एडिटर्स नोट : यह लेख फेमिनिस्ट अप्रोच टू टेक्नॉलजी के प्रशिक्षण कार्यक्रम से जुड़ी लड़कियों द्वारा लिखे गए लेखों में से एक है। इन लेखों के ज़रिये बिहार और झारखंड के अलग-अलग इलाकों में रहने वाली लड़कियों ने कोविड-19 के दौरान अपने अनुभवों को दर्शाया है। फेमिनिज़म इन इंडिया और फेमिनिस्ट अप्रोच टू टेक्नॉलजी साथ मिलकर इन लेखों को आपसे सामने लेकर आए हैं अपने अभियान #LockdownKeKisse के तहत। इस अभियान के अंतर्गत यह लेख बिहार के बक्सर ज़िले की प्रिया ने लिखा है, जिसमें वह बता रही हैं लक्ष्मी की कहानी।
बगही बिहार के बक्सर जिले में एक छोटा सा गांव है। उसी बगही में मैं रहती हूं। मेरे पड़ोस में लक्ष्मी अपने पति बिहारी राम के साथ रहती है। उसकी दो बेटियां हैं मीना और चिंता और एक बेटा है विनोद। लक्ष्मी गरीब तो है, लेकिन उसे खाने-पीने की दिक्कत नहीं थी। उसके बच्चे उसका सहारा, उसकी लाठी हैं। लक्ष्मी और बिहारी ने अपने बेटे विनोद और बड़ी बेटी मीना की शादी कर दी थी। उनका समय ठीक से गुज़र रहा था, तभी साल 2018 में बिहारी राम के शरीर को लकवा मार गया। उस समय मीना और उसके पति श्याम ने बिहारी के इलाज का खर्च उठाया। इलाज के लिए गांव से 18 किलोमीटर दूर जाना पड़ता था। ऑटो करके वे बिहारी को लेकर जाते थे। इलाज खत्म होने के बाद मीना और श्याम अपने घर लौट गए।
अब लक्ष्मी बिहारी की देखभाल करती थी। खेतों में रोपाई-बुवाई, कटाई करके वह दवा के लिए पैसे भी जुटाती थी। बगही में उतने भी धनी लोग नहीं रहते हैं कि कोई लक्ष्मी को अपने घर पर काम के लिए रख सके। यहां रहने वाले सभी लोग घर का सारा काम खुद ही करते हैं। कुछ लोग जो बाहर रहते हैं, वे गांव शादी या किसी अन्य मौके पर नौकरानी रख लेते हैं। उस समय लक्ष्मी उन घरों में चौका-बर्तन करके थोड़े पैसे कमा लेती थी। अपनी बेटी चिंता की शादी के बारे में सोचकर लक्ष्मी दुखी होती रहती थी। वह सोचती रहती है कि वे लोग अपनी बेटी को ना ही पढ़ा पाए, ना ही उसकी अच्छी घर में शादी कर पाएंगे।
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इधर चिंता की दोस्ती पड़ोस में रहने वाले अपने एक रिश्तेदार से बहुत अच्छी थी। वह उससे बात करती थी। उन दिनों वह गांव के सरकारी स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ाई कर रही थी। घर में अपने मां-पापा से शादी की बात सुनने के बाद वह उनसे यह नहीं कह पाई कि उसने शादी के लिए लड़का पसंद कर लिया है और उसी से वह शादी करना चाहती। उसे शर्म आ रही थी कि यह सुनकर उसके मम्मी-पापा क्या कहेंगे। डर भी था कि वे शायद यह सुनकर उसकी शादी ही न होने दें। चिंता घर में किसी से यह बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई, अपनी बहन से भी नहीं। आखिर एक दिन अपने मम्मी-पापा को बिना बताए वह घर से निकल गई और बाहर जाकर उसने शादी कर ली। फिर वह अपने ससुराल चली गई। मेरे हिसाब से घरवालों की बिना मर्जी के चिंता ने इसलिए शादी की क्योंकि एक तो वह पहले से ही लड़के से प्यार करती थी दूसरा, उसके मम्मी-पापा के पास उसकी शादी के लिए पैसे नहीं थे। वह उनको इस परेशानी से बचाना चाहती थी।
