एडिटर्स नोट: यह लेख फेमिनिस्ट अप्रोच टू टेक्नॉलजी के प्रशिक्षण कार्यक्रम से जुड़ी लड़कियों द्वारा लिखे गए लेखों में से एक है। इन लेखों के ज़रिये बिहार और झारखंड के अलग-अलग इलाकों में रहने वाली लड़कियों ने कोविड-19 के दौरान अपने अनुभवों को दर्शाया है। फेमिनिज़म इन इंडिया और फेमिनिस्ट अप्रोच टू टेक्नॉलजी साथ मिलकर इन लेखों को आपसे सामने लेकर आए हैं अपने अभियान #LockdownKeKisse के तहत। इस अभियान के अंतर्गत यह तीसरा लेख झारखंड के गिरीडीह ज़िले की खुशी ने लिखा है।
मेरी दोस्त रीमा की उम्र 18 साल है। वह झारखंड राज्य के गिरिडीह के पचम्बा की रहनेवाली है। वह अपनी पढ़ाई सरकारी स्कूल से पूरी कर रही थी। उसको पढ़ना बहुत अच्छा लगता था। अगर स्कूल में कोई प्रतियोगिता होती तो उसमें भी रीमा का प्रदर्शन बहुत अच्छा रहता था। रीमा एक मज़दूर परिवार से आती है। उसके पापा कोयला लाकर बेचते थे। फिलहाल वह कोई काम नहीं करते हैं क्योंकि अब उनका आधा शरीर ही काम करता है। लगभग 7-8 साल पहले उन्हें लकवा मार गया था। रीमा से बड़े दो भाई हैं जो पढ़ाई करने के साथ-साथ घर भी चलाते हैं। रीमा के एक भाई टोल टैक्स में काम करते हैं। रीमा के जन्म के समय सब बहुत खुश थे क्योंकि दो बेटों के बाद एक बेटी आई थी। अपने घर में पैसे की कमी रीमा ने हमेशा महसूस की है। लेकिन उसकी ज़रूरत सब पूरी करते थे। उसके घरवालों का मानना है, “बेटे फटे कपड़े भी पहनेंगे तो चलेगा, पर बेटियों को फटे कपड़े नहीं पहना सकते। उनकी इज्ज़त उनके शरीर में होती है।”
रीमा के परिवारवाले दिन बोलते तो रीमा को दिन लगता, रात बोलते तो रात। उसे लगता है कि उसके परिवारवाले उसके लिए कुछ गलत या बुरा कभी नहीं सोचेंगे, कभी कुछ गलत नहीं सिखाएंगे। वह जिस समाज में पली-बढ़ी है उसमें बेटी को पढ़ने तो दिया जाता है, लेकिन पढ़ने की आज़ादी के साथ-साथ बेड़ियां भी लगाई जाती हैं। लड़कियां इन बेड़ियों को अपनी भलाई समझकर खुद ही अपने पैरों में ये बेड़ियां लगा लेती हैं। वह बिना किसी सवाल के क्योंकि उन्हें लगता है कि कहीं हम पर एक बुरी बेटी की मुहर ना लग जाए और अगर बुरी बेटी का ठप्पा लग गया तो कोई उनसे शादी नहीं करेगा। लड़की को तो राजकुमार का सपना दिखाया जाता है कि एक दिन मेरा राजकुमार आएगा और हमें ले जाएगा और हमें खुश रखेगा।
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एक बार रीमा के स्कूल में सरस्वती पूजा हो रही थी और पूजा में स्कूल ड्रेस नहीं, घर के कपड़े पहनकर जाना था। रीमा की सारी दोस्त जींस टॉप पहनकर जा रही थी। केवल रीमा ने सलवार सूट पहना हुआ था क्योंकि उसके परिवारवाले नहीं चाहते थे कि रीमा कभी जींस टॉप पहने। रीमा ने भी सोचा था कि जब परिवारवाले नहीं चाहते तो वह भी उनके ख़िलाफ़ जाकर जींस-टॉप नहीं पहनेंगी। पर उस दिन उसका भी मन कर रहा था कि वह भी