देश, भाषा, व्यवहार, संस्कार और संस्कृति ये सभी किसी भी समाज को एक-दूसरे से अलग करने के लिए काफ़ी होते हैं। इसका जीवंत उदाहरण हम मौजूदा समय में अपने देश में भी आए दिन देख सकते हैं, जहां इन्हीं पर आधारित पहचान पर हिंसा का दौर चरम पर है। पर इन सबके बीच कुछ ऐसे पहलू भी है जो सभी समाज में कमोबेश एक जैसे पाए जाते है। जैसे – महिला की स्थिति।
एक औरत का अस्तित्व, उसकी पहचान, दायरे और इन आधारों पर कई स्तरों पर उनके साथ होने वाली हिंसा का क़िस्सा दुनिया में कमोबेश एक जैसा ही है। यों तो महिला हिंसा का विषय अपने देश में पहले भी चर्चा का विषय था और आज भी है, हो सकता है कल भी रहे क्योंकि महिला के संदर्भ में समय बदलता है, हिंसा का स्वरूप बदलता है लेकिन मूल एक ही रहता है – महिला हिंसा।
हाल ही में सोशल मीडिया में पाकिस्तान में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विडियो लाँच किया गया। ये विडियो है एक गाने का। या यों कहें कि महिलाओं के बीच होते संवाद का, जिसे बेहद ख़ूबसूरती से गीत के रूप में दर्शाया गया है। आज हम इसी गीत की बात करेंगें, क्योंकि ये गीत सरहद की लकीरों से परें ‘हम महिलाओं’ की बात को एक सुर में पिरोता है। ये गीत साल 1902 में अल्लामा इक़बाल की लिखी एक नज़्म ‘लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी’ की तर्ज़ पर पाकिस्तान के जाने-माने फ़िल्म निर्देशक, निर्माता, संगीतकार और गीतकार शोएब मंसूर ने लिखा है। बता दें ये वही शोएब मंसूर है, जिन्होंने ‘बोल’ और ‘ख़ुदा के लिए’ जैसी फ़िल्मों के ज़रिए पितृसत्तात्मक व्यवस्था और मज़हब की ख़ामियों को खुलेतौर से उजागर कर उनसे चुनौती ली। वहीं विडियो में फ़िल्माए गये गीत को गाया है दामिया फारूक शहनाज़ और महक अली ने।
इस विडियो का नाम है – ‘दुआ-ए-रीम’ यानी कि ‘दुल्हन की दुआ।’ इसमें दुल्हन के किरदार में पाकिस्तान की मशहूर अभिनेत्री माहिरा खान।
इस गाने में दुल्हन की दुआ को दो हिस्सों में फ़िल्माया गया है। पहला हिस्सा वो है जिसमें पितृसत्तात्मक सोच के साथ पली-बढ़ी महिलाएँ, पितृसत्तात्मक समाज में महिला की ज़िंदगी को जस का तस आगे बढ़ाने की परंपरा को अपनी संगीतमय दुआ के ज़रिए विरासत के रूप में दुल्हन को सौंप रही है। विडियो पुराने जमाने के शाही अंदाज़ में तैयार किया गया है, जो बेहद रसूखदार तबके को दर्शाता नज़र आता है। इस रस्म में महिलाएँ और लड़कियाँ क़ीमती गहनों-कपड़ों से सजी है। ऐसे में जब गीत की शुरुआत में ही ये नसीहत दी जाती है कि अम्मा को दुल्हन के पास बैठाया जाए, तो सारी औरतों के बीच अम्मा केंद्र बन जाती है। अम्मा के कपड़े और गहने शान से चमकते नज़र आ रहे है, लेकिन चेहरे की रंगत ‘हिंसा’ का एक काला इतिहास बयां कर रही है। इसके बाद कजरी बेगम (जो विडियो में दुआ करने आयी महिलाओं में प्रमुख हैं) अपने गीत की शुरुआत करते हुए कहती हैं कि –
लब पे आवे है दुआ बनके तमन्ना मेरी
ज़िंदगी अम्मा की सूरत हो खुदाया मेरी
अम्मा, जिनके चेहरे के हावभाव से ही ज़ाहिर हो रहा है कि उन्होंने अपनी आधी से ज़्यादा ज़िंदगी हिंसा सहते और तथाकथित परिवार को बचाते गुज़ार दी, दुआ की पहली लाइन सुनते ही दुल्हन अम्मा का मुँह निहारने लगती है। फिर दुआ आगे बढ़ती है –
मेरा ईमां हो शौहर की इताअत करना
उनकी सूरत की न सीरत की शिकायत करना
घर में गर उनके भटकने से अंधेरा हो जावे
नेकियां मेरी चमकने से उजाला हो जावे
धमकियां दे तो तसल्ली हो के थप्पड़ न पड़ा
पड़े थप्पड़ तो करूं शुक्र के जूता न हुआ
हो मेरा काम नसीबों की मलामत करना
बीवियों को नहीं भावे है बगावत करना
