गर्भावस्था यानी महिला शरीर से जुड़ी वो अवस्था जिस दौरान महिला के शरीर में भ्रूण बनना शुरू होता है| वास्तव में देखा जाए तो गर्भावस्था एक प्रक्रिया है जिसका हर चरण अपने से पहले चरण से प्रभावित होता है| प्रसव पीड़ा शुरू होने के बाद, प्रसव का तीसरा चरण पूरा हो जाने के दौरान और प्रसव के तुरंत बाद अगले 42 दिन तक देखभाल के लिए यह और भी सही है क्योंकि यही वो ज़रूरी समय होता है जब गर्भावस्था से गुजरने वाली महिला के सामने शारीरिक समस्याएं आने लगती हैं और उनके उपचार की ज़रूरत भी पड़ती है|
विकसित देशों में तो प्रसव के बाद की देखभाल का काम प्रसव देखभाल सेवाओं का ही एक हिस्सा होती है लेकिन विकासशील देशों में प्रसव के बाद की देखभाल जैसी सेवाएं न के बराबर मिल पाती है और आमतौर पर इसके बहुत घातक परिणाम होते हैं| विश्व स्तर पर उपलब्ध आंकडें भी प्रसव के बाद की देखभाल सेवाओं दिए जाने का स्तर 5 फीसद से भी कम हो सकता है| अधिकतर मातृ मृत्यु प्रसव के दौरान शुरू होते हैं| इसी तरह असुरक्षित गर्भसमापन के कारण होने वाली मृत्यु गर्भसमापन के कुछ घंटों या दिनों के बाद होती है|
इस तरह हम कह सकते हैं कि विकासशील देशों में महिलाओं को ज़रूरत के समय उस तरह की देखभाल नहीं मिल पा रही जो उन्हें मिलनी चाहिए| आमतौर पर जिसे हम प्रसव के बाद की देखभाल कह देते हैं और जो शिशु जन्म के बाद के महीनों में की जाती है, वह आमतौर पर उसके स्वास्थ्य को बढ़ाने और रोगों की रोकथाम करने के लिए तो काफी होती है लेकिन महिला की जीवन रक्षा करने के उद्देश्य से नहीं की जाती है| इस काम में सबसे बड़ी चुनौती ऐसे कार्यक्रमों को विकसित करने की है जो प्रसव के दौरान और तुरंत बाद आपातकालिक सेवाएं दें सकें जिससे मातृ मृत्यु में कमी की जा सकते|
जिस तरह की प्रसव के बाद सेवाएं विकासशील देशों में महिलाओं को मिल पाती हैं, वहां इनके घातक परिणाम भी होते हैं|
आमतौर पर गर्भवती महिलाओं को दी जाने वाले देखभाल सेवाओं को तीन भागों में बांटा जाता है :
1- प्रसव से पहले की देखभाल (एंटी-पार्टम पीरियड) : गर्भधारण से लेकर प्रसव पीड़ा शुरू होने तक|
2- प्रसव के दौरान देखभाल (इंट्रा-पार्टम पीरियड) : प्रसव पीड़ा शुरू होने से लेकर प्रसव का तीसरा चरण पूरा होने तक|
3- प्रसव के बाद की देखभाल (पोस्ट- पार्टम पीरियड) : प्रसव का तीसरा चरण पूरा होने से लेकर अगले 42 दिनों तक|
इस तरह गर्भावस्था को अलग-अलग भागों में बांटने के कई लाभ हैं क्योंकि हर चरण में होने वाली समस्याएं अलग होती है| जैसे गर्भावस्था के शुरू के दिनों में होने वाली समस्याएं और उनके लक्षण प्रसव के समय या उसके बाद होने वाली समस्याओं से बिल्कुल अलग होते हैं|
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लेकिन इस तरह स्पष्ट रूप से गर्भावस्था को तीन चरणों में विभाजित कर देने का एक नुकसान भी होता है| इस तरह अलग चरणों में बांटने से यह वास्तविकता छिप जाती है कि गर्भावस्था एक पूरी प्रक्रिया है और इसके हर चरण पर उससे पहले के चरण का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है| आमतौर पर हम गर्भावस्था के दौरान और प्रसव के तुरंत बाद के समय में अंतर कर लेते हैं जिससे कि प्रसव के तुरंत बाद के समय में देखभाल की आवश्कताएं छिप सी जाती हैं और केवल प्रसव के बाद लंबे समय तक दी जाने वाली देखभाल सेवाओं को ही ख़ास मान लिया जाता है| यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है और खासतौर पर जिस तरह की प्रसव के बाद सेवाएं विकासशील देशों में महिलाओं को मिल पाती हैं, वहां इनके घातक परिणाम भी होते हैं|
गर्भावस्था के शुरू के दिनों में होने वाली समस्याएं और उनके लक्षण प्रसव के समय या उसके बाद होने वाली समस्याओं से बिल्कुल अलग होते हैं|
प्रसव और उसके तुरंत बाद किये जाने वाले उपचारों के महत्व को देखते हुए हमारे सामने यह सवाल उठ खड़ा होता है कि प्रसव के बाद की देखभाल सेवाओं तक लोगों की पहुंच किस तरह सुनिश्चित की जाए| यह सही है कि विकासशील देशों में अधिकाँश महिलाओं का प्रसव घर पर ही होता है लेकिन फिर भी इसके लिए किसी प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मी का मौजूद होना बहुत ज़रूरी है| इसके लिए सबसे ज़रूरी यह है कि प्रसव पीड़ा आरंभ होने के बाद और प्रसव के बाद देखभाल किये जाने के कार्यक्रम विकसित किये जाएँ जो सही समय पर महिला को यही उपचार उपलब्ध करा सकें| लेकिन अब तक इस तरह के कुछ सफल कार्यक्रमों की जानकारियां मिली हैं|
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हमें समझना होगा कि इस तरह के प्रयासों को और अधिक विकसित करने के लिए और उनकी व्यवहारिकता, लागत और प्रभावशीलता को जांचने के लिए पहले से किये जा रहे प्रयासों की प्रभावशीलता को जांचना और इस बारे में और अधिक सर्वेक्षण करना ज़रूरी होगा| इन कार्यक्रमों को देखकर लगता है कि ये महिलाओं को ऐसे समय पर उपचार देने के कार्यक्रम हैं, जब उन्हें देखभाल और उपचार की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है और जब अधिकाँश मातृ मृत्यु घटनाएँ होती हैं, यह ज़रूरी है कि इस तरह के कार्यक्रमों पर और अधिक ध्यान दिया जाए और इन्हें पूरा समर्थन मिले|
यह लेख क्रिया संस्था की वार्षिक पत्रिका मातृ मृत्यु एवं रुग्णता (अंक 3, 2008) से प्रेरित है| इसका मूल लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें|
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तस्वीर साभार : reportodisha