एक भरी-पूरी जिंदगी तजुर्बों से बनती है और ये तजुर्बे अच्छे-बुरे अनुभवों से हासिल होते हैं। अनुभवों का ताल्लुक कभी नसीहतों से होता है, तो कभी शिकायतों से। महिलाओं के संदर्भ में जब कभी सोचती हूं, तो न जाने क्यों समाज की बनाई हुई स्त्री होने की इमारत और इसकी हर एक र्इंट, नसीहतों और शिकायतों में गुंथी दिखाई पड़ती है। जो महिलाएं इन्हें स्वीकार कर जिंदगी का फलसफा बना लेती हैं, उन पर एक अच्छी मां, बहन, बेटी, पत्नी और तमाम रिश्तों वाली ‘महिला’ का आजीवन रहने वाला प्लास्टिक पेंट चढ़ा दिया है। और जिन्हें इन नसीहतों को जिंदगी का कायदा बनाना गवारा नहीं होता, उन्हें बिगडैल, बदतमीज और बेहया बताने की समाज की सोच वाले चूने से समय-समय पर रंगाई की जाती है।
इन नसीहतों और शिकायतों का सिलसिला लड़कियों के बचपन से शुरू होता हुआ आजीवन चलता रहता है। इस दौरान अक्सर हम समाज के एक ही पहलू के कई रूप देखते हैं, जिससे हमारी जिंदगी भी कहीं न कहीं उन चंद पहलुओं तक सीमित होती जाती है।
अब जरा इन नसीहतों पर गौर कीजिए-
-‘सुनो! किसी को बताना मत कि तुम्हें पीरियड्स शुरू हो गए हैं।’- एक मां अपनी 10-12 साल की बेटी को किसी कोने में ले जाकर यह कहती है।
-‘तुम्हें समझ में नहीं आता कि घर में आदमी लोग रहते है और तुम ब्रा ऐसे खुले में सूखने डाल देती हो’ – उलाहना मां का अपनी 13-14 साल की बेटी के लिए।
-‘तुम्हारी ब्रा की स्ट्रेप दिख रही है’ – इशारे में सहेली की नसीहत।
-‘जब दुपट्टा गले में ही लपेटना है तो क्या मतलब दुप्पटा लेने का?’- शिकायत एक मां की।
-‘लड़की की फोटो साड़ी में ही भेजिएगा। हमें अपने बेटे के लिए सुशील, गोरी, खूबसूरत, पढ़ी-लिखी लेकिन घरेलू लड़की चाहिए।’ – लड़कों वालों की डिमांड वाली नसीहतें।
देह के भूगोल से ऊपर उठो
दरअसल, ऐसी शिकायतों और नसीहतों की लंबी फेहरिस्त है। अगर उनका जिक्र शुरू किया जाए, तो न जाने कितनी किताबें लिखी जा सकती हैं इन पर। इन सभी नसीहतों में यह गौरतलब है कि इनका सीधा ताल्लुक महिलाओं की काया से है। चाहे वह मेंस्ट्रुअल (मासिक-धर्म) हो, स्तन हो या उनकी सूरत हो। इन बातों के जिक्र से यह संभव है कि आप परेशान हो जाएं। और सच कहूं तो मैं भी परेशान हो चुकी हूं इन लाइनों से कि ‘घर की इज्जत हो’, ‘घर बसाना और चलाना है’ और ‘लड़कियां तो देवी स्वरूप होती हैं’ वगैरह-वगैरह।
नि:संदेह लड़कियों की शारीरिक संरचना लड़कों से अलग होती है। इसीलिए वो ‘लड़के’ और हम ‘लड़की’ कहलाती हैं, लेकिन दुर्भाग्यवश लड़कियों को समाज में सिर्फ लड़की या एक जिस्म भर समझा जाता है, इंसान नहीं। पुरुष उनके देह के भूगोल से कभी ऊपर उठ नहीं पाते। शायद यही वजह है कि औरतों के हर एक अंग से समाज की इज्जत के तार बेहद सहजता और दृढ़ता से जोड़ दिए गए हैं। इसके पीछे सिर्फ यही साजिश है कि बेटी घर की चौखट लांघ न पाए।
अगर बात की जाए मासिक-धर्म की, तो कहा जाता है कि सेनेटरी नैपकिन देख कर लड़कों को शर्म आती है। क्या ब्रा की स्ट्रेप देख कर भी लड़के शरमा जाते हैं? जी नहीं…..इन्हें देख कर उनकी सेक्सुअल डिजायर्स (यौन इच्छा) जाग जाती हैं और अक्सर ये ‘शर्मीले लड़के’ बलात्कार जैसी यौन हिंसा को अंजाम देते हैं। जिसकी वजह से लड़कियों को न केवल अपने शरीर बल्कि अपने विचारों को भी कपड़ों में ढक कर-कस कर रखना पड़ता है।
चुन्नी रखने से स्तन मिट तो नहीं जाते है?
