केरल के कोल्लम ज़िले में बीते 21 मार्च को एक 27 साल की महिला थूशरा की मौत हो गई। मौत के वक्त उसका वज़न महज़ बीस किलो रह गया था। दरअसल, थूशरा की शादी के वक्त दो लाख रुपए दहेज की मांग रखी गई थी जो उसके माता-पिता नहीं दे पाए। दहेज की मांग पूरी न होने के कारण उसका पति और सास उसका शोषण करते थे। उन्होंने स्वीकार भी किया कि थूशरा को खाने के लिए रोज़ पानी मिलाकर चावल और चीनी के अलावा कुछ और नहीं दिया जाता था। वहां के पोस्टमैन ने पुलिस को बताया कि इस घटना की जानकारी पड़ोसियों को न हो, इसके लिए थूशरा को टिन की घेराबंदी वाले घर के भीतर कैद कर के रखा गया था। यह घटना भारत के सर्वाधिक शिक्षित राज्य की है। यह घटना आज की है। यह घटना दहेज हत्या की श्रेणी में ही आएगी। वह दहेज हत्या जो उत्तर-आधुनिक समय में भी न जाने कितनी महिलाओं की मौत का कारण बनती है।
शादी-शुदा महिलाओं की हत्याएं, जिन्हें ससुराल में पति और अन्य सदस्यों ने दहेज के लिए या तो क़त्ल कर दिया गया हो अथवा लगातार उत्पीड़न और यातना देकर आत्महत्या के लिए बाध्य किया जाए, दहेज हत्या कहलाती है। दहेज हत्या एक ऐसा अपराध है जहां महिलाओं के लिए उनके अपने घर ही सबसे असुरक्षित स्थान बन जाते हैं। दहेज और उससे जुड़े अपराधों के मामले में भारत दुनियाभर में पहले स्थान पर आता है। इसके बाद पाकिस्तान, बांग्लादेश और ईरान आते हैं, जहां दहेज हत्या एक बड़ी समस्या बन चुकी है।
दहेज हत्या मूल रूप से पितृसत्ता का ही एक रूप है जिसकी जड़ें प्राचीन इतिहास के कबीलाई परंपराओं में छिपी हैं। लिंग आधारित श्रम विभाजन के बाद कबीलों में एक संस्कृति विकसित हुई जिसके तहत महिलाओं का आदान-प्रदान होता था। कबीले के अस्तित्व के लिए महिलाएं चुप रहती थी जो बाद में संस्कृति के रूप में उनके शोषण का आधार बनी। इस प्रक्रिया में महिलाओं के साथ-साथ पशुओं, कीमती पत्थरों और ज़रूरी सामानों का भी आदान-प्रदान होता था जिससे बेहतर संबंध स्थापित हो। बाद में इस प्रक्रिया के तहत महिलाएं पुरुषों की संपत्ति मानी जाने लगी और उनका अपने पर कोई अधिकार नहीं रहा।
आज के उत्तर-आधुनिक समाज में भी स्त्री दर्जे में पुरूष से कमतर मानी जाती हैं, इसलिए उसकी स्वीकारोक्ति के लिए शादी में धन की कई बार खुली और कभी मूक मांग रखी जाती है। इस मांग को यह कहकर जायज़ ठहराया जाता है कि लड़की के माता-पिता जो कुछ भी दे रहे हैं, उनकी बेटी के लिए ही हैं। यह एक तरह से सौदा होता है, जिसमें किसी लड़की को ब्याहने के लिए लड़का और उसके परिवार वाले मोटी रक़म चाहते हैं। दहेज की मांग भारतीय समाज में सामान्य बात हो चुकी है। दहेज की प्रथा मानो शादी का एक अभिन्न अंग बन चुकी है। यह प्रथा सभी समूहों में मौजूद है चाहे वे किसी भी जाति, वर्ग, धर्म के हों। लड़की ब्याहने के लिए लड़के के परिवार की हैसियत के अनुसार दहेज देना पड़ता है। यह ब्याह होने की अनिवार्य शर्त भी है। रूढ़िवादी भारतीय समाज शादी की संस्था और पारिवारिक संरचना में सुधार करने की बजाय इसे पारंपरिक रूप में ही चलाना चाहता है। इस समाज के लिए यह महत्वपूर्ण है ही नहीं कि शादी से पहले लड़के और लड़की में सामंजस्य और आपसी समझ विकसित हो, जिससे बेहतर समाज बन सके। यहां रिश्ते की नींव ही लड़की के घर से मिलने वाला दहेज तय करता है।
