बॉलीवुड में एलजीबीटीक्यू+ लोगों और संबंधों के चित्रण को लेकर कई समस्याएं हैं। आमतौर पर उन्हें सिर्फ़ भद्दे हंसी-मज़ाक के लिए रखा जाता है। विषमलिंगी संबंधों को ही सच्चे प्यार के प्रतीक की तरह दिखाया जाता है। फ़िल्म का उद्देश्य अगर अच्छा भी हो, पर कई बार क्वीयर व्यक्तियों का चित्रण पूरी तरह सटीक नहीं होता है। इसके बावजूद कुछ चुनिंदा फ़िल्में बनीं है जिन्होंने एलजीबीटी संबंधों के खूबसूरत चित्रण के ज़रिए यौनिकता के विवाद को मुख्यधारा में लाने में मदद की है। हम यहां बात करेंगे ऐसी पांच यादगार फ़िल्मों की :
1. मार्गरीटा विद अ स्ट्रॉ (2016)
शोनाली बोस की यह फ़िल्म यौनिकता और विकलांगता के विभिन्न पहलुओं को उजागर करती है। कहानी है सेरीब्रल पॉलसी ग्रस्त लैला (कल्की केकला) की, जो अलग लोगों के साथ संबंधों के ज़रिए अपने शरीर, अपनी इच्छाओं और अपने आपको पहचानती है। अपनी ज़िंदगी में वह जिनसे रिश्ता जोड़ती है उनमें से एक है ख़ानम (सायनी गुप्ता)। एक दृष्टिहीन छात्रा जिसके साथ रहकर लैला को ज़िंदगी का एक नया चेहरा नज़र आता है।
लैला और ख़ानम की प्रेम कहानी बेहद खूबसूरत है। दोनों के रिश्ते की हर छोटी-बड़ी बात दिल को छू जाती है। लैला का अपने बाईसेक्शुअल होने का स्वीकार करना और अपने परिवार को ये बात बताना इस फ़िल्म के कुछ यादगार पल हैं।
2. माय ब्रदर निखिल (2005)
ओनीर की यह फ़िल्म डॉमिनिक डी सूज़ा की ज़िंदगी पर आधारित है, जिन्हें साल 1989 में एड्स संक्रमित होने की वजह से गिरफ़्तार कर लिया गया था। क्योंकि उस दौर में इस बीमारी को किसी गुनाह से कम नहीं माना जाता था। फ़िल्म में तैराकी के चैंपियन निखिल कपूर (संजय सूरी) के एचआईवी संक्रमित पाए जाने के बाद उसे अपनी टीम और अपने घर दोनों से निकाल दिया जाता है। जब पूरी दुनिया निखिल से मुंह मोड़ लेती है, उसका बॉयफ्रेंड नाइजेल (पूरब कोहली) और उसकी बहन अनामिका (जूही चावला) ही उसका सहारा बनते हैं। यह फ़िल्म एचआईवी/एड्स और यौनिकता के मुद्दों को संवेदनशीलता से चित्रित करती है और अपने समय के हिसाब से एक प्रगतिशील फ़िल्म मानी जाती है।
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3. अलीगढ़ (2016)
हंसल मेहता की यह फ़िल्म भी सत्य घटनाओं पर आधारित है। यह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रामचंद्र सिरस के बारे में है, जिन्हें उनकी समलैंगिकता के कारण यूनिवर्सिटी से निकाल दिया गया था। प्रोफ़ेसर सिरस की भूमिका मनोज बाजपेई ने निभाई है। कहानी का एक बड़ा अंश प्रोफ़ेसर और एक पत्रकार (राजकुमार राव) के रिश्ते के बारे में है, जिसकी आलोचकों द्वारा खूब सराहना हुई है।
बॉलीवुड में इस तरह की फ़िल्में बनती रहेंगी जो समलैंगिकता के बारे में एक सकारात्मक सोच पैदा करने में मदद करें।
4. सेक्शन 377 अब नॉर्मल (2019)
Zee5 पर निर्देशक फारुख कबीर की इस फ़िल्म में मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब, शशांक अरोड़ा, मानवी गागरू जैसे चहेते नाम हैं, जिन्हें आप ‘आर्टिकल 15’ जैसी फिल्मों और ‘मेड इन हेवन’ जैसी सीरीज़ में देख चुके हैं। यह फ़िल्म विभिन्न परिस्थितियों से आने वाले कुछ लोगों के बारे में है जो एलजीबीटीक्यू के अधिकारों के लिए लड़ने के लिए एकजुट होते हैं। इस फ़िल्म के बारे में निर्देशक ने कहा है कि यह ख़ासतौर पर विषमलैंगिकों के लिए बनाई गई है ताकि वे एलजीबीटीक्यू के बारे में अपनी ग़लत धारणाएं दूर कर सकें।
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5. फायर (1996)
दीपा मेहता की यह फ़िल्म शायद समलैंगिक संबंधों को दिखाने वाली पहली हिंदी फ़िल्म है। कहानी है सीता (नंदिता दास) और राधा (शबाना आज़मी) की, जिनकी शादी एक परिवार में दो भाइयों से हुई है। सीता के पति को उसमें कोई दिलचस्पी नहीं है और शादी के बाद भी वह एक दूसरी औरत से रिश्ते में रहता है और राधा के पति ने किसी धर्मगुरु की बातों में आकर सन्यास ले लिया होता है। ऐसे में सीता और राधा एक दूसरे के अकेलेपन का सहारा बन जाती हैं और धीरे-धीरे उनकी दोस्ती कुछ और में बदल जाती है।
इस फ़िल्म को लेकर बहुत विवाद हुआ था और इस पर धार्मिक भावनाएं आहत करने और भारत की संस्कृति को दूषित करने के आरोप भी लगे थे। इसके बावजूद फ़िल्म ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खूब नाम कमाया और कई पुरस्कार भी जीते।
आज हमारे देश में समलैंगिकता कानूनन अपराध नहीं है। लंबे संघर्ष के बाद सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी धारा 377 से समलैंगिकता को हटाया है। पर अभी भी लड़ाई बहुत लंबी है। एलजीबीटीक्यू को लेकर समाज में आज भी कई अवधारणाएं हैं और इन्हें दूर हटाने के लिए फ़िल्में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। इन फ़िल्मों ने समलैंगिक रिश्तों का सकारात्मक चित्रण करके यौनिकता की विविधता के मुद्दे पर प्रकाश डाला है और समाज में जागरूकता बढ़ायी है। आज एलजीबीटीक्यू पर चर्चा करने में हम पहले से ज़्यादा स्वच्छंद हैं और इसका एक बड़ा श्रेय उन फ़िल्मों को जाता है जिन्होंने इन मुद्दों को मुख्यधारा में लाने में मदद की है।
उम्मीद है कि बॉलीवुड में इस तरह की फ़िल्में बनती रहेंगी जो समलैंगिकता के बारे में एक सकारात्मक सोच पैदा करने में मदद करें। जिनके लिए एलजीबीटी हंसी-मजाक की चीज़ न हो और जिनमें ‘प्यार’ सिर्फ़ एक मर्द और औरत के बीच में न हो।
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