‘लव जिहाद’ का भूत एक बार फ़िर से भारत को सता रहा है। भारतीय समाज मूल रूप से प्रेम का विरोधी है। एक ऐसा समाज जहां प्रेम के बजाय दहेज को अधिक महत्व दिया जाता है, एक ऐसा समाज जहां महिलाओं को महज उनकी पसंद का साथी चुनने के लिए ‘खोखले सम्मान’ के नाम पर मार दिया जाता है, उस समाज से प्रेम और सौहार्द की उम्मीद करना ही बेमानी है। पत्रकार रविश कुमार ने ‘लव जिहाद’ के नाम पर चल रही साजिश को अपने प्राइम टाइम शो में बख़ूबी बेनकाब किया है। एक ऐसा समाज जो सोते जागते हिंदी फ़िल्मों का प्रेम तो गीत सुनता है लेकिन प्रेम से इतना डरता है कि उस डर के आधार पर लव जिहाद नाम का भूत ही खड़ा कर देता है। भारतीय समाज में पुरुषों की विजय और औरतों के जीवन पर एकाधिकार का रूप है ‘लव जिहाद’। उस समाज की बेवक़्त, सियासी ज़रूरत है ‘लव जिहाद’ जिस समाज में आए दिन होने वाले महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा याद नहीं रहती और होगी भी कैसे, समाज की कड़वी सच्चाई उजागर हो जाएगी जिसे झूठी मर्दानगी के तले दबा दिया गया है।
मध्यप्रदेश में लव जिहाद के संबंध में कानून की हालिया घोषणा उन लोगों के लिए ताबूत में आखिरी कील है, जिनके अंदर अभी भी मौजूदा सरकार में कुछ भरोसा बचा है। मध्य प्रदेश में बीजेपी सरकार एक कानून की योजना बना रही है जिसमें ‘लव जिहाद ’के आरोपियों के लिए पांच साल की जेल का प्रावधान होगा। यह बात राज्य के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने कही। एक ऐसा देश, जहां लगभग हर 15 मिनट में बलात्कार का एक मामला दर्ज होता है, उस समाज के लिए अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाह का मुद्दा ज्यादा अहम है। समाज की प्राथमिकताओं को देखकर ही अनुमान लगाया जा सकता है कि किस प्रकार हम सब एक स्त्रीद्वेष से भरे समाज में जी रहे हैं। भारतीय समाज का ध्रुवीकरण और भारत में अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत का अनुमान पिछले 6 सालों से लगभग बढ़ता जा रहा है।
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‘लव जिहाद’ के पीछे छिपी हुई मानसिकता को समझने के लिए कुछ पहलुओं पर नज़र डालना ज़रूरी हो जाता है। ‘लव जिहाद’ एक काल्पनिक शब्द है, जिसे दक्षिणपंथी ताकतों ने हिंदू और मुस्लिम समुदाय का ध्रुवीकरण करने के लिए इजाद किया गया है। दक्षिणपंथी संगठनों का दावा है कि मुस्लिम पुरुष, हिंदू महिलाओं को महंगे मोबाइल फोन, चमचमाती हुई गाड़ियां और पैसों का लालच देकर अपने जाल में फंसाने की कोशिश करते हैं, जो अंतरराष्ट्रीय ’जिहादी’ संगठन मुहैया करवाते हैं। मुस्लिम पुरुष, हिंदू महिलाओं का जबरन धर्म परिवर्तन कराने के बाद, मानसिक और शारीरिक शोषण करते हैं। अब तक किसी भी राज्य मशीनरी द्वारा ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिला है जिससे यह साबित हो सके कि ‘लव जिहाद’ जैसा कुछ मौजूद है। हिंदू रूढ़िवादी समूहों ने बड़ी ही चालाकी से 1920 के दशक में नॉर्थ ईस्ट में कथित ‘अपहरण’ के खिलाफ मुहिम शुरू किया था। 1920 के दशक में आर्य समाज ने विशेष रूप से शुद्धि के नाम पर मुहिम चलाई थी।
महिलाएं अपने संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए ख़ुद के जीवनसाथी का चुनाव कर रही हैं, जिसे पितृसत्तात्मक भारतीय समाज द्वारा पचा पाना बहुत ही मुश्किल प्रतीत होता है।