दहेज प्रथा के कारण महिलाएं समाज में दोयम दर्जे की मानी जाती हैं। जन्म से ही उन्हें ‘पराया धन’ कहकर परिवार के सभी संसाधनों से अलग-थलग कर दिया जाता है।
हालिया आंकड़ों के अनुसार, भारत में दहेज के कारण रोज़ 21 महिलाओं की मौत होती है। शोध और अध्ययन से पता चलता है कि दहेज हत्या से संबंधित कुल घटनाएं, जो दर्ज होती हैं, उनमें से 93 फ़ीसद मामलों में चार्जशीट दाख़िल होती है और उनमें से केवल 1/3 मामले में आरोपी दोषी साबित हो पाते हैं। दहेज हत्या के संबंध में न्यूनतम दंड 7 साल की उम्रक़ैद है। दहेज हत्या के मामले में जज के पास यह अधिकार भी है कि वह अपने विवेक से आजीवन कारावास तक की सज़ा सुना सकता है। इतनी कठोरता के बाद भी दहेज के मामले कम नहीं हो रहे यह सोचनीय है।
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लैंगिक असमानता की नींव रखता है दहेज
दहेज लेना एक रूढ़ीवादी सांस्कृतिक परंपरा है जो पितृसत्ता को पोषित करती है। संस्कृति के रूप में इसे चलाए रखा जाता है और आगे आने वाली पीढ़ियों को हस्तांतरित किया जाता है,जिससे पितृसत्ता का वजूद बना रहे और पुरुष स्त्री को संपत्ति की तरह हासिल कर उसका स्वामी बन सके। दहेज प्रथा के कारण महिलाएं समाज में दोयम दर्जे की मानी जाती हैं। जन्म से ही उन्हें ‘पराया धन’ कहकर परिवार के सभी संसाधनों से अलग-थलग कर दिया जाता है। उन्हें यह संदेश दिया जाता है कि परिवार की संपत्ति पर उनका कोई अधिकार नहीं है, उन्हें तो ‘दूसरे के घर’ जाना है। ‘दूसरे के घर’ जाने का तर्क हमारे घरों में लैंगिक असमानता की नींव भी रखता है। लड़कियों को दूसरे के घर जाना होता है इसलिए उनसे पारंपरिक गुण यानी खाना पकाने से लेकर, सिलाई-बुनाई और घर चलाने के कौशल में पारंगत होने की उम्मीद की जाती है। इसीलिए, जहां भाई पढ़ता है, वहीं लड़की चौके में रोटियां बेलती है यानी पत्नी बनने की ट्रेनिंग बचपन से शुरू हो जाती है और उसका अस्तित्व खत्म हो जाता है।
दहेज प्रथा के कारण लिंग परीक्षण और भ्रूण हत्याओं की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। लड़कियों को जन्म से पहले मार दिया जाता है। यह समझा जाता है कि जन्म से पहले 500 रुपए खर्च करना 5 लाख खर्च करने से बेहतर है। साथ ही, लड़के को दहेज लाने वाले ‘एसेट’ की तरह देखा जाता है। वहीं लड़की परिवार पर वित्तीय बोझ मानी जाती है। फ़ीमेल इंफेंटीसाइड वर्ल्डवाइड: द केस फ़ॉर एक्शन बाय द यू एन ह्यूमन राइट्स काउंसिल की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में लड़कियों को ‘अनअफॉर्डेबल इकोनॉमिक बर्डन’ के रूप में देखा जाता है जिसके कारण लगभग 117 मिलियन लड़कियों को गर्भ में ही मार दिया जाता है।
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दहेज के खिलाफ मौजूद कानून
