पितृसत्ता दो बातों पर गहरा जोर देती है- एक तो लड़कियों को चुप करवाने पर और दूसरा उनसे जुड़ी चीज़ें छिपाने पर, फिर चाहे वह पीरियड्स हो या सेक्स हो। इन दोनों ही मानसिकताओं को स्कूलों में भी अच्छे से पोषित किया जाता है। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि जिन्हें हम ‘विद्या का मंदिर’ कहते है, वही स्कूल पितृसत्तात्मक सोच की भी नींव रखते है।
स्कूल से ही दो प्रकार की लड़कियों की श्रेणी बना दी जाती है। एक तो वे जो ‘ज्यादा’ बोलती हैं, तैयार होकर स्कूल आती हैं, लड़कों से बातें करती हैं, कॉरिडोर में ‘जोर-जोर’ से हंसती हैं, स्कूल के बाद रेहड़ी वाले के यहां गोलगप्पे खाती हैं, टीचर को जवाब देती हैं आदि। जो भी लड़कियां ये सारे काम करती हैं उन्हें स्कूल से ही ‘बिगड़ी हुई लड़की’ का तमगा दे दिया जाता है। इसी तमगे से बचने के लिए, न चाहते हुए भी लड़कियां कम बोलना सीख जाती हैं, चुपचाप हंसना सीख जाती हैं, स्कूल से सीधे घर आना सीख जाती हैं। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि स्कूलों से ही लड़कियां चलती-फिरती रोबोट बन जाती हैं। लड़कियों को रोबोट बनाने में हमारे शिक्षकों और स्कूल प्रशासन का भी एक अहम योगदान होता है।
यही नहीं, जब छात्राएं छोटी कक्षा से बड़ी कक्षा में जाती हैं तो उनके कपड़ो में भी एक बदलाव होता है। वे स्कर्ट से सलवार-कमीज़ पहनना शुरू करती हैं। इसी सलवार-कमीज़ के साथ उन्हें दुपट्टा ओढ़ना भी सिखाया जाता है। यहां ये छात्राएं सिर्फ दुपट्टा ओढ़ना नहीं सीखती बल्कि ये भी सीखती है कि खुद की रक्षा के लिए उन्हें ही खुद को ढकना होगा। ये नहीं सोचा जाता कि छात्राओं को दुपट्टा लगवाने की जगह, हमें छात्रों को लैंगिक संवेदना, समानता से जुड़ी बातें सिखाई जानी चाहिए।
इसके अतिरिक्त, पीरियड्स के चारों और जो चुप्पी हम अपने घरों और परिवारों में देखते है, उसकी एक जड़ स्कूल भी है। स्कूलों में जहां लड़के और लड़कियां एक साथ पढ़ते हैं वहांभी लड़कियां-लड़कों के सामने पीरियड्स के बारे में बात करने से कतराती है। पीरियड्स के मुद्दे पर उनकी इस शर्म का बढ़ावा देते हैं स्कूल के शिक्षक। न तो महिला शिक्षक इस विषय पर बातचीत का बढ़ावा देती है और न ही ये समझती हैं कि लड़कों की सोच भी इन विषयों पर विकसित होनी जरूरी है।
अगर शिक्षकों से ही हमारे बच्चे पितृसत्तात्मक व्यवहार और सोच सीखेंगे, तो फिर लैंगिक बराबरी कैसे संभव हो पाएगी?
