16 दिसंबर 2012, ये वो तारीख़ है जिसे याद करके आज भी राजधानी दिल्ली का सिर शर्म से झुक जाता है। क्योंकि यही वो दिन था जब बस में सफर करती निर्भया, एक अमानवीय दुष्कर्म की शिकार बन गई थी। साल 2012 में हुआ निर्भया रेप केस, इतना निर्मम था कि उसके विरोध में पूरा देश सड़कों पर उतर आया। उस वक़्त की सरकार ने हज़ारों वायदे किए, दिन बदला, सरकारें बदली पर नहीं बदली तो औरतों के साथ होने वाली दुष्कर्म की घटनाएं। निर्भया के बाद भी अनेकों लड़कियां निर्भया बनीं और इस तस्वीर में कोई खास फर्क देखने के लिए नहीं मिला। सबसे हताशकरने वाली बात तो ये रही कि आठ साल बाद भी निर्भया के दोषी को अभी तक सजा नहीं मिली। उनकी फांसी की तारीख हर बार कानूनी दांवपेंच के चलते टल रही है।
कोई भी रेप की घटना सामने आने के बाद लोगों के मन में आरोपियों के लिए इतनी घृणा भर जाती है कि वो लोग दुष्कर्मियों को केवल फांसी के फंदे से लटकते देखना चाहते हैं। पर यहां पर यह सवाल आता है कि, क्या केवल फांसी मात्र पर लटका देना काफी होता है? क्या लोगों के बीच फांसी का डर बैठाना सही है? या जब सज़ा देने में ही आठ साल तक का समय लग जाता है तो क्या वो डर लोगों के अंदर बैठता भी है?
किसी भी तरह की सज़ा देने का मकसद सुधार होता है और मौत की सज़ा देने के बावजूद भी हमने रेप की घटनाओं में कोई सुधार होते हुए नहीं देखा। आज भी जो लोग रेप करना चाहते हैं, उनमें फांसी या मौत का अगर कोई खौफ होता तो आज हमारे पास रेप के मामलों की एक लंबी सूची नहीं होती।
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इसलिए यह ज़रूरी है कि हम रेप के मामलों की बढ़ती हुई संख्या पर रोक लगाने के लिए समस्या की गहराई में जाए। क्योंकि वास्तव में रेप की जड़े, रेप करने वाले की मानसिकता में होती है। हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा पितृसत्ता से प्रभावित है, जहां लड़कों को एक औरत के ऊपर नियंत्रण रखना सिखाया जाता है। इसीलिए कई बार बहुत से पुरुषों में यह घमंड आ जाता है कि अगर उन्हें कोई लड़की पसंद आ गई तो उस लड़की पर उन्हीं का हक है।
हमें समझना होगा कि रेप कोई हादसा नहीं बल्कि ये एक सोच है जो वक़्त के साथ बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रही है। हमें ज़रूरत है कि हम उस सोच को बदलने पर काम करें।
अक्सर लोग, अंग्रेज़ी के शब्द ‘ कंसेंट’ जिसे हिन्दी में सहमति कहा जाता है, का मतलब भूल जाते हैं। रेप की घटनाएं शादी के बाद भी सामने आती है, जिसे हम मैरिटल रेप कहते हैं। मैरिटल रेप के मामले देखने को मिलते हैं, क्योंकि पुरुषों को लगता है कि शादी के बाद पत्नी पर उनका पूरा अधिकार है। और इसी अधिकार के चलते वो अपनी पत्नी के साथ कुछ भी कर सकते हैं। इसीलिए यह ज़रूरी है कि हम छोटी उम्र से ही लड़कों को यह समझाना शुरू करें कि सिर्फ शारीरिक रूप से बलिष्ठ होने के कारण वो किसी के साथ जबरदस्ती नहीं कर सकते। हर इंसान की अपनी पसंद-नापसंद होती है, जिसका सम्मान करना ज़रूरी है। इसके अलावा हमारे समाज को यौन शिक्षा के बारे में जानने की सख्त ज़रूरत है। ताकि सेक्स को लेकर लोगो के मन में संकुचित धारणाएं न बनें।
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लोग यह समझे कि सेक्स शरीर की उतनी ही सामान्य क्रिया है, जितना सामान्य हमारा सांस लेना या भोजन करना होता है। किशोरावस्था में अक्सर बच्चे इन सब विषयों के बारे में जानने के लिए उत्साहित हो जाते है और सही से जानकारी ना मिलने के कारण वो गलत स्रोतों की तरफ बढ़ते हैं। यही गलत स्त्रोत अक्सर बच्चों की पूरी सोच और जिंदगी खराब कर देते हैं।
