“शालीन महिलाओं को रात में नौ बजे घर से बाहर नहीं घूमना चाहिए| बलात्कार के लिए लड़की लड़के से ज़्यादा जिम्मेदार होती है| लड़का और लड़की बराबर नहीं हैं| लड़की को घर का काम करना चाहिए, न कि रात को डिस्को या बार में जाकर गलत काम करने और ख़राब कपड़े पहनने चाहिए|” यह कहना था दिल्ली गैंगरेप केस (2012) के एक दोषी मुकेश सिंह का| वह आगे कहता है कि अगर बलात्कार के दौरान “लड़की ने पूरी ताकत से इसका विरोध न किया होता और चुप रहती तो उसके साथ हिंसा न होती|”
इससे पहले प्रसारित टीवी इंटरव्यू में वकील एपी सिंह ने कहा, “अगर मेरी बेटी या बहन शादी से पहले किसी के साथ संबंध रखती है या ऐसा कोई काम करती है जिससे उसके चरित्र पर आंच आती है तो मैं उसे अपने फ़ार्महाउस ले जाकर पेट्रोल छिड़ककर पूरे परिवार के सामने जला दूंगा|”
दूसरे वकील एमएल शर्मा ने कहा – “हमारे समाज में हम लड़कियां को किसी अनजान व्यक्ति के साथ शाम 7:30 या 8:30 के बाद घर से बाहर नहीं निकलती हैं, और आप लड़के और लड़की की दोस्ती की बात करती हैं? सॉरी, हमारे समाज में ऐसा नहीं होता है| हमारी कल्चर बेस्ट है| हमारी कल्चर में महिला की कोई जगह नहीं है|”
इन दोनों बयानों से यह समझना तनिक भी मुश्किल नहीं कि हमारे समाज में खुद को पढ़े-लिखे कहने वाले और अनपढ़ लोगों की सोच में कितना फ़र्क है या उनकी सोच के दायरे कितने बड़े-छोटे है| साल 2012 में निर्भया गैंगरेप के बाद देश में एक ऐसा आन्दोलन खड़ा हुआ जिसने दिल्ली की सत्ता का तख्ता पलट कर दिया| समय बीतता गया| सरकारें तो बदल गयी लेकिन इससे महिलाओं के खिलाफ़ होती हिसांत्मक घटनाओं का सिलसिला कहीं नहीं थमा| हाल में ही, नए साल के जश्न में डूबे बंगलुर शहर में सरेआम महिलाओं के साथ हुई सामूहिक छेड़छाड़ की घटना इस बात का जीवंत उदाहरण है| अब बात चाहे पिछले साल हुए जाट विरोध प्रदर्शन में महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना हो या फिर सेना द्वारा मनोरमा रेप केस हो, घटनाओं के नाम बदल जाते है लेकिन उनका मूल बेहद निर्धारित व सीमित होता है|
हमारे समाज ने इस समस्या से निबटने के लिए बरसों से सुरक्षा के नाम पर महिलाओं को घर में या यूँ कहे कि खुद से निर्धारित सीमित दायरे में रहने को एकमात्र उपाय माना है|
‘चरित्र’ व ‘सभ्यता’ के नाम पर महिलाओं की भागीदारी सार्वजनिक स्थलों पर रोकने और ऐसी घटनाओं के बाद पीड़िता को दोष देने की बजाय सशक्त रूप में खड़े होने की दिशा में बीते शनिवार (21 जनवरी 2017) को #IWillGoOut आन्दोलन का आगाज़ किया गया| बिना किसी नेतृत्व का यह आन्दोलन आवाज़ बना हर उस महिला के लिए जिसके बढ़ते कदम यह समाज उनकी सुरक्षा के नाम पर रोकता आया है या रोकना चाहता है|
क्यों है ये #IWillGoOut?
