इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ अंजना हरीश की मौत की ज़िम्मेदार है समाज की सड़ी ‘कन्वर्शन थेरपी’

अंजना हरीश की मौत की ज़िम्मेदार है समाज की सड़ी ‘कन्वर्शन थेरपी’

अंजना की बिगड़ी मानसिक स्थिति का ज़िम्मेदार समाज में फैला 'होमोफोबिया' है जो समलैंगिक, बाईसेक्शुअल और ट्रांसजेंडरों को चैन से जीने नहीं देता।

उसका नाम था अंजना हरीश। केरल के कन्नूर की रहनेवाली थी। 21 साल की उम्र में थालास्सेरी के ब्रेनन कॉलेज में मलयालम साहित्य में ग्रेजुएशन कर रही थी। हाल ही में उसने अपनी ‘बाइसेक्शुअल’ पहचान को अपनाया था और दुनिया के सामने एक ‘क्वीर’ इंसान के तौर पर अपना परिचय दिया था। इसके कुछ ही महीने बाद, 12 मई को गोवा में उसकी लाश एक पेड़ से लटकती हुई मिली। एक होशियार, ख़ूबसूरत, हंसती-खेलती इंसान हमेशा के लिए इस दुनिया से गायब हो गई।

ये खतरनाक कदम उठाने के पीछे उसकी क्या वजह थी? किन हालातों ने अंजना को अपनी जान दे देने के लिए मजबूर किया होगा? किस तरह के दबाव के कारण उसने ये फ़ैसला लिया?

अंजना के फ़ेसबुक प्रोफाइल से एक ‘लाइव’ वीडियो मिला है जो उसने 13 मार्च को बनाया था। इस लाइव वीडियो में वो बताती हैं कि उसके मां-बाप उसके बाइसेक्शुअल होने का समर्थन नहीं करते और उसे शारीरिक और मानसिक तौर पर उत्पीड़ित कर रहे हैं। वो कहती है कि लगभग एक महीने के लिए उन्होंने उसे ‘ठीक’ करने के लिए कई ऐसी संस्थाओं में भेजा था जहां ‘कन्वर्शन थेरपी’ की जाती है। ‘कन्वर्शन थेरपी’ यानी समलैंगिक, बाइसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर्ड आदि लोगों को ‘स्वाभाविक’ बनाने की मेडिकल प्रक्रिया जो एक से ज़्यादा पश्चिमी देशों में ग़ैर-कानूनी है।

ये अनुभव अंजना के लिए भयावह था। वो कहती है, ‘तीन हफ़्तों तक मुझे वहां एक अंधेरे कमरे में बंद रखा गया था। सिर्फ़ खाने के वक़्त मुझे बाहर निकालते थे। मुझे दिन में कुछ चालीस इंजेक्शन दिए जाते थे जिसकी वजह से मेरा शरीर और मन दोनों टूट चुके हैं। इन दवाओं की वजह से मुझे सारा दिन चक्कर आता था। मैं अभी भी ठीक से चल या बोल नहीं पा रही हूं। मुझे पता नहीं मैं क्या करूं।’

तीन हफ्ते इस तरह के टार्चर के बाद अंजना को कुछ समय के लिए एक और ऐसी संस्था में भेजा गया, जहां उसे और भी उत्पीड़ित किया गया। इसके बाद उसे घर ले जाया गया, जहां से वो अपने दोस्तों की मदद से भाग गई। भागने के बाद वो एक दोस्त के यहां रहने लगी। उसकी मां ने पुलिस में उसके लापता होने का रिपोर्ट दर्ज कराया, जिसके बाद उसे और उसके दोस्त को कोर्ट में हाज़िर होना पड़ा। अदालत में अंजना ने बताया कि उसे अपने घरवालों के साथ असुरक्षित महसूस होता है और वो अपने दोस्त के यहां ही रहना चाहेगी, जिसकी इजाज़त बालिग़ होने की वजह से उसे मिल भी गई।

