बनारस के पास के गाँव बालीपुर की पूजा अपने पहले पीरियड का अनुभव बताते हुए कहती है कि पहली बार मेरे पीरियड शुरू हुए तब मैं बेहद डर गयी थी| मुझे नहीं मालूम था कि ये मुझे क्या हो गया? जब मम्मी को मैंने इसके बारे में बताया तो उन्होंने मुझे कपड़ा लेने को कहा और मुझे बताया कि हर महीने मेरे साथ ऐसा होगा, लेकिन क्यों.? इसका जवाब मम्मी ने नहीं दिया| पर साफ़ शब्दों में उन्होंने मुझे वो काम ज़रूर बताये जो मुझे इस दौरान नहीं करना है| उन्होंने कहा कि इस दौरान मुझे स्कूल नहीं जाना है, पूजा नहीं करना है, अचार-पापड़ नहीं छूना है, वगैरह-वगैरह|
अब इसे संयोग कहे या दुर्भाग्य कि गाँव में रहने वाली पूजा की कहानी शहर में रहने वाली सांत्वना से कहीं भी अलग नहीं है| उसे भी पीरियड की पहली सीख के तौर पर उन पाबंदियों का पाठ बखूबी पढ़ाया जाता है, जिसका पालन उन्हें बिना कोई सवाल-जवाब किये जीवनभर करना है| पीरियड को हमारे समाज में शर्म का विषय माना जाता है, इसलिए इस महिलाएं खुद बात करने से कतराती है| आधुनिकता के दौर में इस विषय पर अगर महिलाओं की चुप्पी टूटी है भी तो वो सिर्फ प्रबन्धन के साधन, जैसे – सेनेटरी पैड, मेन्स्त्रुअल कप व अन्य के लिए| लेकिन तमाम भ्रांतियों से घिरी हुई पाबंदियों का पाठ आज भी जस का तस है|
पीरियड के पाबंदी पाठ पर चुप्पी तोड़ता #MyFirstBlood
पीरियड से जुड़े इस ‘निषेध-नियम की संस्कृति’ को उजागर करके इसपर स्वस्थ चर्चा करने के लिए बनारस की संस्था मुहीम और दिल्ली की संस्था वुमनिया की तरफ से ‘माय फर्स्ट ब्लड’ नाम का अभियान चलाया जा रहा है| इस अभियान से जुड़कर लगातार महिलाएं पीरियड के अपने उस पहले पाबंदियों वाले पाठ को साझा कर रही हैं, जो उन्हें पहले पीरियड में पठाए गये थे|
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शहर से लेकर गाँव तक बोल रही हैं महिलाएं
इस अभियान की खासियत ये है कि इसे ऑनलाइन के साथ-साथ गाँव-गाँव में भी चलाया जा रहा है| उत्तर प्रदेश के करीब दस से अधिक गाँव में इस अभियान महिलाओं और लड़कियों को शामिल किया गया है| एक दिसंबर से शुरू हुए इस अभियान के ज़रिए पीरियड से जुड़ी भ्रांतियों और पाबंदियों का ढेर धीरे-धीरे सामने आने लगा है| इंटरनेट के माध्यम से जहाँ एक ओर शहरी महिलाएं इस अभियान से जुड़कर अपना अनुभव साझा कर रही है, वहीं दूसरी ओर गाँव-गाँव में सहायता समूह के माध्यम से अपनी पाबंदियों वाली उस पहली सीख के बारे में बता रही है|
पीरियड की पहली सीख के तौर पर उन पाबंदियों का पाठ बखूबी पढ़ाया जाता है, जिसका पालन उन्हें बिना कोई सवाल-जवाब किये जीवनभर करना है|
कार्यक्रम का विषय बना ‘अभियान’
इस कार्यक्रम की रूपरेखा को रिसर्च के तौर तैयार किया गया है, चूँकि पीरियड के मुद्दे पर बोलना आज भी अपने आप में खिलाफत की बात है (खासकर ग्रामीण इलाकों में) तो अप्रत्यक्ष ढंग से ही ये कार्यक्रम अभियान बन जाता है| ताज्जुब की बात ये है कि एक महीने तक चलने वाले इस अभियान में अब तक गाँव की महिलाओं और लड़कियों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया है| वहीं शहरी महिलाओं की भागीदारी इसमें कम हो पायी है|
चूँकि इस अभियान में महिला की शर्म से जुड़े (पितृसत्ता की गढ़ी परिभाषा के अनुसार) मुद्दे ‘पीरियड’ के अनछुए पहलू यानी कि चर्चा व तर्क से परे भ्रांतियों वाले पाबंदी पाठ को केंद्रित किया है ऐसे में महिलाओं का इसपर खुलकर अपने अनुभव साझा न करना कोई नयी बात नहीं है| लेकिन यहाँ हमें सोचने की ज़रूरत है कि हम बिना अपनी चुप्पी तोड़े आखिर कैसे अपनी भ्रांतियों को दूर कर सकते हैं?
इस अभियान के ज़रिए महिलाएं अलग-अलग माध्यमों से जुड़ रही है| गाँव और स्कूलों में लड़कियां जहाँ पोस्टर के ज़रिए अपने अनुभव साझा कर रही है तो वहीं सोशल मीडिया के माध्यम से महिलाएं अपनी कहानी-आपबीती और विडियो के ज़रिए|
वास्तविकता ये है कि आज भी हमारे समाज में लड़की के पहले पीरियड शुरू होने पर उसे मालूम नहीं होता कि उसके शरीर में ये कैसा बदलाव हो रहा है| इतना ही नहीं, जब वो इस बारे में अपनी माँ को बताती है तो उसे पीरियड के दौरान खानपान और साफ़-सफाई के बारे भले ही न बताया जाये लेकिन इस दौरान उसे कौन-कौन से काम नहीं करने है इस बारे में ज़रूर बताया जाता है और इस बात का अंदाज़ा हम इस अभियान के तहत लगातार साझा होने वाली महिलाओं के अनुभव से लगा सकते है|
पीरियड से जुड़े इस पहलू पर अभियान के ज़रिए बेबाकी से उजागर करना अपने आप में सकारात्मक और ज़रूरी पहल है|
‘पीरियड’, जिसे आमतौर पर ‘दाग’ और ‘दर्द’ तक सीमित करके देखा जाता रहा है, शायद यही वजह है कि इस विषय के तले बनी सालों की चुप्पी के चलते ढेरों भ्रांतियां कीटाणुओं की तरह हर महिला की ज़िन्दगी को संक्रमित करती रही है| ऐसे में पीरियड से जुड़े इस पहलू पर अभियान के ज़रिए बेबाकी से उजागर करना अपने आप में सकारात्मक और ज़रूरी पहल है, क्योंकि इसी भी बदलाव के लिए सबसे पहले ज़रूरी होता है बदलाव के ज़रूरी पहलुओं को जानना और पीरियड के मुद्दे पर लोगों की एक स्वस्थ समझ विकसित करने के लिए ज़रूरी है कि इससे जुड़ी हर वो परत खुले जिसने इसे ‘शर्म’, ‘गंदा’ और ‘चुप रहने’ का विषय बनाया है|
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