कुछ समय पहले एक्ट्रेस सलोनी चोपड़ा ने सोशल मीडिया में महिला-संबंधित इन्हीं मुद्दों को केंद्रित करते हुए लिखा कि ‘जिंदगी एक ब्रा की तरह है।’ महिलाओं को अपनी सेक्¬सुअलिटी (यौनिकता) को लेकर और ज्यादा ओपन होने की जरूरत है। जिस भी बेतुके शख्स ने यह फैसला किया कि पुरुष बिना शर्ट के सीना ताने इधर-उधर छुट्टा घूम सकते हैं, लेकिन लड़कियां अपने ब्रा में भी नहीं नजर आ सकतीं, ऐसे लोगों ने निश्चित तौर पर स्त्री-परुष समानता और महिला अधिकारों को ठेस पहुंचाई है।
क्या आपको पता है कि अब भी ऐसे कई लोग हैं, जिन्हें महिलाओं की ब्रा की स्ट्रेप नजर आने भर से समस्या है? लोगों को यह पसंद नहीं आता, जब आपकी टॉप से या ब्लाउज से ब्रा की शेप नजर आती है। क्या ऐसा वे अपनी मां और बहन के लिबास के पीछे भी वही देखते हैं जो उन्हें बाहर की लड़कियों में दिखता है? भाई, चुन्नी या चोली के पीछे मां या बहन भी तो होती है!
मैं ऐसे बीमार लोगों से मिली हूं। आप यकीन नहीं सकते कि वे किस कदर संकरी सोच से प्रभावित हैं, जब आप उनसे पहली बार मिलते हैं। वे सामान्य ही नजर आते हैं। वे शुरुआत में आपको अच्छा महसूस कराते हैं। ये वही लोग हैं जो इन्स्टाग्राम पर बोल्ड मॉडल्स को फॉलो करते हैं और मोबाइल में पोर्न रखते हैं। वे बेहद खुले विचार वाले लोगों की तरह पेश आते हैं। ऐसे लोग आपसे फेमिनिज्¬म और ग्¬लोबल वॉर्मिंग पर बातें करते हैं। और यकीन मानिए कि वे सबसे पहले ब्रा की स्¬ट्रेप देख कर ही उत्तेजित हो जाते हैं। लानत है इन पर।‘
वाकई यह बात समझ से परे है कि जब सबको यह मालूम है कि हर औरत के ब्रेस्ट होते है। चाहे टॉप पहनो या सूट पहनो या फिर साड़ी पहनो। चाहे चुन्नी से ढक दो या लोहे के कवर चढ़वा दो उन पर। रहेंगे वैसे ही अपनी जगह, तो फिर छाती पर चुन्नी डालने के लिए क्यों कहा जाता है? क्यों ब्रा को सुखाने के लिए किसी और कपड़े से उसे ढकना पड़ता है? स्तन होना कोई बुरी बात तो नहीं? प्रकृति ने नारी को इससे संपूर्ण बनाया है। यह भी उसकी काया का अहम हिस्सा हैं। या हम अपनी लड़कियों को बताना चाहते हैं कि उनके सूट से उभरती चीज अच्छी नहीं है। इसे ढकने की जरूरत है। इस बात को समझने में कितना समय लगेगा कि औरतों के स्तन चुन्नी ओढ़ लेने भर से मिट नहीं जाते? इसी स्तन से दूध पीकर बच्चा पुरुष बनता है। यह नारीत्व ही नहीं मातृत्व की भी पहचान है, यह हमारा समाज क्यों भूल जाता है?
आंचल से बांध दिया गया ‘इज्जत’ का पत्थर
अब आते हैं बेटे की शादी करने जा रहे परिवार की सोच पर। साफ शब्दों में माड़ी चढ़े कड़ी पगड़ी वाले यानी लड़के के पिता, माड़ी के बावजूद झुकी पगड़ी वाले यानी लड़की के पिता से कहते है हमें सुंदर, सुशील, गोरी मगर घरेलू लड़की चाहिए। लेकिन गौर करें तो ‘घरेलू’ शब्द पर हमेशा उनका जोर रहता है। सवाल यह है कि घरेलू होने की परिभाषा क्या है? जो घर में रहे और घर संभाले वो ‘घरेलू?’ तो उस लड़की को आप क्या कहेंगे….जो बाहर कमाए और घर भी संभाले?
महिलाओं की शिक्षा और आर्थिक आजादी बहुत ही बुनियादी चीजें हैं। ये अधिकार भी उन्हें कोई समाज की दया-भीख में नहीं मिले हैं। उन्हें लड़ना पड़ा है खुद के लिए और उनका साथ दिया है ईश्वर चंद्र विद्यासागर, राजा राम मोहन राय और ज्योतिबा फुले जैसे पुरुषों ने। ऐसे में यह वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस देश का इतिहास इतना समृद्ध रहा और उसने समाज में महिलाओं के हक में सफल लड़ाई भी लड़ी, उस देश में आज भी ‘इज्जत’ शब्द का प्रयोग महिलाओं के आंचल में बांध कर उन्हें आगे बढ़ने से रोकने में किया जाता है।
ऐसी सूरत में सलोनी की बात बेहद सटीक लगती है कि “जिंदगी एक ब्रा की तरह हैl” जिसमें न जाने कितनी बुराइयां ढकी हुई है। और जब आज के दौर की युवतियां उन्हें उघाड़ती है, तो समाज को शर्म अती है। तो क्यों न इस समाज को शर्मिंदा होने पर ही मजबूर किया जाए। सच में शर्म हमें नहीं, उन्हें आनी चाहिए।
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