चारू गुप्ता ने अपने लेख,” Hindu Women/Muslim Men: Love Jihad and Conversions” में कहा है कि 1920 के दशक के दौरान दक्षिणपंथी समूहों ने बेहद उत्तेजक नारों का इस्तेमाल किया। ‘हिंदू औरतों की लूट’ कहा जाता था और इसने हिंदू समुदाय ने मुस्लिमों को नीचा दिखाने के लिए प्रचार कर उनकी निंदा की। आर्य समाज ने भी एक मुहिम चलाई थी जिसमें दिखाया गया कि कैसे हमारी ’महिलाओं को मुस्लिम बनने से बचाया जाए, जिसके लिए ‘हिंदू स्त्रियों के लूट का कारण’ नारे का प्रचार किया गया। 2009 में, एक बार फिर से, ‘लव जिहाद’ के नाम पर पहले की तुलना में और भी ज्यादा आक्रामक तरीके से प्रचार प्रसार किया जाने लगा। चरमपंथी हिंदू संगठनों ने 2009 में दावा किया था कि, मुस्लिम आबादी को बढ़ाने के लिए प्यार के नाम पर हिंदू महिलाओं का ज़बरदस्ती धर्मांतरण कराना अंतरराष्ट्रीय साजिश का हिस्सा है। हिंदू पितृसत्तात्मक धारणाएं ऐसे अभियानों में गहराई से उलझी हुई दिखाई देती हैं, जिसमें क्रूर मुस्लिम पुरुषों के हाथों हिंदू महिलाओं को प्रताड़ित के रूप में चित्रित किया जाता है। इसी प्रकार महिलाओं को ख़ुद के पसंद का जीवनसाथी चुनने मौलिक संवैधानिक अधिकार को नज़रअंदाज़ किया जाता है। महिलाओं को समुदाय विशेष के ‘आबरू’ के रूप में देखा जाता है। चरमपंथी समूहों को इस बात का डर है कि अगर महिलाएं अपने अधिकारों का इस्तेमाल करना शुरू कर देंगी तो धर्म या जाति आधारित पितृसत्ता का पतन हो जाएगा। मुजफ्फरनगर दंगा का इस बात उदाहरण है कि किस प्रकार मौत और विस्थापन को अपनी ताकत बरकरार रखने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
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‘लव जिहाद’ को और भी गहराई से समझने के लिए, केरल की हादिया केस को जानना बहुत अहम हो जाता है। केरल की एक मेडिकल छात्रा हादिया ( पहले अखिला अशोकन) ने एक मुस्लिम व्यक्ति से शादी करके इस्लाम धर्म अपना लिया। साल 2016 में, उसके पिता ने सुप्रीम कोर्ट में यह गुहार लगाई कि उनकी बेटी को इस्लाम से प्रभावित कर उस पर दबाव डाल कर एक मुस्लिम लड़के ने जबरन शादी की। केरल हाईकोर्ट ने बहुत ही पितृसत्तात्मक तरीके से यह कहते हुए विवाह को रद्द कर दिया था। यह कहते हुए अदालत ने इस तथ्य को नजरअंदाज किया कि हादिया एक बालिग है जिसे अपनी मर्जी से शादी करने का पूरा अधिकार है। इस फ़ैसले को हादिया के पति ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, बाद में, सुप्रीम कोर्ट ने उनकी शादी को बहाल कर दिया। साल 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने यह पाया कि हादिया के माता-पिता का आरोप स्पष्ट रूप से गलत था। अदालत ने कहा कि किसी व्यक्ति को अपनी पसंद का विवाह करने का अधिकार संविधान ने अनुच्छेद 21 के तहत दिया हुआ है। यह निर्णय उन सभी भारतीयों को एक सबक के रूप में लेना चाहिए था जो ‘लव जिहाद ’के नाम पर रोना रो रहे थे, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ।
हाल ही में 2016 बैच की आईएस अधिकारी टीना डाबी और उनके पति अतहर खान ने तलाक की याचिका दायर की है जिसने एक बार फिर से दक्षिणपंथी समूहों को ’लव जिहाद’ के मुद्दे को भड़काने का मौका दे दिया है। शादी और तलाक दो वयस्कों के बीच का निजी मामला है, लेकिन मीडिया इसे एक अलग ही दिशा देने की कोशिश कर रहा है क्योंकि यह एक हिंदू लड़की और मुस्लिम लड़के की शादी का मामला है और मीडिया के लिए “सांप्रदायिक घृणा” फैलाने का इससे अच्छा मौका नहीं मिल सकता है। जेंडर को मद्देनज़र रखते हुए एक और पहलू पर ध्यान देने की आवश्यकता है। भारत में विशेष विवाह अधिनियम 1954 है जो अंतरधार्मिक जोड़ों को बिना धर्मरूपांतरण के विवाह करने की अनुमति देता है। प्यार करने का यह मतलब नहीं कि किसी को अपनी पहचान और धर्म को त्यागना पड़े। महिलाएं, जिन्हें अक्सर हिंदू संगठन पीड़िता और शोषित के रूप में देखते हैं, वह वास्तव में समाज के बनाए गए पितृसत्तात्मक मापदंडों पर चलने से इनकार करते हुए ख़ुद की मर्जी के जीवनसाथी के साथ जिंदगी गुज़ारने का फैसला करती हैं। महिलाएं अपने संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए ख़ुद के जीवनसाथी का चुनाव कर रही हैं, जिसे पितृसत्तात्मक भारतीय समाज द्वारा पचा पाना बहुत ही मुश्किल प्रतीत होता है।
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