पिछले कुछ दिनों से मन में एक अजीब सी हलचल है, जब जगह-जगह बलात्कारी को फांसी की सजा देने के अध्यादेश बनने पर हर तरफ जीत का जश्न मनाया जा रहा है जैसे कि रेप ख़त्म करने का ब्रह्मास्त्र मिल गया हो? क्या सच में ये जीत जैसा है, हमें इसपर सोचने की ज़रूरत है| जहाँ यौन हिंसा से ग्रसित लोगों को उम्र बारह, सोलह, अठ्ठारह या फिर लिंग- लड़का लड़की में बांटकर पितृसतात्मक विश्वासों को सबसे ऊपर रखते हुए एक खोखला अध्यादेश सजाकर परोस दिया गया हो?
इस दौरान मेरी ढ़ेरों ऐसे लोगों खासकर युवाओं से बातचीत हुई जो संवेदनशील है और जिनमें महिला हिंसा के खिलाफ रोष भी है और कुछ कर गुजरने का ज़ज्बा भी| पर जब बात नए अध्यादेश और बच्चियों के बलात्कारियों को फांसी की सज़ा पर हुई तो बड़ा अचम्भा हुआ जब उनलोगों ने फ़ौरन जवाब दिया कि ‘आई एम ओंन फॉर इट’ यानि ‘मैं इससे पूर्णतः सहमत हूँ|’
‘सहमति’ को लेकर हम कितना समझते-जानते-मानते हैं या मानने को राज़ी है? वास्तव में अब तक हम इसी संघर्ष में जूझ रहे हैं| खैर इन छोटी-छोटी बातचीत से जो बात आगे बढ़ पायी वो साझा करने की कोशिश कर रही हूँ| खासकर उन लोगों के लिए जिनसे उम्मीद है, जो दूसरे नज़रिये को समझने, बहस करने और कसौटी पर कसने के बाद सहमत होने और आगे बढ़ाने की उम्मीद जगाते है कि एक बेहतर कल सबके लिये मुमकिन है| वैसे साल 2012 से पहले और साल 2012 के निर्भया जनआंदोलन के समय भी महिला आंदोलन फांसी की सज़ा के विरोध पर एक अच्छी समझ बनाने में सफल रहा था, जिसका नतीजा साल 2013 के बलात्कारी निरोधी कानून में फांसी की सज़ा का निषेध होना था|
लेकिन फिर नये अध्यादेश में इसका जिक्र आना और आमजन की राय का इससे जुड़कर भ्रम पैदा करना शुरू हो गया, जिसके लिए इसपर चर्चा करना ज़रूरी हो गया|
बलात्कारी को फांसी देने से मिल जायेगा पीड़ित को न्याय?
पहला सवाल ये है कि कौन बता सकता है कि बलात्कार हुआ है? खुद वो जिसके साथ ऐसा हुआ है? ऐसे में जहाँ किसी की जान लेने और रेप करने दोनों की सजा मौत है और खुद वो ही बता सकती है कि रेप हुआ है तो क्या ऐसे में बलात्कारी द्वारा खुद को बचाने के लिए रेप के बाद हत्या करने की संभावना ज्यादा नहीं बढ़ जायेगी? क्योंकि दोनों ही अपराधों (रेप या क़त्ल) में सज़ा मौत है और दोनों करने से बचने की सम्भावना तो नहीं हैं| लेकिन ऐसे प्रावधान हमारी बच्चियों को इंसाफ की बजाय दर्दनाक हत्याओं की ओर ले जाएगा|
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परिवार के बलात्कारियों के खिलाफ कम दर्ज होंगें केस
हम एक पितृसतात्मक समाज में रहते हैं जहाँ लड़कियों की जगह परिवारों में अभी भी दोयम दर्जे की है| ऐसे में कई शोध रिपोर्ट के अनुसार, करीब 90 से 98 फीसद बलात्कार जान-पहचान और परिवार के लोग करते हैं जिसके चलते ज्यादातर केस दर्ज नहीं किये जाते हैं और जब इसकी सजा मौत होगी तब तो ऐसे केस दर्ज होने और भी कम हो जायेंगें| क्योंकि ऐसे में बात सिर्फ परिवार की इज्जत की नहीं उस सदस्य के जान की भी हो जाएगी|