21 जनवरी 2017 को इस आन्दोलन का आगाज़ विभिन्न देशों के 20 संगठनों द्वारा 20 शहरों में किया गया| गौरतलब है #IWillGoOut का शाब्दिक अर्थ –
‘I’ – का तात्पर्य है, खुद के लिए महिलाओं की आवाज़ बुलंद करने से| जहां वे खुद अपने व्यवहार, कपड़े, कार्यों एवं समय का फ़ैसला ले सके|
‘Will’ – का तात्पर्य ‘शर्म व आत्मग्लानि के भाव से हटकर पीड़ित महिलाओं के विरोध से है|’ जिससे वे अपने साथ हुई किसी भी तरह की हिंसात्मक घटना के विरोध में अपनी आवाज़ उठा सके|
‘GoOut’ – का तात्पर्य ‘महिलाओं की भागीदारी से है|’ फिर वह चाहे सड़क हो या संसद| अपने कामों के लिए देर रात बाहर जाने की बात हो या फिर अपने पसंदीदा कपड़े पहनने की बात हो| हिंसा के डर से किसी भी क्षेत्र से पीछे हटने के खिलाफ़ वहां डटे रहना है|
#IWillGoOut के उद्देश्य
- सार्वजनिक जगहों में न केवल महिलाओं की आज़ादी बल्कि अपने रास्ते खुद चुनने की भी आज़ादी होनी चाहिए| साथ ही, समाज में यह संदेश देना कि ‘हिंसा के डर’ से उनके बढ़ते कदम नहीं रोके जाने चाहिए|
- बंगलुर-घटना के बाद कुछ मर्दों के द्वारा सोशल मीडिया में #NotAllMen नामक एक मुहीम चलाई गई थी, जिसका उद्देश्य था समाज में पुरुषों के प्रति इस धारणा को बदलना कि ‘हर मर्द महिला-विरोधी नहीं होता|’ यह आन्दोलन ऐसे ही मर्दों के लिए है जो कि किसी भी पीड़िता पर दोषारोपण करने के बजाय खुद उनके साथ खड़े होकर अपनी मुहीम को साबित करने की दिशा में आगे बढ़े|
- अपने देश में कई रिपोर्टों से यह पता चला कि अधिकतर लड़कियों को उनके मासिकधर्म शुरू होते ही उन्हें स्कूल नहीं जाने दिया जाता, जिससे वह न केवल कई तरह की हिंसाओं का शिकार बन जाती है बल्कि शिक्षा के अभाव में उन्हें कई तरह की शारीरिक समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है| यह आन्दोलन ऐसे कुतर्कों से बनी बेड़ियों से जकड़ी गई महिलाओं को आज़ादी दिलाने की शुरुआत है|
- समाज में महिलाओं के खिलाफ़ किसी भी हिंसा को रोकने का उपचार महिलाओं के बढ़ते कदम रोककर ही किया जाता रहा है| कभी ‘हिंसा के डर के नाम पर’ तो कभी ‘सभ्यता और संस्कृति के नाम पर|’ कहते है बुराई तब नहीं बढ़ती जब बुरे लोग बढ़ते है| इसके विपरीत, बुराई तब बढ़ती है जब अच्छे लोग कम होने लगते है| इसी तर्ज पर, यह आन्दोलन भी समर्थन करता है महिला के विरुद्ध होने वाली किसी भी हिंसा के खिलाफ़ महिलाओं के आगे बढ़ने का|
और गूंज उठे उत्तर प्रदेश में ‘मैं भी बाहर जाउंगी’ के नारे
सरहदों से परे विश्व्यापी स्तर पर #IWillGoOut आन्दोलन में करोड़ों महिलाओं ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया| इस आन्दोलन से उत्तर प्रदेश भी अछूता नहीं रहा और महिलाओं ने बीते शनिवार (21 जनवरी 2017) को शाम पांच बजे से लखनऊ के गोमतीनगर में एकजुट होकर अपने विरुद्ध होने वाली हिंसा के खिलाफ़ अपना विरोध प्रकट किया| ‘क्योंकि दिन ही नहीं, ये रात भी है हमारी’ और ‘ मैं हूं आज़ाद, लंबी है रात, मैं क्यों घर आऊं, बजे है अभी सात’ जैसे नारों व पोस्टर के ज़रिए महिलाओं ने अपनी मांगों को प्रदर्शित किया|
#IWillGoOut बयान है
‘सम्मान की प्राचीन धारणाओं की निंदा करते हुए एकजुटता का|’ यह जनांदोलन खिलाफ़ है ‘महिलाओं को सार्वजनिक स्थलों से ‘चरित्र’, ‘सभ्यता’, ‘संस्कृति’ और ‘सुरक्षा’ के नाम का लबादा ओढ़ाकर घर की चारहदीवारी में सीमित करने की सोच के|
यह महिलाओं की एक ऐसी एकजुट आवाज़ है जो खिलाफ़ है उस संस्कृति की जिसे एतराज़ है महिलाओं के – दुपट्टे न लेने से, जींस पहनने से, मोबाइल फ़ोन इस्तेमाल करने से, हँसकर बात करने से, हिंसा के खिलाफ़ आवाज़ उठाने से और अँधेरे होने के बाद घर से बाहर रहने से|