जींस पहने। उसके दोस्त भी कह रहे थे कि तुम भी जींस पहनती तो सब एक जैसे लगते। रीमा ने सोचा एक बार तो पहन ही सकते हैं। घर आकर उसने अपनी मां से पूछा। मां ने पहले तो कुछ नहीं कहा फिर बोली कि भइया से पूछो। भाई बोला पापा से पूछो और फिर सब चुप हो गए। उस दिन रीमा को लगा कि मै तो सबकी बात एक बार में मान लेती हूं। आज मैंने अपनी मर्ज़ी से कुछ करना चाहा पर कोई मान नहीं रहा। यह बोलकर वह रोने लगी। बोली मैं नहीं जा रही सरस्वती पूजा में। तब रीमा के भइया बोले तुम जींस पहन लो। रीमा खुश हो गई कि आज पहली बार जींस पहनेगी। केवल शर्त यह थी कि जींस के साथ वो टॉप नहीं, सूट या लंबा कुर्ता पहनेगी। रीमा को लगा कि कुछ नहीं से अच्छा है कुछ।
समय बीत रहा था। तूफान आने के पहले की शांति छाई थी। बेखबर लोग अपनी धुन में जी रहे थे। जो लोग पंछियों को कल तक बंद कर के रखते थे, आज वो खुद घरों में बंद होने को मजबूर हो चुके हैं। कल तक घर में रहनेवालों को क्या कुछ नहीं बोला जाता था और आज घर में रहने वाले को समझदार बोला जाता है। देश में लॉकडाउन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। लोगों के जीवन में भी उथल-पुथल मचनी शुरू होने लगी थी। मैंने अपने समुदाय में ज़्यादा यही देखा कि लोग घर में रहने के लिए तैयार हैं, पर उन्हें अपने संसाधनों को जुटाने के लिए बाहर जाना पड़ रहा है। लोगों की हालत ऐसी हो चुकी थी मानो आगे कुआं और पीछे खाई है। लोगों के सामने यह स्थिति थी कि अगर घर में रहे तो भूख से मर जाएंगे और बाहर गए तो कोरोना वायरस से मरेंगे। मेरे समुदाय में सिर्फ एक या दो परिवार ही ऐसे होंगे जिन्हें लॉकडाउन में राशन या और किसी और तरह की समस्या नहीं हुई।
रीमा के परिवारवाले दिन बोलते तो रीमा को दिन लगता, रात बोलते तो रात। उसे लगता है कि उसके परिवारवाले उसके लिए कुछ गलत या बुरा कभी नहीं सोचेंगे, कभी कुछ गलत नहीं सिखाएंगे।
लॉकडाउन में रीमा के भाई की भी नौकरी जा चुकी थी। लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में तो उसके घर में राशन को लेकर कोई समस्या नहीं हुई। लॉकडाउन से पहले की तरह सामान्य इंसान जैसे खाना खा लेते थे। फिर भी वे नमक रोटी, नमक चावल ज्यादा खा रहे थे। कभी-कभी तो खाना भी आधा पेट खाकर सोना पड़ता था। रीमा ने देखा कि उसके अपने कंदू जाति के समुदाय में कैसे छोटे बच्चे रोटी न मिल पाने के कारण रो रहे थे। उसने उनके मां-बाप की तरसती निगाहों को देखा जिनको लगता था कि कब कोई राशन बांटने आएगा और उन्हें मिलेगा ताकि वे अपने बच्चों का पेट भर सकें। उसने राशन न मिलने के कारण झगड़ा करती हुई औरतों को उसने देखा। वह लॉकडाउन के भयंकर परिणाम को महसूस कर रही थी।
