‘ब्लासफेमी’ शब्द का मतलब होता है – कुफ़्र, ईशनिंदा, विरोध किया जाना। महिलाओं द्वारा पितृसत्ता का विरोध किया जाना भी एक किस्म का कुफ़्र माना जाता है|
एक किताब ‘ब्लासफेमी’
पाकिस्तान की स्त्रीवादी लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता तहमीना दुर्रानी ने इस उपन्यास को लिखा है। उनकी माने तो यह उपन्यास सच्ची घटना से प्रेरित है। ब्लासफेमी की मुख्य पात्र हीर अपनी कहानी बताते हुए कहती है – पंद्रह साल की उम्र में धर्मगुरु पीर साईं से उसकी शादी होने और उसके बाद झेले गए अंतहीन शोषण की कहानी।
वह अपनी ज़िंदगी की तकलीफों से जूझने के लिए एक ख्याली दुनिया में जीने लगती है और उसी ख्याली दुनिया की खुशियों में हमेशा के लिए दफ़न हो जाती है। कम से कम वह एक ऐसी जगह थी जिसे कोई तबाह नहीं कर सकता था या जिसे कोई बंदिशों में बांध नहीं सकता था। वहाँ न तो उसके बलात्कारी पति पीर साईं का दखल था, न ही उसके बेटे राजाजी का, जो अपने पिता की मौत के बाद अपनी माँ हीर की ज़िंदगी का मालिक बन बैठा था।
पंद्रह साल की उम्र में धर्मगुरु पीर साईं से उसकी शादी होने और उसके बाद झेले गए अंतहीन शोषण की कहानी।
समाज की तस्वीर वाली ब्लासफेमी
यहाँ यह कहना गलत नहीं होगा कि ब्लासफेमी में हीर के ज़रिए सिर्फ उसकी ही कहानी नहीं बताई गई है, बल्कि एक पूरे समाज की तस्वीर पेश कर दी गई है। यह उपन्यास धर्म के नामपर होने वाले शोषण और धर्म गुरुओं के पाखंड का जो ब्यौरा देता है, उसके बारे में गहराई से सोचने पर यह पता चलता है ‘हीर’ सिर्फ पाकिस्तान के समाज के पाखंडी धर्म – गुरुओं की विक्टिम नहीं है। भारतीय समाज में भी ऐसी कई ‘हीरें’ मौजूद हैं जो धर्म गुरुओं के हाथों प्रताड़ित हुईं हैं और अब भी उनका शोषण किया जा रहा है। हीर की तरह प्रताड़नाएं झेलने वाली इन लड़कियों में से बहुत कम लड़कियां ही आवाज़ उठा पातीं हैं या फिर दुनिया को अपनी कहानी बता पातीं हैं।
वहीं इन लड़कियों की कहानी बताने या लिखने में भी बहुत कम लोग मदद करते हैं। गौरतलब है कि आज भी समाज का एक बड़ा हिस्सा धर्म के नाम पर फैले बाज़ार और अंधविश्वास के जाल में फंसा हुआ है। बतौर उदाहरण राम रहीम और आसाराम जैसे पाखंडी धर्म गुरुओं के केस हमारे सामने मौजूद हैं।
इसके साथ ही यह उपन्यास एक और पहलू को छूता है –
खोखले सम्मान के नाम औरतों की ज़िंदगी तबाह
राजाजी हीर का बेटा है, वह अपने पिता पीर साईं के सभी गलत कामों का गवाह रहा है। उसे पता है कि उसकी माँ ने कितनी प्रताड़नाएं झेलीं हैं। लेकिन फिर भी वह हीर को पीर साईं के गलत कामों को उजागर करने से रोकना चाहता है क्योंकि इससे उसकी इज़्ज़त को खतरा है।
ब्लासफेमी की मुख्य किरदार हीर की घुटन और बेबसी को साफ़ महसूस किया जा सकता है।
यहाँ पाठक के दिमाग पर सीधे – सीधे चोट लगती है, पितृसत्ता का घिनौना चेहरा साफ दिखाई देने लगता है। ज़ाहिर है कि पितृसत्ता एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जिसके मुताबिक औरतों की ज़िंदगी के मालिक पिता और भाई हैं, शादी के बाद पति और फिर बुढ़ापे में बेटे। इन्हीं सब के तथाकथित सम्मान के खातिर औरतों की जिन्दगियों की बलि चढ़ाई जाती रही है।
ब्लासफेमी की मुख्य किरदार हीर की घुटन और बेबसी को साफ़ महसूस किया जा सकता है। उसकी कहानी में मौजूद दर्द ज़रा – भी बनावटी नहीं लगता। इस उपन्यास को पढ़ते समय कभी भी यह ख्याल नहीं आता कि कहीं किसी बात की कमी रह गई है या फिर कोई बात बेवजह इसमें शामिल कर दी गई है। ‘ब्लासफेमी’ अपने पाठक को इस कदर बांधे रखता है कि पढ़ने वाले को एक पल के लिए भी अपना ध्यान कहीं और भटकाने का मौका नहीं मिलता।
आज के समय की जिन सच्चाइयों को इस उपन्यास में लिखा गया है, वे इस कदर डरावनी लगतीं हैं कि अगर एक बार इन्हें पढ़ लिया जाए तो उसके बाद आसानी से भुलाया नहीं जा सकता। ये सच्चाइयां मानो दिमाग पर हावी हो जाती हैं और पितृसत्ता के ढांचे की बारीकियों से मुलाकात करवाती हैं। पाठक सोचने पर मजबूर हो जाता है कि क्या वाकई यह नर्क औरतों की ज़िंदगी है ? अगर हाँ, तो इसके हालातों में कैसे बदलाव लाया जाएगा ? ज़ाहिर है कि स्त्रीवाद हमेशा से इन्हीं हालातों में बदलाव लाने की एक ज़रूरी पहल रही है। और ब्लासफेमी उपन्यास की शक्ल में वास्तविक दर्द और हालातों का एक ऐसा ही कच्चा चिट्ठा है जो स्त्रीवाद को गैर ज़रूरी मानने वाले लोगों के सामने पितृसत्ता के बेहद घिनौने पक्षों को उजागर करके, उनका नज़रिया बदल देने की काबिलियत रखता है।
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Very well researched and written book commentary
शुक्रिया मैम !