और पढ़ें : कैंपस में लड़कियों की आज़ादी पर कर्फ्यू कब खत्म होगा
इस सोच और व्यवहार के अतिरिक्त, एक और जरूरी मुद्दा है- यौन हिंसा और उत्पीड़न का। स्कूल में बच्चे यौन हिंसा का भी सामना करते हैं। ऐसे दुष्कर्म करने वालों में विद्यालय के शिक्षक तक शामिल होते हैं। चुप कराने वाले इस सिस्टम में लड़कियां अक्सर शिकायत करने से घबराती हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि आम तौर पर शिकायत के दुष्परिणाम लड़कियों को भुगतने पड़ते हैं न कि आरोपी को। ऐसे मामलों में कई बार तो लड़कियों की पढ़ाई तक छुड़वा दी जाती है। परिवार को अगर छोड़ भी दें तो, स्कूल से भी लड़कियों को कोई बहुत ज्यादा सहयोग नहीं मिलता। मामले को रफा-दफा करने के उद्देश्य से आम तौर पर लड़कियों को ही झूठा घोषित कर दिया जाता है या उनकी बात पर यकीन ही नहीं किया जाता है। उनकी शिकायत को भी गंभीरता से लेने में हिचकिचाहट होती है। ज्यादातर मामलों में आरोपी की जगह पीड़िता को डांटा-फटकारा जाता है।
और पढ़ें: शिक्षण संस्थानों के कैंपस का पितृसत्तात्मक और ब्राह्मणवादी चेहरा
ऐसी घटनाओं के कारण बचपन में ही ये छात्राएं सीख जाती हैं कि उनके खिलाफ होने वाली हिंसा को, उत्पीड़न को उन्हें चुपचाप झेलना चाहिए, न कि आवाज़ उठानी चाहिए। वे ये भी सीख जाती है कि उत्पीड़न करने वाले, हिंसा करने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती। बचपन में सीखे ये सबक पूरी जिंदगी लड़कियों का साथ नहीं छोड़ते। शायद यही वजह है कि आगे जाकर यही लड़कियां भाई की, पति की, ससुराल वालों की हिंसा चुपचाप झेल लेती है।
पढ़ाई के अलावा, खेल-कूद जैसी गतिविधियों में भी लड़कों की तुलना में लड़कियां कम भाग लेती हैं। ये साफ़ दिखता है फिज़िकल ट्रेनिंग की क्लास में। फिज़िकल ट्रेनिंग की क्लास शुरू होते ही जहां लड़के तो मैदान में वॉलीबॉल, बास्केटबॉल खेलना शुरू कर देते हैं। वहीं, लड़कियां को अक्सर खो-खो जैसे खेल खेलने को मिलते हैं। काफी सारे कारणों के अतिरिक्त, एक मुख्य वजह यह भी होती है कि स्कूलों में बचपन से ही लड़कियों के दिमाग में यह बिठा दिया जाता है कि वे लड़कों कि तुलना में शारीरिक रूप से कमजोर होती हैं। उदहारण के तौर पर, क्लास में कोई भारी सामान उठाने के लिए हमेशा लड़कों को बुलाना, डांस और ब्यूटी जैसे विषयों पर लड़कियों को तवज्जो देना, आदि।
स्कूलों में होने वाली ऐसी छोटी-छोटी घटनाएं न सिर्फ लड़कियों के मन में हीन भाव पैदा करती हैं, बल्कि उन्हें ये मानने पर भी मजबूर कर देती हैं कि पायलट, मैकेनिक, बस ड्राइवर, सर्जन जैसे करियर के विकल्प भी उनके पास नहीं है। परिवार के बाद शिक्षक और स्कूलों के ज़रिए ही बच्चे सबसे ज़्यादा सीखते हैं। अगर शिक्षकों से ही हमारे बच्चे पितृसत्तात्मक व्यवहार और सोच सीखेंगे, तो फिर लैंगिक बराबरी कैसे संभव हो पाएगी?
और पढ़ें: मोरल पुलिसिंग : हमारे शैक्षणिक संस्थानों में एक बड़ी समस्या
तस्वीर साभार : time
Best line of this article- ” छात्राओं को दुपट्टा लगवाने की जगह, हमें छात्रों को लैंगिक संवेदना, समानता से जुड़ी बातें सिखाई जानी चाहिए। ” Fantastic work towards changing mindsets👍