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पहले रीमा घर से थोड़ा बहुत बाहर निकलती थी, कभी कभी नाच-गा लेती थी। पर अभी वह इन सबसे दूर रहती है क्योंकि उसके भाई घर पर रहते हैं। घर का काम भी बढ़ गया है। लॉकडाउन में जहां सबके पास ज्यादा समय है वहीं रीमा के पास समय ही नहीं है। भाइयों के घर पर ही होने से रीमा जो भी अपने आपको अच्छा महसूस करने के लिए पहले करती थी वह नहीं कर पा रही थी। उसके पास फोन भी नहीं है जिससे वह गाने सुन सके। टीवी जहां रखा है वहां पर भाई लोग बैठे रहते हैं। भाई या पापा के सामने न गाना सुन सकते हैं न और कुछ देख सकते हैं। बस न्यूज़ ही देख सकते हैं क्योंकि रीमा के परिवार का मानना है कि टीवी पर कभी-कभी ऐसे सीन दिखाए जाते हैं जो भाइयों के सामने नहीं देखना चाहिए। एक बार जब रीमा टीवी देख रही थी तो टीवी में एक कपल (जोड़े) का सीन आ गया। फिर उसका भाई अचानक आ गया और उसने देख लिया। तब से उसका ऐसा मानना है कि ये सब चीज़ें रीमा टीवी पर नहीं देखेगे। तभी रीमा के घर में दो नियम बने पहला- भाइयों के साथ बैठकर न्यूज़ देखना या न्यूज़ भी न देखना और दूसरा- कुछ उटपटांग न देखना।
मैंने पाया कि लॉकडाउन के समय जहां सब अस्त-व्यस्त हो रहा है, सब रुक चुका है, वहीं लोग शादी को रोकने का नाम नहीं ले रहे हैं। लोगों को लग रहा है कि अभी शादी में लोग कम आएंगे, खर्च कम होगा। एक साधारण शादी भी होगी तो बहाना लॉकडाउन है ना। मेरी दोस्त रीमा भी अपने परिवारवालों से ज्यादा कुछ नहीं मांगती, बस चाहती है कि अपनी महाविद्यालय की पढ़ाई पूरी करे। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह शादी करे। उसके घर आए दिन झगड़े होते रहते हैं। पैसे की कमी के कारण घर के जरूरी सामानों की आपूर्ति नहीं हो रही है। उससे लोग तनाव में रहते हैं, लोग अपने आपको कोसते हैं। लोग इतने दिनों से कहीं बाहर न जाने के कारण पहले के जैसे जीवन जीने को तरस रहे हैं। शायद अब हम इंसानों को समझ आए कि घर हमारा पिंजरे से बड़ा होता है, फिर भी हम नहीं रह पाते। हम जब घर में बंद होते हैं तो लोगों पर चिल्लाते हैं, दूसरों का गुस्सा घरवालों पर निकालते हैं। जो आसमानों में उड़ने के लिए बने हैं वो एक पिंजरे के अंदर कैसे रहते होंगे, शायद मैं अब इसे महसूस कर पा रही हूं।
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रीमा अपनी आगे की पढ़ाई के लिए दाखिला करवा रही है, पर उसके लिए फीस लगेगी। अब घर में खाने को दाना नहीं तो दाखिला कहां से करवाएगी। जब सब दरवाजे बंद हो तो कुछ समझ नहीं आता। फिर भी रास्ता मिल जाता है क्योंकि हम कोशिश करते हैं। रीमा को भी रास्ता मिला जब उसके खाते में 500 रुपए आने की खबर मिली। लॉकडाउन में बहुत लोगों के खाते में तीन महीनों केु लिए 500 रुपये आ रहे थे। यह सरकार के द्वारा चलाई जानेवाली योजना थी। रीमा के खाते में दो महीनों के पैसे एक साथ आए। इन पैसों का इस्तेमाल उसने अपने दाखिले के लिए करना का फैसला किया। उसने इस