साल 2020, यह साल आने वाले कई सालों तक याद किया जाएगा। पूरी दुनिया में शायद ही कोई व्यक्ति हो जो इस महामारी के प्रभाव से अछूता रहा हो। इस महामारी की समस्या से सब परिचित हैं, लेकिन इस दौरान महिलाओं को हुई समस्याओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सरकार को लॉकडाउन के लिए कोई पूर्व नियोजित योजना बनानी चाहिए थी ताकि लोगों को जिन दिक्कतों का सामना न करना पड़ता, जिसे इस महामारी के दौरान हुए लॉकडाउन ने इन समस्याओं को कई गुना बढ़ा दिया। महामारी की समस्याओं से सब परिचित रहे लेकिन उस समय आई महिलाओं की समस्याओं को लेकर इस देश में कोई चर्चा नहीं हुई। हमारे देश में समय-समय पर आपदाएं आती रहती हैं, ऐसी स्थितियों में स्वाथ्य सुविधाओं का प्रभावित होना स्वाभाविक है। महिलाएं भी इससे अछूती नहीं रह पाती। इस लॉकडाउन के चलते ऐसे परिवारों पर भी खासा असर दिखा जहां की लड़कियां और महिलाएं स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए अपने आसपास की कम्युनिटी या स्कूल पर निर्भर रहती हैं। घर के कामकाज और बच्चों की देखभाल के साथ आर्थिक अनिश्चितता ने भी तनाव में इजाफा किया और इसका असर महिलाओं के पीरियड्स पर पड़ा।
कोरोना महामारी ने जिंदगी के हर क्षेत्र को प्रभावित किया है। इसके मनोवैज्ञानिक, आर्थिक, शारीरिक दुष्परिणाम सामने आए हैं। इसी के चलते महिलाओं में तनाव का असर देखने को मिला। लॉकडाउन की शुरुआत से महिलाओं को अनियमित पीरियड्स का सामना करना पड़ा। डॉक्टरों के मुताबिक पीरियड्स संबंधी शिकायतों में 20-25 फीसद का उछाल देखने को मिला और उन्होंने इसके पीछे कोरोना से पैदा हुए तनाव को कारण बताया। महामारी और उसपर हुए लॉकडाउन से उपजे तनाव का ज्यादा असर महिलाओं पर देखने को मिला। महिलाओं को घर से काम करने के चलते दोहरी मार झेलनी पड़ी। पीरियड्स के दौरान महिलाओं को किन समस्याओं का सामना करना पड़ा, खासकर वंचित तबकों की महिला मज़दूरों को, इस और शासन-प्रशासन का कोई ध्यान नहीं रहा। पीरियड्स के समय साफ-सफाई और सेनेटरी पैड की जरूरत होती है ताकि इंफेक्शन से बचा जा सके। जहां लोग लॉकडाउन में भरपेट खाने और सोने को मोहताज हैं वहां ऐसी व्यवस्था की उम्मीद नहीं की जा सकती। हमारे इस पुरुष प्रधान देश में वैसे भी पीरियड्स जैसे मुद्दों पर बात न करने का चलन है। महिलाओं की समस्याओं पर खुल कर न बोलना शिष्टाचार माना जाता है।
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सरकार और विभिन्न संस्थाएं हर जरूरतमंद तक भोजन और अन्य जरूरी सामान पहुंचाने में लगी रही। लेकिन लॉकडाउन ने महिलाओं में पीरियड्स प्रॉडक्ट्स तक महिलाओं की पहुंच की समस्या को और बढ़ा दिया है। लॉकडाउन के कारण इतनी समस्याओं से घिरे होते हुए भी, पीरियड्स उपलब्ध न हो पाना शायद इस पितृसत्तात्मक समाज को कोई खास समस्या नहीं लगी। बता दें कि स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार देश की केवल 12 प्रतिशत महिलाएं और लड़कियां ही सैनेटरी नैपकिन का उपयोग करती हैं, जबकि अधिकांश महिलाएं कपड़े आदि का ही उपयोग करती हैं। मैंस्ट्रुअल हेल्थ अलाएंस इंडिया के द्वारा किए गए सर्वे में पता चला है कि लॉकडाउन के कारण उन लड़कियों और महिलाओं के लिए और मुश्किलें खड़ी हो गई थीं जो स्कूल और कॉलेज से सेनेटरी पैड की आपूर्ति पर निर्भर थीं। सर्वे में शामिल तकरीबन 84% माहिलाओं ने बताया कि उनके गांवों और आसपास पैड्स की आपूर्ति न के बराबर रही।
