पैसा कमाना ही सब कुछ नहीं होता, आत्मविश्वास के साथ एक मिसाल बन जाना भी आत्मसम्मान और गर्व की बात होती है। बीते 24 मार्च को जब कोरोना वायरस के कारण जब पूरे देश में लॉकडाउन लागू कर दिया गया था, ज़रूरी सामानों को छोड़कर सभी दुकानों, बाजारों को पूरी तरह बंद कर दिया गया था। इस स्थिति में निम्न आय वर्ग और मध्यवर्गीय परिवार की आजीविका चलना बहुत मुश्किल हो गया था। पति का काम बंद, बच्चों के स्कूल बंद, ज्यादातर लोग अपने घरों में कैद हो गए थे। आर्थिक परेशानियों में घिरे लोगों के लिए अगले वक्त का खाना भी जुटाना मुश्किल हो गया। लॉकडाउन के मुश्किल वक्त में आजीविका चलाना बहुत ही मुश्किल होने लगा, तब घर की चारदीवारी के भीतर कैद रहने वाली औरत ही अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए आजीविका के लिए घर पर रहकर ही कई उपाय निकालने शुरू कर दिए। बिहार के बेतिया ज़िले की ऐसी ही कुछ महिलाओं से हम आपका परिचय करवाना चाहते हैं।
सुनीता : जब देश मे पूरी तरह लॉकडाउन लागू हुआ था तब सुनीता ने कम कीमत पर घर में बने मास्क और ग्लव्स बनाकर मोहल्ले में बांटना शुरू किया| धीरे-धीरे सुनीता के बनाए हुए मास्क प्रखंड स्तर पर मुखिया, वार्ड के माध्यम से आम लोगों तक पहुंचने लगे, जिससे सुनीता के चेहरे पर मुस्कान दिखाई देने लगी। एक ऐसा वक्त भी आया जब सुनीता ने अपने पड़ोस की 4-5 महिलाओं के साथ मिलकर बड़े स्तर पर मास्क बनाने का काम शुरू कर दिया। सुनीता की इस पहल से कोरोना वायरस के संकट के दौरान पांच परिवारों की महिलाओं को रोज़गार मिला। इतना ही नहीं इन महिलाओं ने अपने बेरोज़गार पतियों को भी इस काम में शामिल किया।
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नीतू : नीतू का परिवार पूरी तरह उनके पति की आजीविका पर निर्भर था। नीतू के पति हर दिन पकौड़े का ठेला लगाकर अपना और अपने परिवार का गुज़ारा कर रहे थे लेकिन लॉकडाउन के कारण उनकी कमाई का यह ज़रिया पूरी तरह ठप्प पड़ गया। लॉकडाउन के कारण घर की स्थिति खराब होने लगी, तब नीतू बाजार से 2 किलो चना खरीदकर ले आई। इस चने को उन्होंने घर में ही सुखाकर सत्तू पीसने का काम शुरू कर दिया। इस सत्तू को उन्होंने कम कीमत में बाज़ार में बेचना शुरू किया। चूंकि ये सत्तू की हाथ से पिसा होता था इसलिए उसके स्वाद में और बाजार के सत्तू के स्वाद में अंतर था इसलिए नीतू के सत्तू की मांग ज्यादा होने लगी। लॉकडाउन के दौरान ही नीतू के द्वारा हाथ से पिसे सत्तू की बाज़ार में मांग बढ़ गई।
जब घर के मुखिया ही फेल होते नजर आए तब महिलाओं ने अलग-अलग कामों के ज़रिए अपने परिवार को संभाला।
सुमन : लॉकडाउन के दौरान सुमन के घर की भी माली हालत बिगड़ने लगी तो उन्होंने घर पर ही बेसन और मसाला बनाकर पड़ोस में बेचना शुरू कर दिया। वे छोटी-छोटी दुकानों में भी बेसन एवं मसाला देनी लगी। धीरे-धीरे उनके द्वारा बने मसाले लोगों को पसंद आने लगे और सुमन अपनी आजीविका स्वयं चलाने लगी।
संध्या : संध्या के पति विकलांग हैं और उनके 3 बच्चे हैं। लॉकडाउन के कारण संध्या के घर की भी माली हालत चुनौतीपूर्ण हो गई। जब देश में लॉकडाउन लागू किया गया तब संध्या के परिवार के सामने आजीविका की समस्या आ खड़ी हुई। तब संध्या ने आपदा को अवसर में बदलने का प्रयास किया| जब शहर में सभी होटल और ढाबे बंद थे और काम करने वाले लोगों को खाने-पीने की दिक्कतें होने लगीं, तब संध्या ने टिफिन बनाकर कार्यलयों में डिलिवर करने का काम शुरू किया। उनके इस प्रयास से कार्यलयों में काम करनेवालों को घर का खाना मिलने लगा और संध्या को उसकी परेशानियों का हल।
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तनु : बिहार के मोतिहारी ज़िले की तनु एक मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक़ रखती हैं।| उनका परिवार पूरी तरह उनके पति और ससुर द्वारा कमाए गए पैसों पर निर्भर था लेकिन लॉकडाउन के कारण उनके परिवार की भी आर्थिक परेशानियां बढ़ती गई। लेकिन संध्या ने धैर्य से काम लेते हुए इस दौरान सिलाई का काम शुरू कर दिया। चूंकि आवश्यक चीज़ों को छोड़कर सभी दुकानें बंद थी इसलिए तनु ने गांव की ही औरतों के ब्लाउज, पेटिकोट सिलने शुरू दिए। इसके साथ ही उन्होंने चादर के ऊपर बुनाई भी शुरू कीे।धीरे-धीरे पड़ोस के लोगों को तनु के काम के बारे में पता चला और इस तरह तनु अपने घर की आर्थिक स्थिति को बेहतर करने में सफल रही।
आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है ऐसा तो सुना था लेकिन लॉकडाउन के समय यह कहावत सच होती भी दिखी| जब घर के मुखिया ही फेल होते नजर आए तब महिलाओं ने अलग-अलग कामों के ज़रिए अपने परिवार को संभाला। जब कोई भी महिला घर से बाहर निकलकर कुछ करना चाहती हैं, तब उसका पति बोलता है कि औरत के कमाने से मर्द का पेट भरेगा? तब औरत ने साबित कर दिया कि अगर बराबरी का अवसर मिले तो औरतें कई मायनों मर्दों से बेहतर काम कर सकती है।
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यह लेख अमित कुमार ने लिखा है, जो राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन के तहत नगर मिशन प्रबंधक के पद पर कार्यरत है।
तस्वीर साभार : अमित कुमार