साल 2012 में सर्दी के मौसम में देश की राजधानी समेत पूरे देश में लोगों की सड़कों पर न्याय की मांग करती तस्वीरों को भुलाया नहीं जा सकता है। देश में लोगों के अंदर आक्रोश था। यह गुस्सा लोगों में राजधानी में चलती बस में एक लड़की के साथ गैंगरैप के बाद की घटना के बाद जन्मा था। इस घटना से जुड़ी पल-पल की ख़बर को जानने के लिए लोग टीवी के सामने बैठे रहते थे। मीडिया ने ही सर्वाइवर को ‘निर्भया’ का नाम दिया। मीडिया की बलात्कार की घटनाओं पर कवरेज को लेकर हमेशा प्रश्नचिह्न खड़े होते रहे हैं।
दिल्ली गैंगरेप 2012 का मामला भारत में यौन हमले और बलात्कार को जिस तरह से परिभाषित किया जाता है, रिपोर्ट किया जाता है उसमें एक अहम मोड़ है। इस केस की रिपोर्टिंग पर लोगों की आपत्ति ने एनबीएसए जैसे मीडिया संस्था ने ऐसे केसों में मीडिया की रिपोर्टिंग के लिए गाइडलाइन्स का पालन करने के आदेश जारी किए। बीते दस साल में भारतीय मीडिया की बलात्कार, यौन हिंसा की घटनाओं को लेकर कवरेज कितना बदला है उसमें क्या सुधार हुए हैं, इसका मूल्याकंन यूएनएफपीए की एक ताजा रिपोर्ट करती है।
हाल ही मीडिया की बलात्कार की घटनाओं पर कवरेज को लेकर एक रिसर्च रिपोर्ट जारी हुई है। यह रिपोर्ट ‘जेंडर सेंसिटिविटी एंड द कवरेज ऑफ रेप इन द इंडियन न्यूज मीडिया’ के टाइटल से संस्था पॉपूलेशन फर्स्ट द्वारा जारी की गई है। इस रिपोर्ट में मुख्य रूप से इस केस के बाद से मीडिया की बलात्कार की घटनाओं के कवरेज पर बात की गई। अध्ययन में 2012 की घटना के बाद मीडिया कवरेज कितनी बदली है?, किस तरह से बदली है और मीडिया इस तरह की घटनाओं के कवरेज में दिशानिर्देशों का कितना पालन कर रहा है यह जानने की कोशिश की गई है।
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रिपोर्ट में 2012 से 2021 के दौरान बलात्कार की आठ घटनाओं की छह भाषाओं में रिपोर्टिंग का विश्लेषण किया गया। पांच केसों की मीडिया कवरेज का विस्तृत अध्ययन किया गया। इसमें शक्ति मिल केस (2013), जिशा केस (2016), कुष्मांडी केस (2018), हाथरस केस (2020) और आईआईटी गुहावटी (2021) की बलात्कार की घटनाओं पर मीडिया की रिपोर्टिंग का अध्ययन किया गया है। इस अध्ययन में कुल 200 न्यूज़ स्टोरी पर नजर रखी गई। इसमें से 117 अंग्रेजी भाषा से थी और 83 क्षेत्रीय भाषायों की ख़बर शामिल थी।
हाल ही मीडिया की बलात्कार की घटनाओं पर कवरेज को लेकर एक रिसर्च रिपोर्ट जारी हुई है। यह रिपोर्ट ‘जेंडर सेंसिटिविटी एंड द कवरेज ऑफ रेप इन द इंडियन न्यूज मीडिया’ के टाइटल से संस्था पॉपूलेशन फर्स्ट द्वारा जारी की गई है। इस रिपोर्ट में मुख्य रूप से इस केस के बाद से मीडिया की बलात्कार की घटनाओं के कवरेज पर बात की गई। अध्ययन में 2012 की घटना के बाद मीडिया कवरेज कितना बदली है?, किस तरह से बदली है और मीडिया इस तरह की घटनाओं के कवरेज में दिशानिर्देशों का कितना पालन कर रहा है यह जानने की कोशिश की गई है।
अध्ययन में शामिल ख़बरों को लैंगिक संवेदनशीलता के तौर पर आठ पैरामीटर पर मापा गया। जिनमें भाषा, सोर्स, कानूनी/चिकित्सीय/फोरेंसिक जानकारी, निजता, नैतिकता, सनसनी, इंटरसेक्शनलिटी और जेंडर जस्टिस पहलूओं को बलात्कार की ख़बरों में ध्यान दिया गया। रिपोर्ट में कहा गया है अध्ययन किए गए मामलों में मीडिया की रिपोर्टिंग विशेष रूप से भाषा के पूर्वाग्रह को दर्शाती हैं। कुछ ख़बरों में सामाजिक रूढ़ियों का उपयोग, सोर्सिंग में विविधता की कमी, गोपनीयता का उल्लंघन और इंटरसेक्शनल तत्वों के रेफरेंस की साफ कमी देखी गई।
इस अध्ययन में विश्लेषण की गई खबरें की भाषा की टोन, कीवर्ड, रूढ़ियों के साथ अन्य तत्वों में संवेदशीलता नजरअंदाज मिली। रिपोर्ट में कहा गया कि ख़बरों में साफतौर पर सर्वाइवर की पहचान को उजागर करने वाली भाषा का इस्तेमाल किया गया। बलात्कार की ख़बरों में सोर्स के मामले में बात की जाएं तो अध्ययन में सोर्स को लेकर विवधता गायब दिखी। बलात्कार से जुड़ी खबरों की ज्यादातर सोर्स आधिकारिक पाई गई। ख़बरों में इस्तेमाल ये सोर्स मुख्य रूप से पुरुष होते हैं। मात्र 23 प्रतिशत महिलाएं यौन हिंसा की घटनाओं की खबरों की सोर्स के तौर पर इस्तेमाल की गईं। यही नहीं अधिकतर खबरों में सोर्स के तौर पर केवल आधिकारिक सोर्स का इस्तेमाल हुआ। केवल कुछ ही ख़बरों में एक से ज्यादा सोर्स का इस्तेमाल किया गया।
