जब भी स्त्री विमर्श की बात होती है तो उसके केंद्र में आज भी मध्यवर्गीय स्त्री का जिक्र होता है| इसकी एक बड़ी वजह साहित्यकारों और विमर्शकारों का खुद मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से जुड़ा हुआ होना है| लेकिन इसे सिर्फ इसी रूप में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता है| इसके पीछे एक ऐसी मानसिकता है जो उपनिवेशी दौर से ही भारतीय महिलाओं की छवि गढ़ने और उसे उनके प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत करने से जुड़ी है|
स्त्री-मुक्ति की अवधारणा पर जब भी चर्चा होती है तो पूरी बहस आकर मध्यवर्गीय स्त्री पर केन्द्रित हो जाती है जहां मध्यवर्गीय स्त्री का पूरा संघर्ष दैहिक स्वतंत्रता से लेकर आर्थिक स्वतंत्रता तक सिमटा हुआ है| अभी भी इस बहस के केंद्र में वह स्त्री नहीं होती है जो परंपरागत रूप से आत्मनिर्भर है और अपनी यौनिकता और स्त्रीत्व को लेकर किसी तरह के भ्रम में नहीं जीती है या यों कहें कि उनकी मानसिकता इस रूप में देह के महिमामंडन और यौन शुचिता की गुलाम नहीं है, जिस रूप में मध्यवर्गीय स्त्री की है|
भारत में अभी भी ऐसी स्त्रियों की संख्या मध्यवर्गीय स्त्रियों से अधिक है| इसके बावजूद वह स्त्री विमर्श के हाशिये पर है| उन्हें केंद्र में रखकर किसी वैचारिक बहस में कोई परिचर्चा नहीं होती| उनका उल्लेख अभी भी स्त्री-विमर्श के पन्ने पर हाशिये पर ही होता है| इस मुद्दे पर थोड़ी बहुत उम्मीद दलित स्त्री विमर्श से है क्योंकि वहाँ ऐसी स्त्रियों के संघर्ष को महत्त्व देने का अवकाश ज्यादा है पर पिछले दिनों कुछ सेमिनारों में जाने पर मुझे वहाँ भी इस मुद्दे पर निराशा ही हाथ लगी| वहाँ भी केंद्र में वही पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ विमर्श की मुख्य चरित्र हैं जो सवर्ण मध्यवर्गीय स्त्री की तरह अपनी आत्मनिर्भरता और यौन शुचिता से जूझ रही हैं|
सवाल स्त्री विमर्श के कैरेक्टर का
सवाल सिर्फ ऐसी स्त्रियों को विमर्श के केंद्र में रखने को लेकर ही नहीं है| सवाल इस तरह के किसी भी विमर्श के पूरे कैरेक्टर को लेकर है| स्त्री-विमर्श का एक स्तर निश्चित तौर पर ऐसी स्त्रियों से जुड़ा हुआ होना चाहिए इसके बावजूद जब भारत की सामाजिक संरचना बहुस्तरीय है तो इस परिस्थिति में कोई विमर्श एक स्तरीय कैसे हो सकता है? उन सभी स्तरों का प्रतिनिधित्त्व इन विमर्शों में भी दिखाई देना चाहिए| आज हमारे समाज का एक वर्ग इस स्तर तक पहुँच गया है कि सूलेमिथ फायरस्टोन जैसी विचारकों के अनुसार संतान का दायित्व टेस्ट-ट्यूब को सौंपकर स्त्री-मुक्ति की अवधारणा को विकसित करने में सक्षम और सक्रिय है| इसके बावजूद अभी भी भारत में बड़ा वर्ग उन स्त्रियों का है जिनके जीवन का अनिवार्य हिस्सा मातृत्व है और वह इसे स्त्री-पराधीनता की वजह न मानते हुए जीवन का स्वाभाविक अंग मानने की पक्षधर हैं|
मध्यवर्गीय स्त्री का पूरा संघर्ष दैहिक स्वतंत्रता से लेकर आर्थिक स्वतंत्रता तक सिमटा हुआ है|
स्त्री-विमर्शकारों का दायित्व
अगर एक वर्ग जर्मेन ग्रीयर के आनंद-सिद्धांत या केट मिलेट जैसी विचारकों के अनुसार अपने बच्चों को टीचर के भरोसे छोड़ने में समर्थ है तो वहीं समाज का बड़ा वर्ग उन स्त्रियों का भी है जिनके लिए बच्चों का पालन-पोषण जीवनचर्या का सामान्य हिस्सा है| इसे एक स्तर पर आर्थिक आधार पर व्याख्यायित किया जा सकता है तो दूसरे स्तर पर इसकी भावनात्मक व्याख्या भी की जा सकती है| इन सामाजिक परिस्थितियों में स्त्री विमर्शकारों का यह दायित्व बनता है कि विमर्श के घेरे में इन दोनों वर्गों को समान रूप से महत्त्व देने का प्रयास करें क्योंकि वास्तव में स्त्रियों का संघर्ष मूलतः यौनिक-स्वतंत्रता की अपेक्षा लैंगिक समानता के लिए है|
शोषित जाति की वो आत्मनिर्भर स्त्रियाँ
