‘तुम हो फ़ेमिनिस्ट हो। इसलिए तुमको महिला मुद्दों पर काम करना चाहिए।‘
‘नारीवाद का मतलब तो बस ‘महिला, महिला और महिला’ ही होता है।‘
नारीवाद को लेकर आपने भी कभी न कभी ऐसी बातें ज़रूर सुनी होंगी, जिसमें फ़ेमिनिस्ट का मतलब सिर्फ़ ‘महिला’ तक सीमित करके देखा जाता है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में नारीवाद का विचार खटकने वाला है। ये वह विचारधारा है जिससे हर पितृसत्तात्मक सोच वाले इंसान की भौंहें चढ़ जाती हैं और ऐसा होने की वजह बेहद साफ़ है- समावेशी नारीवाद का सामाजिक ग़ैर-बराबरी को चुनौती देना।
बदलते समय के साथ कहने को तो कई सारे बदलाव आए हैं पर वास्तविकता यही है कि समाज की बुनियादी पितृसत्तात्मक संरचना में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है। बेशक, अब पितृसत्तात्मक व्यवस्था की बनाए जेंडर आधारित दमन और विशेषाधिकार के रूप पुराने रूप में न दिखाई पड़े, पर इसका यह मतलब बिल्कुल भी नहीं है कि यह ख़त्म हो गया है। सच्चाई यह है कि बदलते समय के साथ पितृसत्ता ने अपने रंग को भी बखूबी बदला है। पहले जब भी महिलाएं अपने अधिकारों की बात करती तो उनके साथ हिंसा ही जाती थी, उनकी आवाज़ तो बंद करवाने और बढ़ते कदम को रुकवाने के प्रयास किए जाते थे। लेकिन अब समानता और महिला अधिकार की बात करने वाली महिलाओं को कभी ‘फ़ेमिनिस्ट’ तो कभी ‘घर तोड़ने वाली’ बताकर एक अलग ख़ेमे में समेटकर समाज से अलग-थलग करने का प्रयास किया जाता है।
महिलाओं के लंबे संघर्ष के बाद आज नारीवाद शब्द को जाना जाने लगा है, लेकिन इसके बुनियादी मूल्यों को आज भी धूमिल करने की कोशिश ज़ारी है। इसके लिए ‘नारीवादी’ या ‘फ़ेमिनिस्ट’ शब्द को सिर्फ़ महिलाओं तक सीमित करके प्रस्तुत किया जाता है। कई बार ये कम जानकारी की वजह से होता है और कई बार जानबूझकर भी, जिससे पितृसत्ता की चुनौती को सीमित किया जा सके। ख़ैर वजह चाहे जो भी हो, पर इस बात और व्यवहार को चुनौती अपनी मज़बूत समझ से ही देना ज़रूरी है। इसके ज़रूरी है कि हमें नारीवाद की सही समझ हो। वास्तव में नारीवाद का मतलब, समानता से है। समानता- जेंडर, जाति, लिंग, वर्ग, धर्म, शारीरिक सक्षमता जैसे उन सभी छोटे-बड़े आधारों से जिनके आधार पर समाज में ग़ैर-बराबरी की सत्ता का शासन सदियों से चला आ रहा है।
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नारीवाद विशेषाधिकार और दमन को नकारता है और मानवाधिकारों की पैरवी करता है। उदाहरण के लिए, क्योंकि कोई पुरुष है इसलिए उसे सभी अवसर मिले और एक महिला को उसके बुनयादी अधिकार भी न मिले, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वह महिला है तो नारीवाद इस गैर-बराबरी को चुनौती देता है। पर इसका के क़तई मतलब नहीं है कि नारीवाद सिर्फ़ महिला-पुरुष की ग़ैर-बराबरी तक ही सीमित। बल्कि इसके ठीक विपरीत नारीवाद हाशिएबद्ध समुदाय को बिना किसी भेदभाव के मुख्यधारा से जोड़ने की बात करता है।