मेरे अल्लाह लड़ाई से बचाना मुझको
मुस्कुराना गालियां खा के सिखाना मुझको
ये वो नसीहतें है, जो बेशक किसी दुआ के कार्यक्रम में अब हमें बक़ायदा गाकर नहीं दी जाती, लेकिन हाँ, पलती-बढ़ती लड़की को हर पल दी ‘जन्मघुट्टी’ की तरह दी जाती है। ऐसे में जैसे हम लकड़ियों की प्रतिक्रिया होती है- हम मुँह सिकोड़ती है और दांत पिसती है। ठीक उसी भाव से विडियो में माहिरा अपनी उँगलियाँ मलते दिखती है। वो बार-बार अपनी माँ का मुँह निहारकर नज़रों से उनसे सवाल करती है। लेकिन वो चुप नहीं बैठती और न कार्यक्रम रोकती है। पर अपनी तेज आवाज़ उन्हें ‘बस’ करती है और सवाल करती हैं कि ‘ये किस तरह की हौलनाक (ख़तरनाक) दुआएँ की जा रही है।’
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वास्तव में ऐसी हर दुआ या नसीहत में हम सभी को सवाल करना चाहिए। माहिरा उसके बाद सशक्त रूप में गर्व के साथ कहती है – ‘मेरी दुआ है। हम ख़ुद करेंगें।’ उसके बाद उन्होंने जो कहा, वो हर महिला-लड़की को सुनना, देखना, समझना और अपने जीवन में लागू करना चाहिए। वो कहती हैं –
लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी
घर तो उनका हो हुकूमत हो खुदाया मेरी
मैं अगर बत्ती बुझाऊं के अंधेरा हो जाए
मैं ही बत्ती को जलाऊं के उजाला हो जाए
मेरा ईमान हो शौहर से मुहब्बत करना
न इताअत न गुलामी न इबादत करना
न करूं मैके में आकर मैं शिकायत उनकी
करनी आती हो मुझे खुद ही मरम्मत उनकी
आदमी तो उन्हें तूने है बनाया या रब
मुझको सिखला उन्हें इंसान बनाना या रब
घर में गर उनके भटकने से अंधेरा हो जाए
भाड़ में झोंकू उनको और उजाला हो जाए
वो हो शाहीन तो मौला मैं शाहीना हो जाऊं
और कमीने हो तो मैं बढ़के कमीना हो जाऊं
लेकिन अल्लाह मेरे ऐसी न नौबत आए
वो रफाकत हो के दोनों को राहत आए
वो मुहब्बत जिसे अंदेशा-ए-ज़वाल न हो
किसी झिड़की, किसी थप्पड़ का भी सवाल न हो
उनको रोटी है पसंद, मुझको है भावे चावल
ऐसी उल्फत हो कि हम रोटी से खावे चावल
पितृसत्ता पर लैंगिक समानता का तमाचा जड़ते हुए इस बेबाक़ दुल्हन ने उन सभी हौलनाक दुआओं को पलट दिया, जो उन्हें पितृसत्ता के खाँचे में ढलने, गढ़ने और मरने के लिए की जा रही थी। दुल्हन के इन लफ़्ज़ों में बग़ावत है जिसमें वो ख़ुद को अधिकार के साथ ससम्मान पति के घर स्थापित होने की बात करती है और पति के कमीने होने पर ख़ुद कमीना होने की बात करती है। वही ये दुल्हन मुहब्बत से पीछे नहीं हटती, वो पति से मुहब्बत की बात करती है, लेकिन उसकी पूजा करने या अंधभक्त होने के सख़्त ख़िलाफ़ है। वो आशावादी है, वो नहीं चाहती कि उसे बग़ावत करना पड़े इसलिए वो ‘लैंगिक समानता’ की पैरवी करते हुए ‘मर्द’ को इंसान और दोनों की पसंद को बराबरी से तवज्जों देते हुए ‘रोटी से चावल खाने’ की बात करती है।
सात मिनट और चंद सेकेंड की इस विडियो को जब हम देखते हैं तो इसकी शुरुआत में हम देश, काल, भाषा और धर्म से परे महिला को ‘एक स्थिति’ में पाते है, जिसमें पितृसत्ता का प्रतिनिधित्व करती महिलाओं को दासता की अपनी विरासत आगे बढ़ाने की कला देख सकते है। लेकिन इस विडियो का दूसरा हिस्सा सबसे ज़्यादा प्रभावी और ऊर्जा भर देने वाला है, क्योंकि ये बेहद सकारात्मक है। ये बग़ावत की बात भी बेहद संवेदना से करता है पर हिंसा की बुनियाद ‘लैंगिक भेदभाव’ पर लगातार प्रहार करते हुए ‘लैंगिक समानता’ के सुर का दामन कहीं नहीं छोड़ता है।
आख़िर में इस विस्तार से किए गये बखान के बाद आप भी देख लीजिए ये विडियो, क्योंकि इसका आनंद ही अलग है-
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