लक्ष्मी का बेटा और बहू दिल्ली में काम करते थे, मजदूरी करते थे। जो बाहर से सामान आता-जाता है, वे उसी को ट्रेन में चढ़ाने का काम करते थे। इसमें इतनी कमाई नहीं होती थी कि वे कुछ पैसे अपने गांव भेज पाएं। तभी कोविड-19 महामारी आ गई और उसने सारी बाजी ही पलट डाली। पूरे देश में लॉकडाउन लग गया। उनका काम ठप्प हो गया। उनके पास कमाई का कोई स्रोत नहीं रहा। हारकर वे अपने गांव बगही लौट आए। बगही में लक्ष्मी और बिहारी दोनों बीमार थे। लक्ष्मी की हालत ज़्यादा खराब हो रही थी। विनोद के पास पैसे नहीं थे कि वह अपनी मां का इलाज करा पाए। वह भी हालात से मजबूर था। घर में अनाज भी नहीं था। ना ही नहाने के लिए साबुन-सर्फ, ना ही खाना पकाने का राशन, कुछ नहीं था। उसने अपनी पत्नी को उसके मायके भेज दिया और जो सरकार की तरफ से थोड़ा राशन मिलता था उस से ही वह अपना घर चला रहा था। कभी-कभार खेत में कुछ काम मिल जाता तो उससे जो पैसे आते उससे वह ज़रूरत का सामान ले आता।
इस महामारी में सारे लोग अपने में ही सिमट गए हैं। लोगों का रोज़गार बंद हो गया है। एक दूसरे से दूरी बनाए रखना है। बीमार लोगों से तो और लोग डर गए हैं। अपने ही अपने को छूने में, मदद करने से डर रहे हैं कि कहीं उन्हें भी कोविड न हो जाए।
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लक्ष्मी अपने घर और पति के देखभाल में इतनी व्यस्त हो गई थी कि वह अपनी सेहत पर ध्यान ही नहीं दे पाई। वह समय पर और भर पेट खाना नहीं खाती थी। आराम भी नहीं कर पाती थी। एक दिन लक्ष्मी के भी पूरे शरीर को लकवा मार गया। उसने एकदम बिस्तर पकड़ लिया। उसका चलना-फिरना तो दूर बोलना भी मुहाल हो गया। गनीमत थी कि लक्ष्मी की सेवा से बिहारी इतना तो ठीक हो गया था कि डंडे के सहारे उठ-बैठ जाता था, थोड़ी दूर चल भी पाता था। लक्ष्मी के बीमार पड़ने के बाद वही खाना भी पकाता था। लेकिन लक्ष्मी के इलाज का कोई इंतज़ाम नहीं हो पा रहा था। कोविड-19 महामारी ने सबके काम पर ताला मार दिया था। इस बार लक्ष्मी की बेटी मीना भी कोई मदद नहीं कर पाई, क्योंकि उसका भी अपना परिवार है और इस तालाबंदी में उन्हें भी कोई काम नहीं मिल रहा था। मीना का अपना घर चलाना भी मुश्किल हो गया था। ये सब परेशानियां तो थी ही तब तक दूसरी परेशानी भी आ गई। लक्ष्मी का घर मिट्टी और खपड़े का था, एक दिन लगातार हो रही बारिश में वह भी गिर गया। वे लोग बेघर हो गए। मजबूरन उन्हें उसी जगह टाट लगाकर रहना पड़ रहा है।
अंत यहां नहीं हुआ। लॉकडाउन में बेरोज़गार हो चुका विनोद बहुत परेशान था। उसने एक दिन अपने मां-बाप को बहुत मारा। उसने कहा, “तुम लोगों ने मेरे लिए क्या किया, ना ही घर बनाया और ना ही कुछ पैसे रखे, तो मैं कैसे तुम्हें खिलाऊं? मैं कुछ नहीं कर सकता तुमलोग के लिए।” वह लक्ष्मी और बिहारी को छोड़कर घर से भाग गया। लक्ष्मी सोचती थी कि बेटा तो बुढ़ापे की असली लाठी है, मुसीबत में साथ खड़ा रहेगा। लेकिन वह लाठी तो आज टूट गई। लक्ष्मी की हालत और बुरी हो चली। किसी तरह बिहारी कुछ खाना पका लेता था, नहीं तो उन पर दया करके कोई दे देता था। कभी-कभी मेरे घर से भी खाना दे दिया जाता था। यह हाल सुनकर लक्ष्मी की छोटी बेटी चिंता बगही आई। पांच दिन आकर वह अपने मां-बाप के साथ रही और फिर ससुराल चली गई। सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा क्योंकि बेटियां भी मां-बाप की लाठी होती हैं। चिंता को इस बार लक्ष्मी को संभालना चाहिए था।