अंजना की बिगड़ी मानसिक स्थिति का ज़िम्मेदार समाज में फैला ‘होमोफोबिया’ है जो समलैंगिक, बाईसेक्शुअल और ट्रांसजेंडरों को चैन से जीने नहीं देता।

17 मार्च को अपने दोस्तों के साथ अंजना गोवा घूमने गई। इसके कुछ ही दिनों बाद देशभर में लॉकडाउन लागू होने की वजह से वे गोवा में ही फंसे रहे। अंजना तब भी मानसिक रूप से पूरी तरह ठीक नहीं हुई थी और लॉकडाउन में फंस जाने का प्रभाव उसकी मानसिक स्थिति पर पड़ने से वो और विचलित हो गई। दो महीने बाद, मानसिक पीड़ा बर्दाश्त न कर पाने की वजह से उसने खुदकुशी कर ली।

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अंजना की बिगड़ी मानसिक स्थिति के लिए ज़िम्मेदार सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे समाज में फैला ‘होमोफोबिया’ है जो समलैंगिक, बाईसेक्शुअल और ट्रांसजेंडरों को चैन से जीने नहीं देता। ‘कन्वर्शन थेरपी’ नाम का कलंक दुनिया के कई देशों में एक कानूनन अपराध है पर भारत में संस्कृति या धर्म की आड़ में ये आज भी कई जगह चालू है। साल 2018 में भारतीय मनोवैज्ञानिक संघ ने समलैंगिकता को मानसिक बीमारियों की सूची से निकाल दिया था पर इसके बावजूद एलजीबीटी समुदाय के लोगों को ‘बीमार’ माना जाता है और ‘इलाज’ के नामपर उनके अपने परिवार वाले ही उन पर हर तरह के ज़ुल्म करते हैं। अंजना जैसे कई लोगों को इस तरह का शोषण सहने के बाद आत्महत्या करनी पड़ी है।

भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 377 के तहत समलैंगिकता को अब कानूनन अपराध नहीं माना जाता। फिर क्यों एलजीबीटी लोगों को कैदियों की तरह बंद करके रखा जाता है? क्यों उन पर इतना नृशंस अत्याचार किया जाता है? उनके मानवाधिकारों की कोई कद्र क्यों नहीं है? अंजना की आत्महत्या के कुछ ही दिनों बाद तमिलनाडु से ख़बर आई एक लेस्बियन जोड़ी की आत्महत्या की। नमक्कल ज़िले में 23 साल की ज्योति और 20 साल की प्रिया ने ज्योति के घर में खुदकुशी कर ली थी क्योंकि प्रिया के परिवार ने उसकी शादी एक आदमी के साथ तय कर ली थी। इससे पहले पिछले साल ही कोलकाता में एक ट्रांसजेंडर औरत को भीड़ ने पीट पीटकर मार दिया था।

ये घटनाएं महज़ इत्तेफ़ाक़ नहीं हैं। हमारे समाज में एलजीबीटी समुदाय को इंसानों के तौर पर नहीं देखा जाता। उनसे इंसानों जैसा बर्ताव नहीं किया जाता। आए दिन उन्हें उनके यौनिक परिचय की वजह से तिरस्कार का पात्र बनाया जाता है या उन्हें ‘ठीक’ करने के लिए उनका शोषण किया जाता है। होमोफोबिया नाम के इस ज़हर को जड़ से उखाड़ फेंकने की ज़रूरत है ताकि समाज के एक बड़े अंश को अपने मानवाधिकार हासिल हों। सिर्फ क़ानूनी बदलाव लाने से कुछ नहीं होगा। हमें जल्द से जल्द अपनी मानसिकता बदलने की ज़रूरत है। अंजना हरीश जैसे लोगों को इंसाफ दिलाने का यही रास्ता है।

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तस्वीर साभार : thebetterindia

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