संस्कृतिमेरी कहानी ‘बचपन में हुए यौन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ न उठाना मेरी गलती नहीं थी’

‘बचपन में हुए यौन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ न उठाना मेरी गलती नहीं थी’

मैं आज भी हैरान होती हूं कि खेलने-कूदने वाली उम्र में उसे इतनी समझ कैसे और कब हुई। लेकिन मैं खुद ही उसकी यौन इच्छाओं को पूरा करने लगी और जैसा कि उसने समझाया था, मैं इसे भी साधारण खेल ही समझ रही थी।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट के उस आपत्तिजनक फैसले पर रोक लगा दी है जिसमें बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने कहा था कि बिना ‘स्किन टू स्किन कॉन्टैक्ट’ किए किसी नाबालिग के अंगों को अगर छुआ जाए, तो उसे यौन उत्पीड़न नहीं माना जा सकता और पॉक्सो एक्ट के दायरे में नहीं रखा जा सकता। मानसिक या शारीरिक शोषण की मात्रा या गंभीरता कितनी भी कम क्यों न हो, उस चोट का एहसास सर्वाइवर के साथ कभी-कभी आजीवन बना रह जाता है। इसके लिए आवश्यक रूप से ‘स्किन टू स्किन कॉन्टैक्ट’ की ज़रूरत नहीं होती।

मैं शायद तीसरी कक्षा में थी जब मेरे साथ पहली बार यौन उत्पीड़न हुआ था। मेरा उत्पीड़क मेरे ही मोहल्ले में रहने वाला, वह मुझ से उम्र में थोड़ा सा ही बड़ा था। मैं आज भी हैरान होती हूं कि खेलने-कूदने वाली उम्र में उसे ये सब कैसे पता था। लेकिन मैं खुद ही उसकी यौन इच्छाओं को पूरा करने लगी और जैसा कि उसने समझाया था, मैं अपने यौन उत्पीड़न को भी साधारण खेल ही समझ रही थी। उस समय इन विषयों की समझ न होने के बावजूद, ‘रंगे हाथों’ पकड़े जाने पर मेरी मां की पिटाई ने मुझे अपने घर की ही अदालत में ‘दोषी’ ठहरा दिया था। दुनिया में शायद ही कोई महिला है जिन्होंने अपने जीवन में यौन उत्पीड़न, शारीरिक, मानसिक या भावनात्मक शोषण का सामना न किया हो। इसके बावजूद समाज ने इसका इतना सामान्यीकरण कर दिया है कि अकसर इन घटनाओं को उजागर करना तो दूर, महिलाएं रोजमर्रा के जीवन में होनेवाले शारीरिक, मानसिक या भावनात्मक शोषण को भुलाकर आगे बढ़ जाती हैं।

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हालांकि, तीसरी कक्षा की घटना से मुझे यौन उत्पीड़न की परिभाषा समझ नहीं आई, न ही यौन उत्पीड़न के बारे में मेरी समझ पर कोई असर हुआ था। मेरे परिवार में अच्छे और बुरे स्पर्श या संपर्क की शिक्षा देने का कोई चलन नहीं था। न ही स्कूल या घर पर सेक्स एजुकेशन मिला। कक्षा में जहां मुझे बेबाक और निडर कहा जाता था, वहीं उस घटना ने निश्चित रूप से मुझे आत्म-सचेत और खुद के साथ किसी भी तरह के शोषण के खिलाफ़ दब्बू बना दिया था। शायद यही कारण था कि वह घटना मेरे जीवन की एकमात्र घटना नहीं हुई। इसके बाद कई बार कभी स्कूल में मानसिक शोषण, तो कभी घर, बस, ऑटो या राह चलते हुए यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ा।

मैं आज भी हैरान होती हूं कि खेलने-कूदने वाली उम्र में उसे इतनी समझ कैसे और कब हुई। लेकिन मैं खुद ही उसकी यौन इच्छाओं को पूरा करने लगी और जैसा कि उसने समझाया था, मैं इसे भी साधारण खेल ही समझ रही थी।

