इंटरसेक्शनल दिल्ली से हैदराबाद : यौन हिंसा की घटनाएँ और सोशल मीडिया की चिंताजनक भूमिका

दिल्ली से हैदराबाद : यौन हिंसा की घटनाएँ और सोशल मीडिया की चिंताजनक भूमिका

आईपीसी सेक्शन 228-A के अनुसार, पीड़ित की पहचान का खुलासा करना दंडनीय अपराध है। इसके बावजूद यौन हिंसा की खबरों को किसी ‘सनसनी’ की तरह प्रकाशित की जाती है।

ट्रिगर वॉर्निंग : लेख में यौन हिंसा के मामलों का विवरण है।

साल 2012 में दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। ऐसा नहीं है कि इससे पहले देश में यौन हिंसा की घटनाएँ नहीं हुई थीं, लेकिन दिल्ली में इस केस में हुई क्रूरता के कारण नागरिकों को काफी धक्का पहुँचा था। देश में फैले आक्रोश के कारण भारत सरकार ने यौन हिंसा को लेकर कुछ नए क़ानूनों को भी जारी किया जैसे – सामूहिक बलात्कार के केस में अनिवार्य रूप से कम से कम 20 साल की सज़ा, फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट्स की शुरुआत। शायद दिल्ली केस को मिली प्रतिक्रिया का असर ही था, कि देश में यौन हिंसा को लेकर खुलकर बातें की जाने लगीं।

पुलिस रिकोर्ड्स की मानें तो साल 2013 में 2012 के मुक़ाबले बलात्कार और छेड़खानी जैसे मामलों की रिपोर्ट्स दुगनी संख्या में दर्ज कराई गयी थीं। नेशनल क्राइम रिकोर्ड्स ब्युरो के मुताबिक़, पुलिस के पास आए 95 फ़ीसद मामले जुर्म माने गए। हालाँकि, इनमें से अधिकतर मामले अब भी कोर्ट में पेंडिंग पड़े हैं और कोई ख़ास कार्यवाही शायद ही हुई हो।दिल्ली केस के ठीक छह साल बाद, 2018 में पुनः देश में वैसा ही आक्रोश था, अंतर बस इतना था कि इस बार सड़कों पर कैंडल मार्च के बजाय इंटरनेट पर मीटू (me too) मूवमेंट चल रहा था। वैसे तो यूएस में हैशटैग मीटू की शुरुआत 2017 में ही हो चुकी थी, लेकिन भारत तक आते – आते इसे एक पूरा साल लगा।

इस मूवमेंट में देश के हर कोने, हर वर्ग की स्त्री अपने साथ हुई यौन हिंसा के विषय में बता रही थी। इसी मूवमेंट के कुछ समय पहले कठुआ और उन्नाव में यौन हिंसा की क्रूर घटनाएँ हो चुकी थीं, ज़ाहिर है कि आक्रोश बहुत ज़्यादा था। औरतों ने आवाज़ उठाई और उनकी आवाज़ दबाने के लिए उनपर आरोप भी लगाए गये। मी टू के कारण सामने आए कई मामलों के लिए कहा गया कि यह तो पब्लिसिटी स्टंट है, जमकर विक्टिम शेमिंग भी की गई। लेकिन इसी मूवमेंट के कारण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से औरतों को अपने साथ हुई हिंसा के बारे में बोलने की हिम्मत भी मिली। लेकिन सिर्फ़ हिम्मत ही मिली, न्याय या सुरक्षा नहीं।

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इसी साल जुलाई में यह खबर आई थी कि सरकार बलात्कार और पोक्सो के केसेज़ के लिए क़रीब 1023 फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट्स की स्थापना करेगी। इस समय केवल 664 फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट ही देश में सक्रिय हैं जबकि साल 2016 से 90,000 से अधिक यौन हिंसा के मामले पेंडिंग पड़े हुए हैं। यह तो न्याय प्रक्रिया के धीमे होने की बात है और सुरक्षा ?

यह एक ऐसा जटिल सवाल है, जिसका जवाब शायद ही किसी के पास हो। पिछले दिनों हैदराबाद में हुए सामूहिक बलात्कार के बाद अपराधियों ने पीड़िता को जिंद जला दिया। ऐसी मानसिकता से कैसे सुरक्षा हासिल की जाए, यह समझना और समझाना, दोनों ही मुश्किल काम हैं। इस घटना से स्तब्ध लोग सोशल मीडिया पर अलग – अलग प्रतिक्रियाएँ दे रहें हैं।

पर कुछ प्रतिक्रियाएँ बेहद चिंताजनक हैं, जैसे कि –

1. अपराधी का धर्म ढूँढना

सोशल मीडिया यूज़र्स से लेकर न्यूज़ वेबसाइट्स और चैनल्स तक ने, इस बात को हाइलाइट किया कि अपराधी का धर्म क्या है? जबकि पुलिस के ज़रिए जितनी भी जानकारी अब तक पता चली है, उसके मुताबिक़ यह साम्प्रदायिक हिंसा का मामला नहीं है।

बल्कि पीड़िता को अकेला देखकर उसे अगवा करने, यौन हिंसा के बाद सबूत मिटा देने के लिए उसकी हत्या करने का मामला है।

यौन हिंसा से जुड़ी खबरों को किसी ‘सनसनी’ की तरह प्रकाशित किया जाना बताता है कि समस्या की जड़ हमारी वह मानसिकता है, जिसका इलाज लड़कियों के सेल्फ़ डिफ़ेंस सीखने से तो हो ही नहीं सकता।