पैसे के बारे में घर में भी नहीं बताया,ताकि कोई घर खर्च के लिए न मांग बैठे। रीमा डर भी रही थी क्योंकि जहां घर से बाहर नहीं निकलने के लिए कहा रहा है, उस स्थिति में वह कॉलेज जाने की सोच रही है। फिर भी हिम्मत करके जाना तो होगा ही। वह “जय हनुमान” करके चली तो गई, पर कॉलेज जाने के बाद उसने देखा कि सामाजिक दूरी तो छोड़ो सब एक-दूसरे से बेहद सटकर खड़े थे। प्रशासन उस समय तो कॉलेज में नहीं था, पर एक रिपोर्टर कॉलेज की एक फोटो लेकर चला गया। यह देखकर वह और डर गई क्योंकि उसे लगा कि कहीं यह वायरस उसके ज़रिये उसके परिवारवालों तक न पहुंच जाए।
लॉकडाउन में मैं जब रीमा के घर जाती थी तो मैंने यह महसूस किया कि उनकी आंखों में भूख की चमक है। आंखें ऐसे चमकती हैं मानो अंधेरे में देखती रोशनी। उसके घर में शांति इस कदर थी कि सुई भी अगर गिरे तो उसकी आवाज आराम से सुनी जा सकती है। जबकि लॉकडाउन के पहले उसके घर में चहल-पहल दिन भर रहती थी। अपने घर की इस खामोशी को देखकर रीमा खुद भी खामोशी की गहराई में डूबती जा रही है। वह कुछ कर भी नहीं पा रही है। वह चाहती है कि कुछ करे, पर कर नहीं पा रही। बस हालात से जूझ रही है। उसकी बातों में निराशा, नकारात्मक विचार को कोई भी महसूस कर सकता है। रीमा अपनी तुलना उस एक दीये से करती है जिसमें तेल नाममात्र का बचा है। और कोई मदद भी नहीं कर सकता क्योंकि लोग सोच रहे हैं कि अगर आज हम इसकी मदद कर देते हैं तो फिर कल मेरी मदद करनेवाला कोई नहीं होगा। सच्चाई कोई देखना नहीं चाहता कि लॉकडाउन के कारण सबके घर में दिक्कत है। हम उस समुदाय में रहते हैं जहां लोगों का मानना है कि नमक पानी में घोलकर पी लेंगे, लेकिन किसी के सामने अपने घर की आर्थिक स्थिति का खुलासा नहीं करेंगे। अगर रखेंगे तो लोग हंसेंगे, इस डर के कारण लोग एक दूसरे से अपनी परेशानियां साझा करने से डरते हैं। सब अपनी झूठी शान लेकर जी रहे हैं। मेरे समुदाय में लोगों को भूखे पेट रहना मंजूर है, पर किसी को अपनी समस्या बताना मंजूर नहीं। यह सही भी है क्योंकि लोग बाद में एक दूसरे के बारे में चुगली करते हैं और दूसरों के सामने रोने से अच्छा है कि घुट-घुटकर रहें।
लॉकडाउन में सबसे ज्यादा लोगों की मानसिक हालत खराब हो रही है। अलग-अलग चीजों के बारे में सोच-सोच कर वे परेशान हैं। पर अगर आप उनकी मानसिक हालत के बारे में पूछें तो उन्हें लगता है कि हम उन्हें पागल समझ रहे हैं। इस वजह से कोई अपने मन की स्थिति बताना ही नहीं चाहता। यहां के लोगों को लगता है कि लोग सिर्फ शारीरिक रूप से ही बीमार हो सकते हैं, मानसिक हालत के बारे में कोई सोचता ही नहीं है। कई लोग इतने परेशान हो गए कि खुद को ही पीटने भी लग रहे हैं। समाज में छुआछूत की भावना ने प्रचंड रूप धारण कर लिया है। मेरे पड़ोस के एक परिवार का बेटा बाहर रहता है। शादीशुदा है, वह लॉकडाउन