‘फूल गेंदवा के ना मारो लागत जोबनवा मे चोट हो’ ये बोल है एक तवायफ़ के है| जी हाँ, ‘तवायफ़’ क्योंकि उस दौर में नाच-गाने से ताल्लुक रखने वाली औरत को इसी नाम से जाना जाता था, जिन्हें हमारा समाज गिरी हुई नज़रों से देखता था| हाँ ये अलग बात है कि समाज अपनी हर खुशियों की महफिल सजाने के लिए तलाश सिर्फ इन्हीं तवायफों की करता था|
बनारसी ठुमरी के बोल ‘फूल गेंदवा…..!’ के ज़रिए हम बात कर रहे है लोक कला पूर्वी अंग की प्रसिद्ध गायिका रसूलन बाई की| पूर्वी अंग, जिसमें कजली, चैती, ठुमरी, ठप्पा, होरी और सावनी जैसे लोक गीत है| उत्तर प्रदेश, बिहार और राँची के गाँवों का गवई उल्लास हैं| लोक कला एक तरह से देखा जाए तो लोक जीवन के सुख दुःख, हर्षोल्लास, विषाद, मैत्री, बिछोह और मिलन की अनगिनत कहानियों और लोगों के जीवन का चित्रण है| करीब पचास-साठ साल पहले लोक-कला समाज में संचार का भी एक प्रमुख साधन था और महिलाओं के लिए अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम भी था|
साल 1902 में कछवा बाज़ार, मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) के एक गरीब मुस्लिम परिवार में जन्मी रसूलन को अपनी माँ के ज़रिए संगीत की विरासत मिली थी जिससे कम उम्र में उन्होंने रागों की समझ को प्रदर्शित करना शुरू कर दिया था| पांच साल की छोटी-सी उम्र में संगीत के प्रति उनकी रूचि को देखते हुए उन्हें उस्ताद शमू खान के पास भेजा गया| इसके बाद उन्हें सारंगी वादक आशिक खान और उस्तान नज्जू कहाँ के पास भेजा गया |
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धनंजयगढ़ की अदालत में रसूलन बाई की गायकी का पहला आयोजन किया गया था, जिसकी सफलता के बाद उन्होंने स्थानीय राजाओं के निमन्त्रण पर अपने गायकी के कार्यक्रमों का आयोजन करना शुरू कर दिया| इस तरह वह अगले पांच दशकों तक हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत शैली सधी और बनारस घराने पर अपनी धाक जमाने वाली गायिका बन गयी| साल 1948 में उन्होंने मुजरा-प्रदर्शन करना बंद कर दिया और कोठे से बाहर चली गयी| इसके बाद उन्होंने स्थानीय बनारसी साड़ी व्यापारी के साथ शादी कर ली|
साल 1957 में संगीत नाटक अकादमी की तरफ से उन्हें ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया|
बनारस में साल 1969 के साम्प्रदायिक दंगो में रसूलन बाई का घर जला दिया गया| इसके बाद, उन्होंने अपने ज़िन्दगी के आखिरी समय आकाशवाणी (महमूरगंज, बनारस) के बगल में अपनी एक चाय की दुकान खोलकर बिताया| 15 दिसंबर 1974 को रसूलन बाई ने इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया|
उस दौर में नाच-गाने से ताल्लुक रखने वाली औरत को इसी नाम से जाना जाता था, जिन्हें समाज गिरी हुई नज़रों से देखता था|
यों तो आज जब हम इंटरनेट पर रसूलन बाई के बारे में सर्च करते है तो उनके जीवन के बारे में ज्यादा कुछ जानकारी नहीं मिलती है और ये कोई नई बात भी नहीं है क्योंकि वास्तविकता ये है कि हमारे समाज का इतिहास पितृसत्ता के उन हांथों से लिखा गया है जिसने हमेशा से अपने खुद के विचारों को अभिव्यक्त करने वाली महिलाओं के अस्तित्व को नकारते हुए कभी तवायफ़ कहकर तो कभी कोठेवाली कहकर नकारा है, जिसका नतीजा हमारे समाने इन्टरनेट के सर्च रिजल्ट में सामने आता है| लेकिन वो कहते है न ‘सच कभी छिपता नहीं है हाँ कुछ समय के लिए धूमिल-सा ज़रूर हो सकता है|’ इसी तर्ज पर साल 2009 में सबा दिवान के निर्देशन में बनी शार्ट फ़िल्म The others song के ज़रिए रसूलन बाई के जीवन की दास्ताँ को बखूबी दर्शाया गया है, जिसमें उन हर पहलुओं को उजागर किया गया जिसे समाज ने उस समय तवायफ़ से नाम से ढकने-तोपने की कोशिश की थी| साथ ही, इस फिल्म के ज़रिए उत्तर भारत में तवायफ़ की परंपरा के इतिहास को भी अच्छी तरह समझा जा सकता है|
भले ही हमारे समाज ने इतिहास में रसूलन बाई जैसी शख्सियतों को वो जगह नहीं दी जिनकी वे हकदार थी, लेकिन वो कभी-भी उनके हुनर और बेजोड़ गायकी को भी नज़रंदाज़ न कर सकी|
यह लेख गौरव पाण्डेय ने लिखा है| गौरव बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) में पॉलिटिकल साइंस के रिसर्च स्कॉलर है|