषत्व के गुणों को गढ़ने के सामाजिक नियम व कानूनों का निर्धारण करता है। उनका मानना था कि जेंडर समाज-निर्मित है, जिसमें व्यक्ति की पहचान गौण होती है और समाज की भूमिका मुख्य।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, जैविक बनावट और संस्कृति के अंतरसंबंधों की समझ को अगर हम जेंडर पर लागू करें तो निष्कर्ष यही निकलता है कि महिलाओं के शरीर की बनावट भी सामाजिक बंधनों और सौन्दर्य के मानकों द्वारा निर्धारित की गई है। शरीर का स्वरूप जितना ‘प्रकृति’ से निर्धारित हुआ है उतना ही ‘संस्कृति’ से भी। इस प्रकार महिलाओं की मौजूदा अधीनता, उनकी जैविक असमानता से पैदा नहीं होती है बल्कि यह समाज में उनपर केंद्रित सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों और संस्थाओं की ही देन है|
जेंडर की अपनी कोई मुकम्मल परिभाषा नहीं है| कुछ विद्वानों ने इसे भाषा के संदर्भ में देखा तो कुछ ने सामाजिक संदर्भों में| इसके अतिरिक्त जेंडर को इतिहास, संस्कृति, प्रकृति, सेक्स और सत्ता से जोड़कर भी देखनें व समझने का प्रयास किया गया। स्त्री के संदर्भ में हमेशा से यह माना गया है कि वह एक ‘ऑब्जेक्ट’ है|
हिंदी-प्रसिद्ध लेखिका महादेवी वर्मा लिखती हैं – “स्त्री न घर का अलंकार मात्र बनकर जीवित रहना चाहती है, न देवता की मूर्ति बनकर प्राण प्रतिष्ठा चाहती है। स्त्री और पुरुष, शरीर के केवल एक गुणसूत्र के अलग होने मात्र से हम स्त्री के व्यक्तित्व को पूर्णतः पुरुष से अलग कर देते हैं| जबकि ऐसा नहीं है यह शारीरिक संरचना भर है|”
समाज में स्त्री को हमेशा उन्ही अपराधों के लिए सजा दी जाती है, जिसकी जिम्मेदार वह खुद नहीं होती है। उसका स्त्री होना उसका नहीं, बल्कि सत्ता, समाज और संस्कृति की परवरिश रही है और उस परवरिश से उभरे गुण उसकी सीमा रेखा। जिसने जाने-अनजाने में उसे स्वयं के प्रति ही अपराधी बना दिया। फिर वह अपराध उसका सौंदर्य, शीलभंग, अवैध गर्भधारण व गर्भ में पुत्री की माँ होना ही क्यों ना हो, जिसने समाज के समक्ष उसे उपेक्षित व हास्यास्पद बनाया है।
यह सत्ता और समाज ही है जिसने हमें सिखाया कि लड़कियाँ नाजुक होती है, इसलिए उन्हें गुड़ियों से खेलना चाहिए और लड़के शक्तिशाली होते है, इसलिए उन्हें क्रिकेट और कब्बडी जैसे खेल खेलने चाहिए| इस तरह हम ‘शक्ति’ के इस तथाकथित पैमाने को अपनाने लगते है। जेंडर व्यवहार मूलक समाज-निर्मित है| इसमें केवल स्त्री ही शामिल नहीं है, बल्कि वह भी शामिल है जो मान्य लिंगों से अलग है, जिनमें पुरुष और स्त्री के समलैंगिक संबंध व उसमें आई जटिलताएँ भी शामिल हैं।
Also read in English: Gender: A Figment of Social Imagination