2. विक्टिम शेमिंग

स्त्री के साथ अपराध हो, और उसे ही दोषी न ठहराया जाए, ऐसा भारत तो क्या भारत के बाहर भी नहीं होता ! पिछले साल ही आयरलैंड में एक ऐसा केस सामने आया था जहाँ डिफेंस वक़ील ने 17 साल की पीड़िता के अंतर्वस्त्र को पेश करते हुए, उसे ‘बलात्कार के लिए सहमति’ देने से जोड़ा और इसका विरोध करते हुए महिलाओं ने सोशल मीडिया पर #ThisIsNotConsent – ‘यह सहमति नहीं’ के पोस्ट्स को ट्रेंड कराया।

हैदराबाद के इस केस में भी, लोगों ने सवाल उठाए कि पीड़िता ने डर लगने पर सबसे पहले पुलिस को कॉल क्यों नहीं किया? जबकि पुलिस ने पीड़िता के परिवार को यह तक कहा कि शायद उनकी बेटी किसी के साथ भाग गई हो।

इस तरह की असंवेदनशीलता नयी नहीं है और सरकार क़ानून जारी कर रही है। न्याय प्रक्रिया को तेज़ करने की बात कर रही है, लेकिन पुलिस विभाग को जेंडर सेंसीटाईज़ेशन ट्रेनिंग देने के विषय में कब बात होगी ? ऐसा नहीं है कि इस सम्बंध में ट्रेनिंग प्रोग्राम दिए नहीं गए, लेकिन ज़ाहिर है कि जितनी उम्मीद और ज़रूरत है, वे उतने प्रभावशाली साबित नहीं हो पा रहे।

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3. पीड़िता की पहचान सुरक्षित न रखना

आईपीसी सेक्शन 228-A के अनुसार, पीड़ित की पहचान का खुलासा करना दंडनीय अपराध है। पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट का जजमेंट था कि यौन हिंसा के पीड़ितों के बारे में मीडिया रिपोर्टिंग उनके नाम और पहचान को गुप्त रखते हुए भी की जा सकती है।

पीड़ित की पहचान या तो उसकी सहमति से, या फिर परिवार की सहमति से या किसी दुर्लभ मामले में, सुप्रीम कोर्ट की सहमति से उजागर की जा सकती है। जैसे साल 2012 दिल्ली केस की पीड़िता की पहचान उनके परिवार की सहमति से उजागर की जा चुकी है।लेकिन हैदराबाद केस में सोशल मीडिया पर न सिर्फ़ पीड़िता की मृत्यु से पहले की तस्वीरें, बल्कि मृत्यु के बाद उनकी जली हुई लाश तक की तस्वीरें बड़ी संख्या में पोस्ट और शेयर की गयीं।

यहाँ तक कि उनका नाम और पहचान भी उजागर कर दी गयी है और इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि पहचान उजागर करने के लिए परिवार द्वारा सहमति दी गयी थी या नहीं! यह ग़ैर ज़िम्मेदाराना काम न सिर्फ़ सोशल मीडिया यूज़र्स, बल्कि कुछ न्यूज़ वेबसाइट्स के द्वारा भी किया गया। चिंता की बात यह है कि न सिर्फ़ यह एक ग़ैर क़ानूनी काम है, बल्कि हिंसा के बाद किसी भी पीड़ित की तस्वीरें इस तरह से शेयर करना ‘पेन पोर्नोग्राफ़ी’ भी है। इससे मानसिकता पर ग़लत प्रभाव पड़ता है और हिंसा को बढ़ावा ही मिलता है।

इसके अलावा, मीडिया रिपोर्टिंग के संबंध में एक और चिंताजनक बात यह भी दिखाई दे रही है कि किसी भी संवेदनशील विषय, ख़ासतौर पर यौन हिंसा से जुड़े विषयों पर रिपोर्ट्स प्रकाशित करते समय शुरुआत में ही यह ट्रिगर वॉर्निंग या सूचना नहीं लिखी जा रही है कि रिपोर्ट में यौन हिंसा से जुड़े अनुभव या फिर गम्भीर विवरण शामिल किए गए हैं।

आईपीसी सेक्शन 228-A के अनुसार, पीड़ित की पहचान का खुलासा करना दंडनीय अपराध है।

यौन हिंसा से जुड़ी खबरों को किसी ‘सनसनी’ की तरह प्रकाशित किया जाना बताता है कि समस्या की जड़ हमारी वह मानसिकता है, जिसका इलाज लड़कियों के सेल्फ़ डिफ़ेंस सीखने से तो हो ही नहीं सकता। खबरों की मानें तो हैदराबाद की पीड़िता के पास भी पेपर सप्रे था, तो क्या वाक़ई आत्मसुरक्षा के उपाय सीखना ही काफी है ? और क्या यही यौन हिंसा से बचने का एक सही रास्ता है ?

अगर हाँ, तो यह समझने की ज़रूरत है कि छोटी बच्चियाँ, बूढ़ी महिलाएँ, विकलांग स्त्रियाँ इस उपाय को शायद नहीं अपना सकतीं तो क्या ऐसे हालात में वे एक सुरक्षित समाज में रहने का हक़ नहीं रखतीं ?

विरोधाभास यहाँ भी हैं, क्योंकि अगर समाज के बदलने से ही हालात बेहतर होंगे तो बदलाव भी रातोंरात नहीं आने वाले हैं। समाज की मानसिकता अचानक नहीं बदल जाएगी। और जब तक मानसिकता बदलेगी, तब तक हम नहीं जानते कि कितने ऐसे केस हमारे सामने आएँगे !

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तस्वीर साभार : The Hindu

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