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दस दिन के बाद विनोद घर वापस आया। वह मारपीट वैसे ही करता था, लेकिन कम से कम लकवाग्रस्त बिहारी और लक्ष्मी के लिए खाना बना देता था और उनको खिला देता था। मगर बस खाना ही सबकुछ नहीं होता है। लक्ष्मी को बहुत दुख था कि उसकी देखरेख करनेवाला कोई नहीं था। कभी-कभी बिहारी लक्ष्मी को किसी तरह नहला देता था। मुझसे लक्ष्मी का दुख देखा नहीं जाता था, लेकिन मैं असहाय थी। कुछ भी नहीं कर पाती थी। कोविड-19 की वजह से मैं भी बहुत डरी थी। उनका दुख महसूस करती थी, लेकिन कुछ कर नहीं पाती थी। घर पर कोई कैसे जाए? एक तो बीमार हैं और ऊपर से वहां एकदम साफ़-सफाई नहीं थी। अपने टाटी के पास में ही वह पेशाब-पखाना भी कर रहे हैं। उनकी मजबूरी समझते हुए भी उनकी मदद के लिए मेरे घरवाले तैयार नहीं थे। वे कह रहे थे कि तुम उनकी मदद कैसे कर पाओगी जब गांववाले भी कोई कुछ नहीं कर पा रहे। मैं क्या करती, मैं उनकी कोई मदद नहीं कर पाई। एक तो मैं अभी विद्यार्थी हूं, दूसरे गरीब और उससे भी बड़ी बात यह है कि मैं एक लड़की हूं। अपने पड़ोसी के लिए किसी से बात भी करती थी तो लोग कहते थे कि तुम अपना देखो।
फिर भी मैं कोविड-19 में अपने दोस्तों के साथ राशन वितरण का काम कर रही थी उस दौरान लक्ष्मी के घर भी मैंने दो बार राशन पहुंचाया। इसके बाद चाहकर भी कुछ नहीं कर पाई। मेरे गांव में सरकारी अस्पताल भी नहीं है। थाना इटाढ़ में बस एक छोटा अस्पताल है। वहां पर लकवा रोगियों के लिए दवा नहीं मिलती है। बड़ा सरकारी अस्पताल बक्सर में है। एक तो वह दूर है, दूसरा वहां दवा लेना सबके लिए संभव नहीं है। इस तालाबंदी में वहां जाना भी खतरे से खाली नहीं है। जाने के बाद बहुत लंबी लाइन में लगना पड़ता है। उस अस्पताल में कोरोना संक्रमित लोगों को भी रखा जा रहा है। अभी वहां अधिकतर कोरोना मरीज़ों का ही इलाज हो रहा है बस। लेकिन गरीब-गुरबा बीमार हो जाए तो उसकी सुनवाई नहीं होती है। जिसके पास पैरवी होती है वही सरकारी अस्पताल में इलाज करा सकता है। लेकिन जिसके पास पैरवी नहीं है उसकी तो कोई सुनता नहीं है। बस घंटों लाइन में लगे रहिए।
मैं सोचती हूं कि अगर लॉकडाउन नहीं लगा होता तो लक्ष्मी का भी इलाज हो पाता। इस महामारी में सारे लोग अपने में ही सिमट गए हैं। लोगों का रोज़गार बंद हो गया है। एक दूसरे से दूरी बनाए रखना है। बीमार लोगों से तो और लोग डर गए हैं। अपने ही अपने को छूने में, मदद करने से डर रहे हैं कि कहीं उन्हें भी कोविड न हो जाए। ऐसे में सरकार को यह देखना चाहिए कि कोरोना से ही नहीं बाकी सारे रोग भी हैं जिसके कारण लोग मर रहे हैं। आखिर अब लक्ष्मी की लाठी कौन बनेगा ?
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तस्वीर : फेमिनिज़म इन इंडिया