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उदाहरण के तौर पर कहा गया है कि ‘जिशा केस’ से जुड़ी सोलह ख़बरों में केवल तीन ख़बरों में सर्वाइवर के परिवार और परिचितों के सोर्स का इस्तेमाल किया गया। इसके अलावा बाकी सारी ख़बरों में आधिकारिक सोर्स के तौर पर पुलिस, न्यूज एंजेसी, वकील, जज, अस्पताल और अन्य सोर्स के आधार पर ख़बर लिखी गई। साथ में यह भी पाया गया कि न्यूज रिपोर्टर को नए कानून के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। बलात्कार के मामलों पर लागू मेडिकल, फोरेंसिक सबूत के प्रयोग के बारे में क्रॉस क्वेश्चन के साथ पुलिस की जांच की आलोचना करने में मीडिया पेशेवरों में कमी देखने को मिली।
200 ख़बरों में से केवल 33.5 प्रतिशत में कुछ हद तक इंटरसेक्शनल हिस्सा दिखा। इससे अलग 66.5 प्रतिशत ख़बरों में इसकी साफ-साफ कमी देखने को मिली। बलात्कार की घटनाओं की मीडिया की रिपोर्टिंग में इंटरसेक्शनल पहलू पर चर्चा करते हुए हाथरस बलात्कार की घटना का उदाहरण देते हुए कहा गया है कि इस केस से जुड़ी 48 में से केवल 20 ख़बरों में सर्वाइवर की जाति से जुड़ी पहचान पर बात की गई। इस केस में जुड़ी जिन भी ख़बरों में सर्वाइवर की जाति दिखाई गई उनमें आरोपी की जाति ठाकुर का वर्णन नहीं किया गया।
मीडिया में ख़बरों पर लोगों की नजर ड़ालने में हेडलाइन का अहम रोल होता है। रिपोर्ट के बलात्कार की घटनाओं से जुड़े केस में कुछ हेडलाइन का उदाहरण देकर कहा गया है कि कैसे हेडलाइन के प्रयोग में मीडिया की अंसवेदशीलता दिखाई देती है। हेडलाइन में ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया जिसमें सर्वाइवर की पहचान उजागर होती दिखी। अध्ययन में यह भी पाया गया कि क्षेत्रीय समाचार मीडिया कवरेज में प्रचलित पितृसत्तात्मक मानसिकता की छाप देखने को मिलती है। यही नहीं उच्च जाति के पूर्वाग्रहों को भी दिखाता नजर आता है।
200 ख़बरों में से केवल 33.5 प्रतिशत में कुछ हद तक इंटरसेक्शनल हिस्सा दिखा। इससे अलग 66.5 प्रतिशत ख़बरों में इसकी साफ-साफ कमी देखने को मिली। बलात्कार की घटनाओं की मीडिया की रिपोर्टिंग में इंटरसेक्शनल पहलू पर चर्चा करते हुए हाथरस बलात्कार की घटना का उदाहरण देते हुए कहा गया है कि इस केस से जुड़ी 48 में से केवल 20 ख़बरों में सर्वाइवर की जाति से जुड़ी पहचान पर बात की गई।
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मीडिया संस्थान के लिए सुझाव
रिपोर्ट में आखिर में पत्रकारों को बलात्कार और यौन हिंसा की घटनाओं के कवरेज के लिए कुछ सुझाव दिए गए हैं। जिनमें भाषा, सोर्स, नैतिकता, इंटरसेक्शनल आदि जैसे पहलूओं को ध्यान में रखने वाली बातें कही गई हैं। भाषा में संवेदशीलता रखने की बात प्रमुख रूप से कही गई। विशेष रूप से सुर्खियों अस्पष्ट और सनसनी वाली नहीं होनी चाहिए। न्यूज रूम में न्यूज सोर्स के तौर पर महिलाओं और हाशिये पर मौजूद जेंडर को ऐसी घटनाओं को कवर करने का अधिक मौका देने के माहौल को विकसित करना कहा गया।
मीडिया बलात्कार की ख़बरों में सर्वाइवर को नैतिकता का पाठ अक्सर पढ़ाता नजर आता है। घटना के प्रभाव से अलग ख़बर में सर्वाइवर किसके साथ थी, किस समय थी, आरोपी से क्या रिश्ता था जैसी बातों पर ध्यान देने से बचना चाहिए। रिपोर्ट में सुझाव में कहा गया है कि घटना से जुड़े कानूनी पक्ष से केस की बात करनी चाहिए। केस की एफआईआर कॉपी के पब्लिश करने से बचना चाहिए। साथ ही मीडिया संस्थान में ट्रेनिंग स्किल को बढ़ाने के लिए वर्कशॉप के आयोजन के अलावा लगातार इस तरह की घटनाओं को रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों के मानसिक-स्वास्थ्य को अहमियत देते हुए उनके लिए समय-समय पर वर्कशॉप आयोजित करने का सुझाव दिया गया है।
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तस्वीर: अर्पिता विश्वास, फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए