अखबार की पहली खबर थी ‘सबरीमाला मन्दिर में सभी महिलाओं को प्रवेश का हक़’| पहली बार में खबर को देख मन खुश हो गया कि चलो धीरे-धीरे ही सही लैंगिक भेदभाव को खत्म करने की पहल हो हुई| लेकिन मेरी ये ख़ुशी तब पलभर की साबित हुई जब नज़र इस बड़ी खबर की पहली सब-हेडिंग पर गयी कि ‘अकेली महिला जज इंदु मल्होत्रा की राय जुदा|’
जब सबरीमाला मंदिर पहुंची अभिनेत्री जयमाला
इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के आये फैसले पर बात करने के पहले इस केस की शुरुआत करती हूँ तो बातों का ओर-छोर थोड़ा और साफ़ होगा| केरल के सबरीमाला मन्दिर में महिलाओं को जाने की अनुमति नहीं है| इस प्रसिद्ध मन्दिर में भगवान के ब्रह्मचारी होने की निष्ठा के चलते सैकड़ों सालों से 10 से 50 साल की महिलाओं का आना मना था| सुप्रीम कोर्ट ने अब इस प्रतिबन्ध को हटा दिया और इसकी वजह था कन्नड़ अभिनेत्री जयमाला का दावा कि मैंने अयप्पा भगवान को छुआ है| बस फिर क्या था इस एक दावे ने एक झटके में पोंगापंथी की सत्ता को चुनौती दे दी|
इसबार जीत मौलिक अधिकारों की हुई न कि पितृसत्तात्मक सोच की, इसलिए ये खबर वाकई अच्छी है|
जयमाला ने यह दावा तब किया जब साल 2006 में सबरीमाला के प्रमुख ज्योतिषी परप्पनगडी उन्नीकृष्णन ने चिंता जाहिर करते हुए कहा था कि ‘अयप्पा अपनी ताकत खो रहे हैं।‘ उन्होंने यह भी कहा था कि ‘भगवान इसलिए नाराज हैं क्योंकि मंदिर में किसी युवा महिला ने प्रवेश किया है।‘ ठीक इसी समय कन्नड़ अभिनेता प्रभाकर की पत्नी व अभिनेत्री जयमाला ने अपना बयान दिया। साथ ही यह भी कहा कि ‘वह इसके लिए प्रायश्चित करना चाहती है।‘ अभिनेत्री ने बताया था कि साल 1987 में वह अपने पति के सतह मंदिर गई थीं। वहां श्रद्धालुओं के धक्कों की वजह से वह गर्भगृह में पहुंच गई और भगवान अयप्पा के चरणों में गिर गईं, जहां पुजारी ने उन्हें फूल भी दिए थे। उनके इस दावे के बाद पूरे केरल में बवाल मच गया था।
दावे पर अभिनेत्री के खिलाफ चार्जशीट
इसके बाद, 14 दिसंबर 2010 को पठानीमिट्ठा जिले के रन्नी में ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट की कोर्ट में केरल पुलिस ने जयमाला के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की। इसमें जयमाला पर जानबूझकर तीर्थस्थल के नियमों का उल्लंघन करते हुए लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप लगाया था। हालांकि बाद में केरल हाईकोर्ट ने चार्जशीट को खारिज कर दिया और जयमाला कानूनी लड़ाई जीत गईं।
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अभिनेत्री के दावे पर काफी सवाल भी उठे थे। जयमाला ने एक साक्षात्कार में कहा था ‘21वीं सदी में महिलाएं अपने मासिकधर्म को दवा लेकर आगे बढ़ा सकती है और मंदिरों को नियम बनाने का हक नहीं है। मंदिर में प्रवेश के लिए मन शुद्ध होना चाहिए।‘
महिला वकीलों ने शुरू की कानूनी लड़ाई
इसके बाद, पांच महिला वकीलों के एक समूह ने केरल हिन्दू प्लेसेज ऑफ़ वर्शिप (अर्थराइजेशन ऑफ़ एंट्री) रूल्स, 1965 के रूल 3 बी को चुनौती दी थी| यह नियम माहवारी वाली महिलाओं को मन्दिर में प्रवेश देने से रोकने का अधिकार देता है| वकीलों के समूह ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में उस वक़्त गुहार लगाई| इस लंबी लड़ाई के परिणामस्वरूप सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने 4:1 के बहुमत से सदियों से लगे इस प्रतिबन्ध को हटाने के हक में फैसला सुनाया| इस पीठ में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के अलावा जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस इंदु मल्होत्रा थे|
