एक अन्नदाता जो पूरे देश की भूख को मिटाता है, जिसकी वजह से हमें दो वक़्त की रोटी नसीब होती है। अक्सर वही अन्नदाता किसान दर-दर की ठोकरें खाता भी नज़र आता है। जब भी मानसून अपना रास्ता बदल लेता है तो सबसे अधिक प्रभाव किसान पर पड़ता है। जब भी अर्थव्यवस्था पर मार पड़ती है उसमें सबसे अधिक मार खाने वाला वर्ग किसान होता है। जब राजनीति में बैठे दिग्गजों को वोट बटोरना होता है तो वे सबसे पहले किसानों को लुभाते हैं। आखिर उसी की गरीबी के दम पर तो सत्ताधारी कुर्सी पर बने बैठे हैं। ऐसा ही स्थिति मौजूदा वक्त में किसानों की है। एक बार देश के किसान सड़कों पर हैं। पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक, तमिलनाडु सहित कई राज्यों के किसान संसद द्वारा पास किए गए कृषि संबंधित तीन विधेयकों जो अब कानून बन जाएंगे उसके ख़िलाफ़ सड़कों पर हैं।
इन विधेयकों के विरोध में भाजपा समर्थक अकाली दल की हरसिमरत कौर बादल ने अपने केंद्रीय मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया है। वहीं, इन तीनों बिलों के पास होने के दौरान राज्यसभा में विपक्ष द्वारा ख़ासा विरोध भी किया गया। राज्यसभा में हुए हंगामे के बाद विपक्ष के 8 सांसदों को निलंबित भी कर दिया गया है। इन निलंबित सांसदों में डेरेक ओ’ब्रायन, संजय सिंह, राजीव सतव, केके रागेश, रिपुन बोरा, डोला सेन, सैयद नजीर हुसैन और एलामरम करीम शामिल हैं। इन बिलों को ध्वनि मत द्वारा पारित किए जाने पर भी विपक्ष ने सवाल उठाए हैं। साथ ही इन बिलों को रोकने के लिए विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से भी मिलने का समय मांगा है।
कृषि से संबंधित इन बिलों पर हो रही बहस के बारे में बातचीत करने से पहले यह जान लेना बेहद आवश्यक है कि आखिर इन विधेयकों में ऐसा है क्या जिसके कारण विपक्षी पार्टियां इसका विरोध कर रही हैं।
कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक 2020)
APMC के तहत पहले किसान लाइसेंसधारियों के माध्यम से ही अपनी फसल बेच सकते थे लेकिन अब सरकार ने यह सीमा खत्म कर किसानों को खुली छूट दी है जिसके चलते अब किसानों को इन बिचौलियों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा और वह किसी भी राज्य में आसानी से अपनी फसल बेच सकते हैं। इस संबंध में सरकार का कहना है कि इससे किसानों को ऊंचे दाम मिलने की संभावना है जबकि विपक्ष का तर्क है कि यह कृषि क्षेत्र के निजीकरण की ओर एक कदम है यानी सरकार अपनी जिम्मेदारी से पीछे हटकर किसानों को कॉर्पोरेट सत्ताधारियों के हवाले छोड़ रही है जिससे किसानों का शोषण और अधिक होने की संभावना है।
आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955
1950 के दशक के बाद कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए इस अधिनियम को लाया गया था उस समय कुछ आवश्यक वस्तुओं को भंडारण पर रोक लगाई गई थी जिसमें गेहूं, चावल, दाल, तिलहन, आलू, प्याज़, खाद्य तेल जैसी सामग्रियां शामिल थी। दूसरे शब्दों में कहें तो इन चीज़ों का निजी क्षेत्रों द्वारा भंडारण नहीं किया जा सकता था। लेकिन अब पास हुए इस विधेयक में सरकार ने इस शर्तों को समाप्त कर दिया है। यानी अब केवल अकाल, युद्ध या किसी आर्थिक संकट की स्थिति में ही इन भंडारण पर रोक लगाई जाएगी।