जब बच्चों को सही उम्र में यौन शिक्षा से जुड़ी अपनी जिज्ञासाओं का जवाब किताबों में ही मिल जाएगा, तब वो उन सवालों के लिए गलत स्रोतों की तरफ नहीं जाएंगे। आमतौर पर हमारे घरों में एक बेटी की परवरिश करते हुए उसे सबका आदर करना सिखाया जाता है, पर वहीं हम अकसर अपने बेटो की परवरिश करते हुए हम उन्हें ये समझाना भूल जाते हैं कि उन्हें औरतों के प्रति किस तरह सम्मानजनक रहना चाहिए। क्योंकि अगर रेप की समस्या पर अंकुश लगाना है तो यह ज़रूरी है कि हम लोगों की सोच पर काम करें और आसपास के वातावरण में भी एक अच्छी सोच का प्रसार करें।
इसी संदर्भ एक और बड़ी परेशानी तब आती है, जब रेप होने के बाद हम अपराधी से ज्यादा पीड़िता को दोषी बना देते हैं। यही वजह है कि लड़कियां अपने साथ हुए दुष्कर्म के बारे में मुखर भी नहीं होती। हमारे समाज ने लड़की के चरित्र और सम्मान को उसके शरीर से जोड़ा हुआ है। अगर वो वर्जिन है, तो वो पवित्र है। अगर वो वर्जिन नहीं, तो वो पवित्र भी नहीं। पर एक लड़की की वर्जिनिटी को आखिर इतना तोला मोला क्यों जाता है? कई बार रेप की घटना के बाद यह सुनने को मिलता है कि लड़कियों को भी अपने कपड़ों और हाव भाव का ध्यान रखना चाहिए। उन्हें ध्यान देना चाहिए कि वो किसी लड़के को ‘एक्साइट’ तो नहीं कर रहीं। पर सवाल यह है कि जब तीन साल की, फ्रॉक पहनने वाली लड़की का भी रेप किया जाता है,तब भी क्या उसके कपड़ों की गलती होती है? तीन साल की बच्ची अपनी कौन सी अदाओं से एक पुरुष को ‘एक्साइट’ कर देती है? क्या पुरुषों का खुद पर, अपने शरीर पर, अपनी इच्छाओं पर कोई नियंत्रण नहीं होता?
वास्तविकता यह है कि अगर कोई लड़की बिना कपड़ों के भी चले तो किसी लड़के को हक नहीं है कि वो उसके साथ किसी भी तरीक़े का दुर्व्यवहार करे। हमारे पितृसत्तात्मक समाज को यह समझने की ज़रूरत है कि रेप की बढ़ती समस्या का हल अपराधियो को फांसी के फंदे पर लटका कर मारने से नहीं हो पाएगा। अगर मारना है तो उस सोच को मारें तो जो किसी भी पुरुष को रेप करने के लिए आगे बढ़ने का प्रोत्साहन देती है। अगर नियंत्रण करना है तो औरतों पर नहीं बल्कि लड़कों को अपने आप पर करना सिखाना चाहिए।
हमें समझना होगा कि रेप कोई हादसा नहीं बल्कि ये एक सोच है जो वक़्त के साथ बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रही है। हमें ज़रूरत है कि हम उस सोच को बदलने पर काम करें। रेप होने के बाद दोषियों को मारने से बेहतर, रेप होने ही न दें।
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तस्वीर साभार : news18
चेतना काला,
इस लेख के माध्यम से हम आपके विचारों से रूबरू हुए और लेख पढ़ने के बाद यही कहूंगा कि यदि हर व्यक्ति के विचार आपसे मिलने लगे तो समाज मे एक सकारात्मक परिणाम दिखाई देगा।
आपने बहुत सुंदर तरीके से स्पष्ट किया है कि ‘फांसी’ की सज़ा समाज मे रेप रोकने में नाकाफ़ी है, जरूरत है तो सोच में बदलाव लाने की और यही स्थाई समाधान होगा।
इस सुंदर लेखनी के लिए आपका शुक्रिया, अपने लेखों से सामाजिक चेतना को जाग्रत करते रहिए।
चेतना काला,
इस लेख के माध्यम से हम आपके विचारों से रूबरू हुए और लेख पढ़ने के बाद यही कहूंगा कि यदि हर व्यक्ति के विचार आपसे मिलने लगे तो समाज मे एक सकारात्मक परिणाम
दिखाई देगा।
आपने बहुत सुंदर तरीके से स्पष्ट किया है कि ‘फांसी’ की सज़ा समाज मे रेप रोकने में नाकाफ़ी है, जरूरत है तो सोच में बदलाव लाने की और यही स्थाई समाधान होगा।
इस सुंदर लेखनी के लिए आपका शुक्रिया, अपने लेखों से सामाजिक चेतना को जाग्रत करते रहिए।