बात की जाए भारतीय परिप्रेक्ष्य की तो परम्परागत रूप से आत्मनिर्भर स्त्रियों को स्त्री विमर्श की अगली पंक्ति में रखा जाना चाहिए था लेकिन भारतीय समाज में कुछ परम्परागत व्यवसायों को लेकर जो पूर्वाग्रह और भेद दृष्टि है वह इसमें सर्वाधिक बाधक हुई| अधिकतर आत्मनिर्भर स्त्रियों का सम्बन्ध भारतीय सामाजिक संरचना में शोषित जातियों से रहा है| इन जातियों को भारतीय इतिहास में कभी भी मुख्यधारा में जगह नहीं दी गई, हांलाकि भारतीय समाज में जो भी सार्थक और मानवीय परिवर्तन हुए हैं उन सभी में ये जातियां हिरावल दस्ते की भूमिका में रही हैं| उन्नीसवीं सदी में जब एक ओर सवर्ण मध्यवर्गीय स्त्री की भारतीय छवि अंतर्राष्ट्रीय पटल पर गढ़ी जा रही थी वहीं दूसरी ओर रमाबाई जैसी विचारक स्त्रियाँ, स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को सुधारने का पहला चरण आत्मनिर्भरता के क्रम में इन्हीं निम्न-वर्गीय और शोषित जाती से आनेवाली स्त्रियों का उल्लेख कर रही थीं|
स्त्री की राष्ट्रवादी छवि हमारा इतिहास या हमारी विरासत नहीं है|
भारत माता की छवि में बंधने को मजबूर स्त्रियाँ
आत्मनिर्भरता और शिक्षा का अधिकार स्त्रियों की सामाजिक लड़ाई के पहले सोपान हैं| उन्नीसवीं सदी के सुधारवादियों ने भी सबसे ज्यादा जोर इन्हीं दो मुद्दों पर दिया गया था, लेकिन उस समय की ज्यादातर पहल किसी न किसी तरह धर्म से जुड़ी हुई थी| कभी हिन्दू पुनरुत्थानवादियों के लिए तो कभी ईसाई मिशनरियों और विक्टोरियन नैतिकता के लिए| वैसी हालत में निश्चित तौर पर स्त्रियों की दशा के सुधार का सम्बन्ध राष्ट्रवादी भारत माता की छवि में बंधने के लिए विवश था| स्त्री की इस राष्ट्रवादी आख्यान के कई प्रत्याख्यान भी उस दौर और उसके बाद के इतिहास में दर्ज हैं, लेकिन उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद के मिश्रण से जिस सवर्ण मध्यवर्गीय स्त्री की नैतिक छवि को गढ़ा गया और उसे जिस तरह से प्रचारित किया गया वह बीसवीं सदी के स्त्री-विमर्श को विरासत के रूप में मिला| इससे कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि स्त्री की राष्ट्रवादी छवि हमारा इतिहास या हमारी विरासत नहीं है| जितना बड़ा सच भारतीय स्त्री का यह इतिहास है उतना ही बड़ा सच उसका यह वर्तमान भी है कि आज के स्त्री विमर्श में हम उस राष्ट्रवादी स्त्री की छवि को दैहिक और यौनिक स्तर पर तो तोड़ने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं लेकिन आर्थिक और अन्य सामाजिक स्तरों पर उसे तोड़ने का बहुत अधिक प्रयास नहीं हो रहा है|
वर्ग मध्यमवर्गीय और कामगार स्त्रियाँ का
बीसवीं सदी के शुरूआती दशकों में स्त्री-आन्दोलन और सुधारवादी दृष्टिकोण जिस दोराहे पर खड़ा था वह आज के स्त्री-विमर्श में भी कई बार उन्हीं मुद्दों के साथ दिखाई देता है| जैविक संरचना के आधार पर लैंगिक भेद को सही मानने और गलत मानने का भी मूल वर्गीय आधार से ही नाभिनाल सम्बद्ध है| एक तरफ तो स्त्री का राष्ट्रवादी चरित्र था, जिसमें स्त्री की मुख्य भूमिका माँ और उससे थोड़ा आगे बढ़ी हुई मध्यवर्गीय स्त्री के सुधारवादी रूप में थी| दूसरी तरफ श्रमिक और कामगार वर्ग की वह स्त्री थी जो आत्मनिर्भरता के स्तर पर किसी सुधारवादी रवैये की मोहताज न होकर परम्परागत तौर पर आत्मनिर्भर और कई बार परिवार के पोषक की भूमिका में थी| इस कामगार वर्ग की स्त्री का सबसे बड़ा संघर्ष अपने उन अधिकारों की मांग से जुड़ा है जो उनके लिए समान सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां उपलब्ध करवाएं| यह स्त्री अपने यौनिक स्वतंत्रता की बजाय लैंगिक समानता के लिए संघर्षरत है|
जैविक संरचना के आधार पर लैंगिक भेद को सही मानने और गलत मानने का भी मूल वर्गीय आधार से ही नाभिनाल सम्बद्ध है|
स्त्री विमर्श की उपेक्षित कामगार स्त्रियाँ
हिंदी के स्त्री-विमर्श में पहले वर्ग की स्त्री की छवि कुछ परिष्कृत रूप में जहाँ वह कुछ मामलों में आर्थिक स्वतंत्रता हासिल कर चुकी है और दैहिक स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत है| यह अपने कई पहलुओं के साथ मौजूद रहती है लेकिन दूसरे वर्ग की स्त्री की परिस्थितियां अभी भी उपेक्षित हैं| वास्तव में इस दूसरे वर्ग की हालत उस समय से अधिक आगे नहीं बढ़ पाई है जिसकी मांग ‘नेशनल काउन्सिल ऑफ़ वीमेन इन इण्डिया’ और ‘वीमेंस इंडियन एसोसिएशन’ जैसे संगठनों ने बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशकों में उठाई गई थी|
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सन्दर्भ सूची-
- हिन्दू स्त्री का जीवन- पं. रमाबाई; संवाद प्रकाशन, मेरठ पृ. 90
- नारी का अवतरण- एलीन मारगन; संवाद प्रकाशन, मेरठ पृ. 225
- वही, पृ. 225-226
- वही, पृ. 226