यह घटना नौवीं कक्षा की है जब एक दिन मेरी प्रिय शिक्षिकाओं में से एक ने कक्षा में मुझे और मेरी सहेली को हमारी ‘जोरदार हंसी’ के कारण फटकारा। साथ ही कहा कि हम हमेशा केवल ‘एवरग्रीन खीं-खीं’ ही करते रहें। उस घटना के बाद कितने ही दिनों तक हम उनकी कक्षा में कुछ भी बोलने से परहेज़ करते थे। साथ ही इस बात की भी कोशिश करते कि हमारे हंसने की आवाज़ तेज़ न हो। उस वक़्त भी मैं अपनी शिक्षिका के इस व्यवहार का विरोध नहीं कर पाई थी। अकसर समाज में महिलाओं का पालन-पोषण पितृसत्तात्मक, रूढ़िवादी और दकियानूसी परिवेश में होता है। इसलिए हम खुद भी दूसरी महिला का इन्हीं मापदंडों पर विश्लेषण करते हैं। मैं शुक्रगुजार हूं कि स्कूल में मेरे बेबाक और निडर स्वभाव के कारण ही मैंने ऐसी कई घटनाओं को अपने आगे बढ़ने के रास्ते में आड़े नहीं आने दिया।

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आज #MeToo जैसे कई अभियानों की शुरुआत हुई है। अनेक महिलाएं खुलकर अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न के अनुभवों को सामने लेकर आई हैं लेकिन आज भी लाखों ऐसी घटनाओं को गैर-ज़रूरी मानकर न तो प्रत्यक्ष रूप से उनकी शिकायत होती है न कोई कार्रवाई। इस सवाल का जवाब कि क्यों महिलाएं यौन उत्पीड़न, मानसिक या शारीरिक शोषण के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाती या सालों बाद कहती हैं, जटिल है।

महिलाएं आमतौर पर उत्पीड़क से बचती हैं, कई बार तो स्थिति की गंभीरता को नकारती हैं। उत्पीड़क या शोषक के व्यवहार को अनदेखा करती हैं या भूलने और सहने का प्रयास करती हैं। यौन उत्पीड़न के अनेक मामलों सर्वाइवर इसलिए भी चुप रहती हैं क्योंकि हमारे समाज की संरचना ही ऐसी है जहां सवाल अपराध करने वाले से नहीं बल्कि महिलाओं से पूछा जाता है। लिंग, धर्म, वर्ग, जाति, स्थिति, शिक्षा, यौनिकता आदि के आधार पर भेदभाव, पितृसत्तात्मक सोच को बढ़ावा देता है। राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की समान भागीदारी, बच्चों को समय पर पर्याप्त सेक्स एजुकेशन, सामान्य तौर पर किसी भी व्यक्ति को प्यार करने और जाहिर करने की छूट, निष्पक्ष न्यायिक व्यवस्था, लिंग समावेशी स्कूल, कार्यालय और सार्वजनिक स्थल, लैंगिक भेदभाव न करना, ऐसे कुछ बुनियादी बदलावों के माध्यम से ही पितृसत्तात्मक परिवेश के चंगुल से बाहर निकलना संभव हो सकता है।

समय और उम्र के साथ-साथ मैं समझ गई कि किसी भी प्रकार का शोषण जायज़ नहीं हो सकता और इसमें सर्वाईवर की नहीं बल्कि लोगों की संकीर्ण मानसिकता का दोष है। आज मैं शोषण या अन्याय का विरोध करने में सक्षम हूं। मैं महिलाओं के लिए तय किए गए दायरे से बाहर सोचने, समझने और करने का हौसला रखती हूं, ताकि सालों बाद मेरी जैसी किसी भी दूसरी महिला को इस बात को समझने के लिए इंतज़ार न करना पड़े। 

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तस्वीर : अर्पिता विश्वास फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

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