नारीवाद एक ऐसी विचारधारा है जो समाज में लैंगिक समानता पर ज़ोर देती है और सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक और अन्य क्षेत्रों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं को भी समान अधिकार और अवसर प्रदान करने की मांग करती है। नारीवाद का उद्देश्य स्त्रियों के लिए समाज में समानता का अधिकार दिलाना है जो कि हमारे संविधान के अनुसार हर भारतीय नागरिक का मौलिक अधिकार है। हमारे संविधान की नज़र में हर व्यक्ति समान है फिर चाहे वह किसी भी स्थान, धर्म, जाति या लिंग का ही क्यों ना हो। यदि कोई इन अधिकारों का उल्लंघन करता पाया जाता है तो उसके लिए भारतीय दंड संहिता या अन्य विशेष कानूनों में निर्धारित दंड भी है। संविधान ने नागरिकों को जो समान अधिकार दिए हैं उसके बावजूद आज भी समाज में लिंग के आधार पर स्त्री और पुरुषों के बीच भेदभाव होता है।
प्राचीनकाल से ही सामाजिक,राजनीतिक आदि क्षेत्रों में पुरुषों की सत्ता रही है जिसके कारण स्त्रियों को हमेशा ही उनके अधिकारों और कार्यक्षेत्र में मिलने वाले अवसरों से वंचित किया जाता रहा है। पितृसत्ता महिलाओं की समानता तथा आज़ादी के खिलाफ है। नारीवाद का उद्देश्य इसी पितृसत्ता को खत्म करके समाज में लैंगिक समानता लाना है। आज नारीवाद का नाम सुनते ही कुछ लोग अपने दिमाग में कई तरह की अवधारणाएं बनाने लग जाते हैं कि नारीवाद पुरुष विरोधी है और यह समाज में मातृसत्ता की स्थापना करने की कोशिश है जो कि बिल्कुल गलत बातें हैं। नारीवाद एक समावेशी विचारधारा है और यह किसी लिंग का विरोध नहीं करता है बल्कि सभी लिंग के लिए समान रूप से अधिकार तथा अवसरों का पक्षधर है। नारीवाद पितृसत्ता को खत्म कर मातृसत्ता की मांग नहीं करता है यह लैंगिक आधार पर सत्ता के निर्धारण का ही विरोध करता है। जब तक समाज में किसी एक लिंग की सत्ता चलती रहेगी तब तक समानता का अधिकार एक सपने के बराबर ही रहेगा।
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नारीवाद इसी पितृसत्ता को खत्म कर औरतों को उनके अधिकार और जिन अवसरों से उन्हें वंचित कर दिया जाता है, वे अवसर और खुलकर जीने की आज़ादी देने के लिए सक्रिय रूप से काम करता है। नारीवाद एक समावेशी विचारधारा है जो ना केवल औरतों के लिए बल्कि उन सभी के लिए कार्यशील रहता है जिनके साथ उनके लिंग, जाति, रंग या धर्म आदि के आधार पर भेदभाव होता है। जैसे ट्रांसजेंडर, दलित-बहुजन-आदिवासी समुदाय के अधिकारों की बात करना, मानवाधिकार की बात करना, समलैंगिकों के लिए समानता की मांग भी नारीवाद का ही एक हिस्सा है। पितृसत्ता के कारण ही उच्च शिक्षा या कार्यक्षेत्र में उन लड़कियों को भी अवसर नहीं मिल पाते हैं जो पुरुषों की अपेक्षा उनसे अधिक सक्षम होती हैं।
अगर किसी घर में पैसों की तंगी होती है और वे अपने किसी एक ही बच्चे की ही पढ़ाई का खर्चा उठा सकते हैं तो वे हमेशा अपने बेटे की पढ़ाई जारी रखवाकर बेटी की पढ़ाई रुकवाने का फैसला लेते हैं। भले ही वह लड़की हर क्षेत्र में उस लड़के से अधिक प्रतिभाशाली ही क्यों ना हो क्योंकि पहले से ही यह विचारधारा चली आ रही है कि लड़कियों को तो शादी के बाद चूल्हा-चौका और रसोई ही संभालनी होती है। भले ही लड़की लड़के से ज्यादा ही क्यों ना कमाती हो पर फिर भी शादी के बाद घर वाले उस लड़की की ही नौकरी छुड़वा देते हैं यह कहकर, “अगर तुम बाहर काम करोगी तो घर कौन संभालेगा।” क्या कभी आपने शादी के बाद घर संभालने के लिए किसी लड़के को अपनी नौकरी छोड़ते देखा है? इसका कारण भी पितृसत्ता ही है जिसने पूरी तरह से स्त्री- पुरुषों की प्रतिभा, इच्छा और स्वाभाव को नज़रअंदाज़ करके पहले से ही उनकी जीवनशैली कैसी होगी इसका एक तय खांचा बना दिया है, जो कि पूरी तरह से गलत है।