से पहले बीमार था। काम नहीं कर पाने के कारण जब सब प्रवासी लौट रहे थे उस समय वह परिवार के साथ घर लौट आया। रास्ते में जहां भी जांच होती वहां वह जांच कराता हुआ आया। घर आने के बाद भी उसने कोरोना की जांच करवाई, पर लोग उसके परिवारवालों में किसी के साथ बात नहीं करते हैं। चलो बात नहीं करनी तो न करो, लेकिन उनका अपमान भी मत करो। लोग उनकी बेटी को भी भला बुरा बोलने लगे। उसके परिवार के साथ लोगों का व्यवहार ऐसा हो गया मानो किसी अपराधी को दंड दिया जा रहा है।
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पहले लोग काम-काज में व्यस्त रहते थे, पर जब सब खाली हैं तो समय काटने के लिए अपने मज़े और अपने शक की बुनियाद पर लोग पहले से ज्यादा एक-दूसरे पर नज़र रखते हैं। उसमें भी ज्यादा महिलाओं और लड़कियों के लिए यह चुनौती है। वे अपना निजी काम नहीं कर पाती हैं। उन्हें डर रहता है कि कहीं कोई ताक-झांक तो नहीं कर रहा। इन कारणों से महिलाओं के व्यवहार में चिड़चिड़ापन आता जा रहा है। वहीं, घर के लिए संसाधनों को न जुटा पाने के कारण पुरुषों में चिड़चिड़ापन आ रहा है। कोई एक-दूसरे को समझ नहीं पा रहा है। मैं अपने अनुभव से बता सकती हूं कि लॉकडाउन ने मुझे एक सीख दी कि जब एक इंसान कोई फैसला लेता है और उसे सबको मानना पड़ता है तो लोगों को किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है। लॉकडाउन का फैसला कितना सही कितना गलत है, मुझे नहीं पता। लेकिन लॉकडाउन ही एक विकल्प था वायरस को रोकने का, ऐसा मुझे नहीं लगता।
इधर स्थिति को देखते हुए ऑनलाइन पढ़ाई भी शुरू हो गई थी। रीमा के पास स्मार्टफोन भी नहीं है। अपने कॉलेज से संबंधित कोई भी जानकारी लेने के लिए उसे सोचना पड़ता है। लॉकडाउन के बीच जब रीमा की 12वीं का परिणाम आया तो उसकी सारी दोस्तों ने अपने-अपने परिणाम देख लिए थे। एक रीमा ही नहीं देख पाई क्योंकि घर में जो फोन था वह उसका भाई लेकर चला गया था। रात में जब वह लौटा तब रीमा ने अपना परिणाम देखा। मैं सोचती हूं कि क्या उसका भाई उसको ऑनलाइन क्लास करने के लिए फोन देगा। अगर वह कॉलेज में दाखिला ले भी लेती है तो भी वह क्लास नहीं कर पाएगी। भाई फोन नहीं देगा। भाइयों को इजाज़त है कि वे फोन का जब चाहे इस्तेमाल करें। वे घर भी तो चलाते हैं, इसलिए उनकी पढ़ाई, उनका क्लास करना बहुत ज़रूरी है। और जब रीमा क्लास करेगी और भाई नहीं करेंगे तब तो मां भी इस बात के लिए नहीं मानेगी। सिर्फ रीमा क्या, मेरे समुदाय में बहुत छोटे बच्चे हैं जिनके घर में कोई स्मार्टफोन नहीं है। इस वजह से उन सबकी पढ़ाई रुक गई। जिसके घर में फोन है उनका फोन स्कूल के ग्रुप में जोड़ दिया गया है। हालांकि, ऑनलाइन क्लास में कोई भी कितना पढ़ पा रहा है, इसे भी देखने की ज़रूरत है। पहले जब स्कूल या काम से एक दिन की छुट्टी होती थी तो लोग उस दिन का बहुत इंतजार करते थे ताकि वे आराम कर सकें, अपने परिवार के साथ कुछ वक्त बिता सकें, छुट्टी का आनंद ले सकें पर लॉकडाउन वाली जो छुट्टी है उसका लोग आनंद नहीं ले रहे, लोगों का आनंद छुट्टी ले रही है।