आज अगर स्कूलों में बच्चों को बाल यौन शोषण के बारे में जागरूक किया जा रहा है और इसके लिए अलग से सेशन किए जाते है तो ये भी नारीवादी आंदोलन का ही नतीजा है।
किसान और कंपनियों के बीच का संघर्ष भी नारीवाद से जुड़ा मुद्दा है, क्योंकि यहां वर्ग आधारित ग़ैर-बराबरी है और जिसके चलते पूंजीवादी अपने विशेषाधिकारों का ग़लत इस्तेमाल करके किसानों का दमन करने का काम करते हैं। ठीक इसी तरह नारीवाद जाति, धर्म, विकलांगता, यौनिकता आदि के आधार पर समाज में होनेवाली ग़ैर-बराबरी और हिंसा को भी चिन्हित करता है। इसलिए अगर कोई व्यक्ति विकलांग अधिकार की बात करता है या सामाजिक बदलाव की दिशा में पहल करता है तो ये भी नारीवाद का ही हिस्सा होगा।
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नारीवाद को लेकर कई बार ये भी कहा जाता है कि ये वेस्टर्न आइडिया है। इसलिए इसे लेकर कई भ्रांतियां भी फैलाई जाती हैं। लेकिन इन सभी भ्रांतियों और बहस से बीच हम अक्सर ये भूल जाते हैं कि इस नारीवाद ने वास्तव में हमारे समाज को दिया क्या है? ये नारीवाद का ही नतीजा है जो आज हम सेक्स और जेंडर में भेद कर पा रहे हैं। इसे देख पा रहे है और समझ पा रहे हैं वरना घर से लेकर स्कूल तक हर जगह किचन का भूगोल महिलाओं तक और आर्थिक अवसर पुरुषों तक, ऐसे बताया और बसाया जाता रहा है, जैसे लड़की का जन्म घर के सामान और लड़के का जन्म पैसे कमाने वाले रोज़गार के साथ ही हुआ है। पर नारीवादी नज़रिए ने सालों के लंबे संघर्ष के बाद ये फ़र्क़ साफ़ किया कि सेक्स का ताल्लुक़ जैविक यानी जन्म से है और जेंडर का ताल्लुक़ समाज से है, जिसे समाज ने बनाया और बसाया है। ये नारीवादी विचारधारा का ही परिणाम है जो आज हम जेंडर बाइनरी से परे एलजीबीटी अधिकारों की बात कर पा रहे है।
आज अगर स्कूलों में बच्चों को बाल यौन शोषण के बारे में जागरूक किया जा रहा है और इसके लिए अलग से सेशन किए जाते हैं तो ये भी नारीवादी आंदोलन का ही नतीजा है। बाल विवाह, सती प्रथा जैसी ढ़ेरों जेंडर आधारित सामाजिक कुरितियों को चुनौती देने वाली विचारधारा नारीवादी ही रही है, जिसने समानता की पैरोकारी की है। बदलते समय के साथ नारीवादी विचारधारा में भी कई बदलाव किए गए और इसे वृहत रूप भी दिया गया है, जिसे समावेशी नारीवाद भी कहते हैं। ये हर उस इंसान की बात करता है जो ग़ैर-बराबरी का शिकार है, अपनी जाति, वर्ग, धर्म, शारीरिक संरचना या फिर किन्हीं अन्य कारणों से।
सरल शब्दों में समझें तो ‘नारीवाद समाज में इंसानों के लिए न किसी से कम और न किसी से ज़्यादा की बात करता है, बल्कि ये बराबरी की बात करता है।’ इसलिए अगर आप भी आज तक फ़ेमिनिस्ट या नारीवादी का मतलब सिर्फ़ महिला समझते थे तो अपनी उस समझ को थोड़ा अपडेट कीजिए और समझिए कि नारीवाद का मतलब सिर्फ़ महिला नहीं बल्कि सामाजिक ग़ैर-बराबरी को चुनौती देना और समाज में भेदभाव रहित सतत विकास को बढ़ावा देना है, ये एक विचारधारा है जो किसी की भी हो सकती है। फिर चाहे वो इंसान खुद को नारीवादी कहे या नहीं।
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तस्वीर साभार : Al Jazeera