अभिनेत्री जयमाला के दावे ने एक झटके में पोंगापंथी की सत्ता को चुनौती दे दी|
खुशखबरी पर हावी हुई महिला जज की आपत्ति
लेकिन ये खबर जितनी बड़ी होनी थी, उससे भी बड़ी खबर बन गयी इस पीठ की एकमात्र महिला जज जस्टिस इंदु मल्होत्रा के अलग मत की, जिन्होंने बाकी न्यायाधीशों से अलग मत रखते हुए सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को अनुमति देने पर आपत्ति जताई|
उन्होंने कहा कि ‘इस मामला का सभी धर्मों पर व्यापक असर है। देश में धर्मनिरपेक्ष माहौल को बनाए रखने के लिए गहरे धार्मिक मामलों से छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। यहां बराबरी का अधिकार और धर्म के पालन के अधिकार से कुछ टकराव के साथ सामने आ रहा है, जो कि खुद एक मूलभूत अधिकार है। जस्टिस मल्होत्रा ने तर्क दिया कि भारत में विविध धार्मिक प्रथाएं हैं। संविधान सभी को अपने धर्म के प्रचार करने और अभ्यास करने की अनुमति देता है। ऐसे में अदालतों को इस तरह की धार्मिक प्रथाओं में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए भले ही यह भेदभावपूर्ण क्यों न हो।
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जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने कहा कि भगवान अयप्पा के भक्तों ने अलग तरह का धार्मिक मूल्य बना लिया है। 10-50 एज ग्रुप की महिलाओं का मंदिर में प्रवेश न करने देना उनकी खास धार्मिक परंपरा है जिसे संविधान के तहत रक्षा मिली हुई है। अदालत किसी देवता की पूजा पर अपनी नैतिकता या तार्किकता को नहीं थोप सकती।
उन्होंने कहा कि ऐसा करना किसी को उसकी धार्मिक स्वतंत्रता से वंचित करने जैसा होगा। किसी खास मंदिर में अगर काफी समय से कोई परंपरा चली आ रही है तो इसे उस मंदिर की अनिवार्य धार्मिक परंपरा के रूप में लेना चाहिए। कोर्ट को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। इंदु मल्होत्रा ने आगे कहा कि इस केस में सबरीमाला मंदिर का मामला इस आधार पर खास है कि यहां भगवान की पूजा करने की शताब्दियों पुरानी परंपरा चली आ रही है। इसमें किसी तरह का हस्तक्षेप भक्तों की मान्यताओं और धार्मिक परंपराओं पर असर डालेगा।’
अब इससे ज्यादा अजीब संयोग क्या हो सकता है भला कि जिस बदलाव की शुरुआत महिला के मुद्दे पर, महिलाओं के द्वारा लड़ी गयी हो उसपर सबसे अहम आपत्ति महिला ने लगाई| ये हमारे पितृसत्तात्मक समाज की गूढ़ता को दर्शाता है जो सीधेतौर पर महिलाओं पर अपना निशाना साधता है और इस सोच पर हर तार्किकता बेकार-सी साबित होती है| कहने को हम लाख कहें कि चीज़ें बदल गयी हैं, लेकिन समय-समय पर इसतरह के फैसले, बयान, कार्यवाई या नीति हमें हमेशा आईना दिखाने का काम करती है कि अभी कुछ नहीं बदला है| भले ही चीज़ें बदली हुई सी लगें लेकिन इनके मूल अब भी एक है| पर आखिर में यही कहूंगी कि बातें चाहे जो भी इन सबमें अच्छा ये रहा कि इसबार जीत मौलिक अधिकारों की हुई न कि पितृसत्तात्मक सोच की, इसलिए ये खबर वाकई अच्छी है|
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तस्वीर साभार : बीबीसी