किसान बिल को लेकर किसान संगठनों की सबसे बड़ी चिंता है कि नए कानून के लागू होते ही कृषि क्षेत्र भी पूंजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इसका सबसे अधिक नुक़सान किसानों को होगा।
और पढ़ें : आर्थिक संकट के इस दौर में मनरेगा योजना को बेहतर बनाने की ज़रूरत है
कृषि (सशक्तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर एग्रीमेंट विधेयक, 2020
यह विधेयक कृषि करारों पर राष्ट्रीय फ्रेमवर्क से जुड़ा हुआ है। इस बिल में कृषि उत्पादों की बिक्री, फ़ार्म सेवाओं,कृषि बिज़नेस फ़र्मों, प्रोसेसर्स, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा विक्रेताओं और निर्यातकों के साथ किसानों को जुड़ने के लिए सशक्त कदम उठाने का प्रावधान हैं। कॉन्ट्रैक्ट किसानी के तहत अनुबंधित किसानों को गुणवत्ता वाले बीज की आपूर्ति सुनिश्चित करना, तकनीकी सहायता और फ़सल स्वास्थ्य की निगरानी, ऋण की सुविधा और फ़सल बीमा की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी। देशभर में कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग को लेकर व्यवस्था बनाने का प्रस्ताव है। फसल खराब होने पर उसके नुकसान की भरपाई किसानों को नहीं बल्कि एग्रीमेंट करने वाली कंपनियों को करनी होगी। किसान कंपनियों को अपनी कीमत पर फसल बेचेंगे। इससे किसानों की आय बढ़ेगी और बिचौलिया राज खत्म होगा।
किसान बिल को लेकर किसान संगठनों की सबसे बड़ी चिंता है कि नए कानून के लागू होते ही कृषि क्षेत्र भी पूंजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इसका सबसे अधिक नुक़सान किसानों को होगा। वहीं, किसानों को यह भी डर सता रहा है कि नए कानून के बाद सरकार एमएसपी पर फसलों की खरीद बंद कर देगी। क्योंकि, कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक 2020 में इस संबंध में कोई व्याख्या नहीं की गई है कि मंडी के बाहर जो खरीद होगी वह न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से नीचे के भाव पर नहीं होगी। विशेषज्ञों द्वारा यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि क्या कंपनियां छोटे मोटे किसानों के साथ डील कर पाने में सक्षम होंगी?
और पढ़ें : साल 2019 में हर चौथी आत्महत्या से हुई मौत एक दिहाड़ी मज़दूर की थी : NCRB
किसान ये सोचकर भी काफी डर रहे हैं कि इस नए कानून के बाद उन्हें MSP नहीं मिलेगी। उन्हें डर है कि अगर सरकार उनका अनाज नहीं खरीदेगी तो फिर वह कहां अपना बेचेंगे। अभी तो सरकार अनाज लेकर उसे निर्यात कर देती है या फिर अन्य जगहों पर बांट देती है, लेकिन बाद में किसानों की कठिनाई बढ़ जाएंगी। उन्हें ये भी डर है कि कंपनियां मनमाने दामों पर फसल खरीद की बात कर सकती हैं और क्योंकि किसानों के पास भंडारण की सही व्यवस्था नहीं है तो उन्हें अपनी उपज को कम दाम पर भी बेचना पड़ सकता है।
हालांकि सरकार ने अपनी ओर से यह स्पष्ट किया है कि वे MSP को समाप्त नहीं करेगी और अनाज को ख़रीदा भी जाएगा। इस संबंध में कई विशेषज्ञों का तर्क है सरकार के इस फैसले से खाद्य भंडारण में कमी आएगी। देश वैसे ही भुखमरी जैसी समस्याओं से जूझ रहा है और फिर सरकार ने भी तो खाद्य सुरक्षा की गारंटी दी है कहीं ये किए गए वायदे मुनाफा कमाने की होड़ में पीछे न छूट जाए और किसानों का हित कहीं एक वादा बनकर न रह जाए।
और पढ़ें : प्रवासी मज़दूरों, डॉक्टरों की मौत और बेरोज़गारी के आंकड़ों पर केंद्र सरकार की चुप्पी
तस्वीर साभार : hindustantimes