दहेज की मांग और उसके बाद ससुराल में महिला शोषण की रोकथाम के लिए सरकारों से लगातार प्रयास किए गए हैं। कानून निर्माताओं ने पति और उसके परिवार वालों ने महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार को रोकने के लिए समय-समय पर नियम व कानून पारित किए हैं। इसके बावजूद भी ससुराल में महिलाओं की संदेहास्पद मौतें होती हैं। 1961 का दहेज निषेध अधिनियम, विवाह के लिए दहेज, जिसे एक उपहार के रूप में परिभाषित किया जाता है या विवाह के लिए पूर्व शर्त माना जाता है की अनुरोध, भुगतान या स्वीकृति पर प्रतिबंध लगाता है। दहेज मांगने या देने पर छह महीने की कैद या 5,000 रुपए तक का जुर्माना हो सकता है। दहेज के संबंध में हत्या और आत्महत्या के मामले क्रिमिनल पीनल कोड और इंडियन पीनल कोड के तहत देखे जाते हैं।
भारतीय महिलाओं के अधिकारों के लिए तमाम एक्टिविस्ट्स ने लगभग 40 सालों तक आंदोलन किया जिसके बाद दहेज निषेध कानून और अधिक सशक्त धाराएं जैसे 498 अ (IPC-1983) कानून बने। इस संबंध में दहेज हत्या के मामलों पर रोक लगाने के लिए विशेष प्रावधान करते हुए आईपीसी की धारा 304 ब और भारतीय साक्ष्य अधिनियम,1986 भी लागू किए गए। इस कानून के अनुसार, किसी भी महिला की मौत शादी होने के सात साल के भीतर सामान्य परिस्थितियों से इतर, जलने या शरीर पर चोट लगने से हो और यह दिखे कि उसकी मृत्यु से ठीक पहले उसके साथ पति और ससुराल वालों ने क्रूरता अथवा उत्पीड़न किया हो अथवा मृत्यु का कोई भी संबंध दहेज की मांग से हो, ऐसी मौतें दहेज के कारण मृत्यु मानी जाएंगी। इस मृत्यु का कारण पति और संबंधी होंगे। धारा 304 ब का ‘अनुमानसिद्धि चरित्र’ इस तरह की घटनाओं को अभियोगी के लिए आसान बनाती हैं क्योंकि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113 ब स्पष्ट करती है कि,’ जब सवाल यह है कि क्या किसी व्यक्ति ने किसी महिला की दहेज के लिए हत्या की है और यह दिखाया गया है कि मृत्यु से पहले महिला व्यक्ति द्वारा दहेज के लिए किसी भी तरह की मांग के संबंध में उत्पीड़ित की गई है, तब कोर्ट को यह मान लेना चाहिए कि उक्त व्यक्ति महिला की मौत दहेज के कारण हुई।
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क्यों कम नहीं हो रहे दहेज हत्या के मामले
तमाम वैधानिक सुधारों व कानूनों के बावजूद भी दहेज हत्या व दहेज के लिए ससुराल में शोषण और उत्पीड़न की घटनाएं कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार साल 1995 में दहेज के कारण लगभग 4,668 मौतें हुई थीं। साल 2005 में यह आंकड़ा बढ़कर 6787 हो गया था और साल 2015 में लगभग 7634 महिलाओं की मौत दहेज हत्या के कारण हुई। आए दिन अखबारों और सोशल मीडिया में खबरें मिलती हैं कि पढ़े-लिखे और आर्थिक रूप से संपन्न लोग भी दहेज की मोटी रकम ले रहे हैं। देश में सशक्त कानून तो हैं लेकिन उनके लागू होने और अनुपालन की समस्या के कारण बहुत सारी लड़कियों को जन्म से पहले ही मार दिया जाता है। कई महिलाएं दहेज की मांग के कारण उत्पीड़न सहते हुए या तो आत्महत्या कर लेती हैं या उनकी हालत कोल्लम की थूशूरा की तरह हो जाती है।