हाल ही में बैंगलोर के एक पार्क में दक्षिण भारतीय फिल्मों की अभिनेत्री संयुक्ता हेगड़े और उनकी दोस्तों को इसलिए उत्पीड़ित किया गया क्योंकि वह पार्क में स्पोर्ट्स-ब्रा में वर्क-आउट कर रही थी। संयुक्ता हेगड़े ने अपने इंस्टाग्राम पर एक वीडियो साझा करते हुए बताया कि उन्हें और उनके दोस्तों को कपड़ों के लिए पार्क में कांग्रेस नेता कविता रेड्डी द्वारा उत्पीड़ित किया गया। संयुक्ता हेगड़े के मुताबिक पार्क में मौजूद भीड़ ने उन लोगों पर स्ट्रीपिंग और भारतीय संस्कृति के खिलाफ जाने के आरोप लगाए। इस घटना के बाद कविता रेड्डी ने संयुक्ता हेगड़े और उनके दोस्तों से माफी मांग ली है लेकिन क्या उनके द्वारा पब्लिक में किए गए व्यवहार के लिए उनकी यह माफी काफी है। ऐसा पहली बार नहीं है जब हमारे देश में महिलाओं को, लड़कियों को अपने कपड़ों की वजह से मोरल पुलिसिंग का सामना करना पड़ा है।
एकबार प्रियंका चोपड़ा को इसलिए ट्रोल किया गया था क्योंकि प्रधानमंत्री से मिलते वक़्त जो ड्रेस उन्होंने पहनी थी वह लोगों को पसंद नहीं आई। लोगों को यह पसंद नहीं आया कि प्रियंका ने प्रधानमंत्री मोदी के सामने ऐसे कपड़े क्यों पहने जिसमें उनकी टांगें नज़र आ रही थी। लड़कियों, महिलाओं को अपने कपड़ों को लेकर इस तरह की दकियानुसी विचारधारा का सामना कई बार करना पड़ता है। हम यह सोच भी नहीं सकते कि एक आम लड़की के लिए अपने मन-मुताबिक कपड़े पहनना कितना मुश्किल होता होगा। लड़कियों को बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि उन्हें क्या पहनना है, क्या नहीं पहनना। घर से बाहर निकलते समय अपनी वेशभूषा का विशेष ध्यान रखने की नसीहत कच्ची उम्र से ही दे दी जाती है। हमेशा की तरह वही सुरक्षा वाला तर्क बड़ी शान से परोस दिया जाता है। बलात्कार और लैंगिक हिंसा के लिए लड़कियों को ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है यह कहकर, “ऐसे कपड़े पहने ही क्यों थे?” बाहरी दुनिया को छोड़ भी दें, तो अपने खुद के घर में भी लड़कियों को मन मुताबिक कपड़े पहनने की आज़ादी नहीं दी जाती है। ऐसे में सवाल है कि क्या वे अपने घरवालों के बीच भी सुरक्षित नहीं है? शादी के बाद तो यह आज़ादी बिल्कुल ही ख़त्म हो जाती है। “सिर्फ साड़ी पहन सकती हो, सलवार-कमीज़ के बारे में तो सोचना भी मत” इस प्रकार के फरमान तक महिलाओं को सुना दिए जाते हैं।
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ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे सिस्टम की सारी संस्थाएं मिलकर फिर वो घर हो, समाज हो, कानून व्यवस्था हो या धार्मिक संस्थान, लड़कियों के पहनावे को नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं। सितम्बर 2015 में चेन्नई के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में लड़कियों को यह आदेश दिया गया था कि वे कैंपस में लेग्गिंग्स, टाइट पैंट्स और टॉप, खुले बाल और छोटी कुर्ती के साथ नहीं आ सकती। पिछले साल दिल्ली से सटे गुरुग्राम में एक लड़कियों के एक समूह के कपड़ों पर टिप्पणी करते हुए एक महिला ने कहा था कि मर्दों को उनका बलात्कार करना चाहिए क्योंकि उन्होंने छोटे कपड़े पहने थे। लड़कियों के कपड़ों को लेकर इक्कीसवीं सदी में भी जब यह हाल है, तो मन में कुछ सवाल आते हैं जिन्हे आपके साथ साझा करना चाहूंगी:
क्या धर्म और संस्कार के नाम पर महिलाओं की सेक्सुअलिटी और वे क्या पहनेंगी, क्या नहीं, इसे नियंत्रित करना ठीक है? क्या संस्कृति के नाम पर औरतों का उनके शरीर से ही हक़ छीन लेना ठीक है? क्यों हम लड़कों को लैंगिक समानता की शिक्षा देने की जगह लड़कियों के शरीर पर नियंत्रण करने की कोशिश करते हैं? क्या हमारी संस्कृति और सभ्यता जिनका बार-बार हवाला दिया जाता है, उनकी जड़ें इतनी कमजोर हैं जो लड़कियों के स्कर्ट्स/ शॉर्ट्स/ स्लीवलेस/ टाइट कपड़े पहनने से ही टूट जाती हैं? क्या महिलाओं का पहनावा सिर्फ एक पहनावा है या उन्हें उनकी सीमाएं याद दिलाने का एक तरीका है? (उदहारण के तौर पर दुपट्टा, सिर का पल्लू या ऊपर से नीचे तक पूरे शरीर को ढकने वाला बुर्का) ? क्या महिलाओं के पास यह फैसला लेने का अधिकार नहीं होना चाहिए कि वे क्या पहनना चाहती हैं, क्या नहीं?
बाहरी दुनिया को छोड़ भी दें, तो अपने खुद के घर में भी लड़कियों को मन मुताबिक कपड़े पहनने की आज़ादी नहीं दी जाती है। क्या वे अपने घरवालों के बीच भी सुरक्षित नहीं है?
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जब तक हमारे समाज की सभ्यता का मापदंड लड़कियों के स्कर्ट के साइज़ से लगाया जाएगा, तब तक लड़कियां क्या पहनेंगी इसका फैसला लड़कियां कभी नहीं ले पाएगी। बात सिर्फ इस हक़ की ही नहीं है। जिस तरीके से महिलाओं और पुरुषों के कपड़े बनाए गए हैं उनमें भी पितृसत्ता की बू आती है। गौर करने वाली बात यह है कि जहां पुरुषों के कपड़ों में हमेशा ‘जेब’ होती है, महिलाओं के कपड़ों में ऐसा कुछ नहीं होता। दिखने में बहुत छोटी-सी लगने वाली यह बात काफी कुछ कह जाती है। यह बताती है कि हमारे समाज में न जाने कितनी ही सदियों से ये माना जा रहा है कि पैसे कमाने का काम सिर्फ पुरुषों का है न कि महिलाओं का। ‘पैसा और पुरुष’ ही साथ में अच्छे लगते हैं’, यही कहती नज़र आती हैं पुरुषों की जेब। वहीं, दूसरी ओर अगर हम महिलाओं के कपड़े देखें तो पाते है कि वे बार-बार उन्हें उनकी हदें याद दिलाते है। अगर डीप गले वाले कुर्ते से या रिवीलिंग ब्लाउज से ये हदें टूट जाए, तो कुछ पलों के अंदर ही ऐसी महिलाओं को ‘बिगड़ैल’, ‘लूज़ कैरेक्टर’ का टैग दे दिया जाता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि महिलाओं के कपड़े सिर्फ कपड़े नहीं है बल्कि उन्हें उनकी हदें याद दिलाने के तरीके हैं। इसीलिए यह सवाल लाज़मी है कि हमारे कपड़े क्या दिखाते हैं- हमारी सभ्यता या पितृसत्ता?
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तस्वीर साभार: thelogicalindian
Well written 👍