इधर स्थिति को देखते हुए ऑनलाइन पढ़ाई भी शुरू हो गई थी। रीमा के पास स्मार्टफोन भी नहीं है। अपने कॉलेज से संबंधित कोई भी जानकारी लेने के लिए उसे सोचना पड़ता है।
अप्रैल महीने में हर साल चैती पूजा लोग धूम-धाम से मनाते हैं। रीमा के घर से सामने एक मेला लगता था जो चैती दुर्गा का होता है। लोग मेले में दुकान भी लगाते हैं। यह मेला एक स्रोत था लोगों की आमदनी का। लेकिन इस बार चैत में ना कोई मेला लगा न पूजा के वक्त का उत्साह जगा। लोगों को मेले से खुशी मिलती थी, पर उनसे खुश रहने की वह वजह भी छिन चुकी थी। लॉकडाउन में सब के होठों पर हंसी नहीं, रोती हुई आंखों को देखा मैंने। जब मेला लगता तो अगर बगल के दो गांव में रौनक छा जाती और मंत्रों की गूंज पूरे गाँव में गूंजती।
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यह कहानी रीमा की ही नहीं, मेरे समुदाय की भी है। इस लॉकडाउन में बहुत से घर ऐसे हैं जो अपने परिवार के इंतजार में बैठे हैं, पर वो घर नहीं आ पा रहे हैं और कुछ परिवार ऐसे हैं जो खाने का इंतजार कर रहे हैं। कुछ परिवार ऐसे हैं जिनको सामान्य सर्दी या खांसी है, पर वे दवा लेने नहीं जा रहे क्योंकि डर है कि कहीं उन्हें कोविड-19 का मरीज़ बोल के उठाकर ले गए तो क्या होगा। इस लॉकडाउन में बड़े-बड़े लोग हमें समझा रहे हैं कि अपने परिवार के साथ रहिए, सुरक्षित रहिए, घर में रहिए। लेकिन जब भूख लगी रहती है तो किसी की बात याद नहीं रहती। लोग बस ये जानते हैं कि मुझे भूख लगी है और मुझे खाना चाहिए। वायरस से लोग 14-15 दिन में मरेंगे, पर इन 14-15 दिन में जितनी बार मुझे या मेरे परिवार को भूख लगेगी उतनी बार हम सब तड़पेंगे । भूखे पेट न नींद आएगी न किसी की बात सुन सकेंगे। बस लोगों को राशन मिलता है और अब तो गैस भी फ्री नहीं दी जा रही है। सब्सिडी भी नाममात्र की मिल रही है। राशन बांटने कोई आता है तो वह सबकी मदद नहीं कर पाता। जिस चेहरे पर मैं हंसी देखती थी वह हंसी देखने को मेरी निगाहें तरस गई हैं। बरसात में नदियों में पानी जिस तरह भर जाता है उसी प्रकार लोगों की आंखों में पानी है और बहुत लोग तो खामोशी के गुमनाम रास्ते पर चल पड़े हैं।
तरसती हैं निगाहें ये देखने को जहां सबके
चेहरे पर खिलखिलाती हंसी हो,
थक चुकी मैं लोगों की निराशा से भरी बातें सुन-सुन के
चुभती है लोगों की खामोशी
तरसती हैं निगाहें उन बच्चों को देखने के लिए जो,
सुबह शाम अपने पापा और दादा के साथ दुकान के
रास्ते में चलते थे।
छिप गए पुल में बैठे लोग,
चारों तरफ खामोशी ने पैर पसारे।
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