पीरियड्स में महिलाओं को न सिर्फ असहनीय दर्द से गुजरना पड़ता है और उस समय शारीरिक और मानसिक तौर पर कई तरह के बदलाव होते हैं। यह हर महीने एक तय समय पर तो होता है पर अगर किसी वजह से यह समय पर न हो उसके कारण तनाव आ जाता है। कोरोना महामारी के चलते लॉकडाउन काफी महीनों तक रहा और लोग घरों में बंद रहे। ऐसे में कई महिलाओं में तनाव की समस्या रही जिसका इसकी सीधा असर उनके पीरियड्स पर पड़ा। डॉक्टरों की माने तो लंबे समय तक घरों में बंद रहने की वजह से नींद, खान-पान, शारीरिक गतिविधियां जैसी प्रक्रियाएं प्रभावित हुई। घर से बाहर न निकल पाने की वजह से तनाव की समस्या होने लगी। ऐसे में दुनियाभर में महिलाओं में एक नई समस्या देखी गई और वह रही अनियमित पीरियड्स, अधिक र्दनाक पीरियड्स और मेंस्ट्रूयल क्रैम्प्स।
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भारत में 2016 में की गई स्टडी ‘किशोर लड़कियों में मासिक धर्म स्वच्छता प्रबंधन’ में सामने आया कि 77 प्रतिशत लड़कियों को पीरियड्स के दौरान पूजा स्थलों पर जाने और धार्मिक वस्तुओं को छूने पर प्रतिबंध का सामना करना पड़ता है। केवल 55 प्रतिशत लड़कियों ने ही पीरियड्स को सामान्य माना है, जबकि 54 प्रतिशत लड़कियों ने पीरियड्स के बारे में जानकारी का प्राथमिक स्रोत अपनी मां को बताया। स्वच्छ इंडिया डॉट एनडीटीवी पर प्रकाशित एक न्यूज के अनुसार पीरियड्स शुरू होने के बाद हर साल भारत में 2 करोड़ 3 लाख लड़कियां स्कूल छोड़ देती हैं। लॉकडाउन के कारण कई लोगों का रोजगार छिन गया, ऐसे में आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण वे पीरियड प्रॉडक्ट नहीं खरीद पा रही थी। पीरियड्स के दौरान आज भी महिलाओं को रूढ़िवादी सोच और कई प्रतिबंधों का सामना भी करना पड़ता है जिसने इस लॉकडाउन के दौरान इस समस्या को और अधिक गंभीर बना दिया। एक प्रकार से कोरोना के दौरान महिलाओं के सामने स्वच्छता को लेकर समस्या बढ़ गई। इसकी चर्चा होना बेहद जरूरी है, लेकिन कहीं चर्चा होती दिख नहीं रही।
हमारे पितृसत्तात्मक समाज में लड़कियों और महिलाओं को अक्सर आखिर में और सबसे कम पोषण वाला खाना मिलता है। इसी पितृसत्तात्मक सोच के कारण ही महिलाओं को पुरूषों से कम आंका जाता है। ज्यादातर परिवार में सबके खाना खाने के बाद ही महिलाएं खाना खाती हैं। कई बार अगर खाना नहीं बचे तो उन्हें भूखा ही रहना पड़ता है। लॉकडाउन के इस समय में जब परिवारों में खाने और अन्य सुविधाओं की बेहद तंगी है तो उन्हें इस समय और भी ज़्यादा दिक्कतों का सामना करना पड़ा।| देश की 70 फीसदी आबादी पहले ही 20 रुपये रोज़ाना से कम पर गुजारा करने को मजबूर है। ऐसे में इन परिवारों की महिलाओं के सामने पूरे परिवार के लिए भोजन जुटाने और खुद के पोषण एवं जरूरत की चीज़ें जुटाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी। लॉकडाउन के दौरान घर के बाहर निकलने पर पाबंदी होना इसका एक बड़ा नुकसान पीरियड्स के दौरान लड़कियों और महिलाओं को भुगतना पड़ा क्योंकि वे सेनेटरी पैड लेने के लिए बाज़ार नहीं जा सकी। पितृसत्तात्मक सोच के चलते पीरियड्स जैसे मुद्दों पर घर में खुलकर अपनी परेशानियों के बारे में न बता पाना भी एक बहुत बड़ा कारण रहा, सेनेटरी पैड की बजाए अन्य जरूरतें प्राथमिकता में रही। महिलाओं के उत्थान के लिए सभी को माहवारी या महिलाओं से जुड़ी चीज़ों पर चुप्पी को मिटाना होगा। महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़े मिथ्यों को मिटाना होगा। वर्तमान में जो जरूरत है, उस जरूरत को पूरा करना होगा। ऐसा करके ही हम कोरोना जैसी आपदा में और उसके बाद भी महिलाओं की सेहत का ख्याल रख पाने में समर्थ हो सकेंगे।
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