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा और दहेज मौतों की रोकथाम की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। 2012 में द कन्वेंशन ऑन द एलिमिनेशन ऑफ़ ऑल फॉर्म्स ऑफ़ डिस्क्रिमिनेशन अगेंस्ट वीमेन (CEDAW) आयोजित किया गया था। यह 1979 में संयुक्त राष्ट्र आम सभा द्वारा शुरू किया गया था जिसके तहत यह माना गया कि महिलाओं के साथ भेदभाव और लिंग के आधार पर सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक शोषण की प्रक्रिया गलत है। उन्हें भी पुरुषों के बराबर अधिकार दिए जाने चाहिए। सभी सदस्य देशों की सरकारों को सुझाया गया कि वैधानिक प्रक्रिया में स्त्री व पुरुष को समान अवसर दें।सभी प्रकार के विभेदक कानूनों को खत्म कर महिलाओं के खिलाफ असमानता को नष्ट करें। एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा में दहेज हत्या का एक बड़ा योगदान है। ह्यूमन राइट्स वॉच ने साल 2011 में दहेज हत्या रोकने में भारत सरकार की असफलता की आलोचना की थी। ग्लोबल फंड फ़ॉर वीमेन ने साल 2004 में ‘नाउ ऑर नेवर’ फंड प्रोजेक्ट शुरु किया जिसका उद्देश्य दुनिया भर में नारीवादी समूहों को वित्तीय रूप से सहयोग देना है। इसमें भारतीय महिलाओं के समूहों को भी सहयोग दिया जाता है जिससे वे हिंसा और शोषण के ख़िलाफ़ कानूनी लड़ाई लड़ सकें। अमेरिका का एक छोटा संगठन वी-डे भी तमाम इवेंट्स आयोजित कर फ़ंड जमा करता है और उसका इस्तेमाल लिंग आधारित हिंसा के मसलों जैसे दहेज हत्या के ख़िलाफ़ जागरूकता फैलाता है। इसका एक नाटक ‘द ब्राइड हू वुड नॉट बर्न’ काफ़ी चर्चित है।
इस प्रकार, दुनियाभर में महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के मामलों को लेकर लोग संवेदनशीलता से प्रतिक्रिया दे रहे हैं। नारीवादी लगातार इस दिशा में लोगों को जागरूक करने और शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने से लेकर पीड़ितों को कानूनी मदद और न्याय दिलाने के लिए संघर्ष कर रही हैं। भारत में दहेज हत्या और दहेज के मामलों के ख़िलाफ़ सशक्त कानून मौजूद हैं, ज़रूरत है उनका अनुपालन और कानूनी प्रक्रिया तक लोगों की पहुंच बनाना। यह प्रक्रिया महंगी और समय लेने वाली है। न्यायपालिका पर काम का बोझ होने के कारण न्याय मिलने में सालों-साल लग जाते हैं। पीड़िता का पूरा जीवन कानूनी लड़ाई लड़ने में बीत जाता है। इस दिशा में क़ानूनविदों और एक्टिविस्ट को ध्यान देने की ज़रूरत है। अकडेमिया में सुधार करते हुए बुनियादी शिक्षा इस तरह से दी जानी चाहिए जिससे बच्चा शुरुआत में ही समाज की इन रूढ़ीवादी प्रथाओं से मुक्त हो पाए।
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तस्वीर : सुश्रीता भट्टाचार्जी
पहले आंकड़े तो ईमानदारी से जारी करो ,,,,,क्योंकि दहेज उत्पीड़न के मामले इक्का दुक्का दिखाई देते हैं,,,,,, लेकिन महिलाओं के मल्टी-रिलेशनशिप या तमाम मर्दों के साथ नाजायज संबंधों की वजह से पुरुषों की जान ज्यादा जा रही है।