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हम अक्सर लड़कों को लड़कियों से भविष्य के बारे में बात करते सुनते हैं,”तुम्हें किस बात की चिंता तुम लड़कियों के पास तो आगे पढ़ाई करना है या नहीं या फिर नौकरी करना है या नहीं इसका विकल्प होता है, जो हम लड़कों के पास नहीं होता।” जब स्कूल में शिक्षक कक्षा के सभी बच्चों से यह सवाल करते थे कि “बड़े होकर तुम सब क्या बनना चाहते हो?” तब सभी लड़कों की की तरह लड़कियां भी डॉक्टर,इंजीनियर बनने का ही नाम लेती हैं। शायद ही वहां किसी लड़की ने एक कुशल गृहणी बनने का नाम लिया होगा, यदि लिया भी होता तो कुछ गलत नहीं होता। किसी भी व्यक्ति को अपने जीवन के बारे में फैसला लेने का पूरा हक होता है, उसे नौकरी करनी है या नहीं। पर यह कह देना कि तुम्हें चिंता करने की क्या ज़रूरत है, ये पूरी तरह गलत होगा क्योंकि लड़कियों के ऊपर भी दबाव होता है कि अगर अगर 20-25 उम्र से पहले वह अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो सकी तो उन्हें अपने माता-पिता की इच्छा के अनुसार उनकी पसंद के लड़के से शादी करनी होगी और अपने सारे सपनों को भुला देना होगा।
आज समाज में सभी को नारीवाद की आवश्यकता है, पितृसत्ता को खत्म करके लैंगिक समानता लाने की ज़रूरत है जिससे हर व्यक्ति को अपने अनुसार अपने जीवन को खुलकर जीने की आज़ादी मिले।
दूसरी ओर लड़कों के पास नौकरी ना करने का विकल्प ना होना भी पितृसत्तात्मक रूढ़िवादिता का ही परिणाम है जिसके कारण यह विचारधारा बनी हुई है कि घर का मुखिया, तो पुरुष ही होता है। यदि कोई पुरुष बाहर काम ना करके घर का काम संभालना चाहे तो उसे इस समाज में तानों और हास्य का पात्र बना दिया जाता है । यह इस बात का सबूत है कि पितृसत्ता ना तो स्त्रियों के लिए ही ठीक है ना ही पुरुषों के लिए। इससे यह भी सिद्ध होता है कि नारीवाद की ज़रूरत भी सभी को है फिर चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या लिंग का ही क्यों ना हो। नारीवादी कोई भी वो इंसान हो सकता है जो समाज में समानता चाहता हो।
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आज समाज में सभी को नारीवाद की आवश्यकता है, पितृसत्ता को खत्म करके लैंगिक समानता लाने की ज़रूरत है जिससे हर व्यक्ति को अपने अनुसार अपने जीवन को खुलकर जीने की आज़ादी मिले। किसी के साथ लिंग,जाति,धर्म के आधार पर भेदभाव न हो। इस रूढ़िवादि विचारधारा के कारण ही बहादुरी या ऊंची आवाज़ में बात करने वाली महिला को मर्दानी कह दिया जाता है और भावुक पुरुष का मज़ाक़ उड़ाया जाता है कि लड़कियों की तरह रोते क्यों रहते हो। यही नहीं हमारे उठने,बैठने के ढंग को भी लिंग के आधार पर बांट दिया गया है। जैसे अगर कोई लड़का एक के ऊपर एक पैर चढ़ाकर बैठे तो उसे लड़कियों वाली हरकत कह दी जाती है। लड़कियों को हमेशा ही पुरूषों के आदेशों का पालन करना औपर उनके कहे अनुसार रहना सिखाया जाता है। हमेशा से यही बताया जाता है कि शादी के बाद पत्नी के लिए पति ही उसका स्वामी होता है। एक स्त्री को घर की इज़्ज़त के रूप में देखा जाता है, पर उसका खुद का अस्तित्व? उसका अस्तित्व इस समाज में मात्र उसके शरीर से ही माना जाता है कभी उसकी सुंदरता, उसकी वर्जिनीटी आदि के आधार पर। स्त्रियों को पुरूषों की संपत्ति माना जाता है और अगर कोई स्त्री इसका विरोध करती है तो उस पुरुष के अहम् पर चोट लगती है क्योंकि शुरू से ही स्त्रियों को पुरुष के अधीन माना गया, जिससे वह उस स्त्री को प्रताड़ित करने लगता है। इस रूढ़िवादी विचारधारा का कारण पितृसत्ता ही है जिसे खत्म करना बहुत आवश्यक हो गया है।
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तस्वीर : श्रेया टिंगल