‘सहमति’ को लेकर हम कितना समझते-जानते-मानते हैं या मानने को राज़ी है? वास्तव में अब तक हम इसी संघर्ष में जूझ रहे हैं|
पुनर्वास होगी बड़ी चुनौती
इस पूरे प्रकरण में ‘पुनर्वास’ एक अहम सवाल है| जब न्याय मिलने के बाद पीड़ित को जल्द से जल्द उबरने और आगे बढ़ने पर ज़ोर देना चाहिए| ऐसे प्रावधानों के बाद क्या ये संभव हो पायेगा? खासकर ऐसे समाज में जहाँ हम बलात्कारी से ज्यादा पीड़ित को याद रखते हैं और जीवनभर हमारी ऊंगली पीड़ित पर उठती है और अपराधी को मौत की सज़ा मिलना सीधेतौर पर पीड़ित के पुनर्वास को प्रभावित करेगी|
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पीड़ित का अपराधबोध बन न जाये बोझ
बचपन से हमारी शिक्षा का एक हिस्सा रहता है कि दूसरे का बुरा न करना या बदला लेने की प्रवृत्ति को ना पलना| ऐसे में जब न्याय का मतलब फांसी और मौत होगा तो क्या न्याय पाने वाले के लिए उसका अपराधबोध बेड़ी का काम नहीं करेगा? और उसे न्याय का अहसास करायेगा?
क्या फांसी से बलात्कार रुकेंगे?
जैसा कि पहले ही हम बात कर चुके है कि इससे रेप और हत्या में ही इज़ाफ़ा होगा | बल्कि जिन देशों में ये कानून काफी समय से है वहां ये बात साबित हो चुकी है कि रेप तो नहीं रुके पर हत्या बढ़ गयी है और सजा दर कम हो गयी है|
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रेप के लिए ही फांसी की मांग क्यों?
दहेज़ के लिए लड़कियों जला देना, एसिड हमला करना, गर्भ में बच्चियों को मार देना और महिला तस्करी जैसी अनेको हिंसा हमें नहीं दहलाती है| शादी के अंदर होने वाले रेप पर हम कुछ नहीं बोलते| लेकिन जब हम रेप को एक हिंसा की तरह देखने की बजाय इज्जत के रूप में देखते है और ये मानते है कि लड़की की इज्जत लूट गयी| अब इस ज़िन्दगी से तो मौत अच्छी है| इसलिये हम बलात्कारी के लिए फांसी की सज़ा की मांग करते हैं| लेकिन हमें ये सोचना होगा कि महिलाओं के साथ और भी कई हिंसाएँ होती है जिनका रूप कई मामलों में बलात्कार से भी ज्यादा वीभत्स है|
दहेज़ के लिए लड़कियों जला देना, एसिड हमला करना, गर्भ में बच्चियों को मार देना और महिला तस्करी जैसी अनेको हिंसा हमें नहीं दहलाती है|
फांसी की सज़ा मुश्किल या आसान रास्ता?
आखिर में आप खुद सोचें कि न्याय की डगर में बलात्कारी को फांसी की सजा आसान है या मुश्किल? हाँ आसान है उनके लिये जो ऐसे अध्यादेश लेकर वाहवाही बटोरना चाहते है क्यूंकि इसमें करना कुछ नहीं है| न्यायलयों, न्यायधीशों, जाँच लैब की कमी और असंवेदनशीलता से जूझती न्याय-व्यवस्था की मरम्मत के बिना ये सभी अध्याधेश खोखले नज़र आते है, क्योंकि जब तक आपका अपराध सिद्ध ही नहीं होगा तब तक सज़ा मिलना एक कोरी कल्पना है|
जब युवाओं के साथ मैंने इन सभी पहलुओं पर बात की तो उनका कहना था कि उन्होंने इन पहलुओं पर कभी सोचा ही नहीं| उन युवाओं की तरह ही हमें भी इन पहलुओं पर सोचने की ज़रूरत है| क्योंकि ऐसी घटनाओं के बाद हम एक सुर में कानून में बदलाव की मांग करने लगते हैं लेकिन सवाल ये है कि हम कब खुद में बदलाव की बात करेंगें|
तस्वीर साभार – एनबीसी न्यूज़