समाजकानून और नीति अबॉर्शन के प्रगतिशील क़ानून के बाद भी युवा महिलाएं कर रही है हिंसा और शोषण का सामना

अबॉर्शन के प्रगतिशील क़ानून के बाद भी युवा महिलाएं कर रही है हिंसा और शोषण का सामना

मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमेंडमेंट) बिल, 2020 की जानकारी सीमित होना, इस क़ानून के प्रभाव को प्रभावित करता है।

बनारस शहर में रहनेवाली पचीस वर्षीय रिया (बदला हुआ नाम) कुछ महीनों पहले गर्भवती हो गई थी। रिया की शादी नहीं हुई थी और न ही वह इस प्रेग्नेंसी को लेकर तैयार थी। इसलिए उसने अबॉर्शन करवाने का फ़ैसला लिया। लेकिन रिया और उसके पार्टनर को इस बात की जानकारी नहीं थी कि अबॉर्शन उसका क़ानूनी अधिकार है। इसका फ़ायदा प्राइवेट हॉस्पिटल ने उठाया और रिया को एक हफ़्ते से अधिक समय तक एडमिट करके उसका आर्थिक शोषण किया। हॉस्पिटल ने रिया और उसके पार्टनर के डर का फ़ायदा उठाया और उनसे क़रीब पचीस हज़ार रुपए लिए। इसके बाद जब रिया की तबीयत बिगड़ने लगी तब उसके पार्टनर से हमसे मदद मांगी। इसका पता चलते ही मैंने रिया की उस हॉस्पिटल से छुट्टी करवाई। इसके बाद रिया को मैं एमटीपी ऐक्ट के तहत संचालित सरकारी अबॉर्शन केंद्र ले गई और उसका सुरक्षित अबॉर्शन करवाया।

रिया की हालत ने मुझे शिक्षा और जागरूकता के मानकों पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया। एक नामी यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने के बाद एक अच्छी कंपनी में नौकरी करने के बाद भी अपने अधिकारों के बारे में जागरूकता का अभाव कितना घातक हो सकता यह मुझे रिया से मिलकर पता चला। नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 के आंकड़ों की मानें तो भारत में गर्भसमापन की सबसे बड़ी वजह अनचाही प्रेग्नेंसी है। 47.6 फ़ीसद गर्भसमापन इसलिए होते हैं क्योंकि ये अनियोजित हैं और 11.03 फ़ीसद गर्भसमापन स्वास्थ्य से जुड़े कारणों की वजह से होते हैं। वहीं, 2.1 फ़ीसद गर्भसमापन इस वजह से होते हैं क्योंकि गर्भ में लड़की पल रही होती है ।

रिपोर्ट : भारत में एक-चौथाई गर्भसमापन घर में होते है 

संयुक्त राष्ट्र की वर्ल्ड पॉपुलेशन रिपोर्ट 2022 के अनुसार भारत में हर दिन असुरक्षित गर्भसमापन की वजह से क़रीब 8 महिलाओं की मौत हो जाती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (एनएफएचएस) के अनुसार भारत में होने वाले गर्भसमापन में एक-चौथाई से ज्यादा गर्भसमापन घरों में ही होते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 की रिपोर्ट पर नजर डालें तो पता चलता है कि भारत में कुल जितने भी गर्भपात होते हैं उनमें से लगभग 27 फ़ीसद गर्भपात घरों में ही होते हैं। इसका मतलब है कि महिलाएं बिना किसी डॉक्टरी सलाह के घर में ही गर्भसमापन कर रही हैं। अगर शहरों की बात करें तो 22.1 फ़ीसद महिलाएं गर्भसमापन घर पर ही करवा लेती हैं जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में ये आंकड़ा और भी ज्यादा 28.7 फ़ीसद है ।

‘असेसिंग द ज्युडिशियरी रोल इन एक्सेस टू सेफ अबॉर्शन-2’ रिपोर्ट में देशभर के हाईकोर्ट में मई 2019 से अगस्त 2020 के बीच गर्भसमापन की इजाजत मांगने के लिए दाखिल की गई याचिकाओं का अध्ययन किया गया। इस अध्ययन में यह पाया गया है कि बीते एक साल के दौरान सभी 14 हाईकोर्ट में 243 महिलाओं ने गर्भसमापन की इजाजत दिए जाने के संबंध में याचिका दाखिल की। इन याचिकाओं में से 84 फ़ीसद मामलों में न्यायपालिका ने गर्भसमापन की इजाज़त दे दी। आपको बता दें कि यह रिपोर्ट भारत में महिला अधिकारों के संरक्षण और उनकी सुरक्षित गर्भपात तक पहुंच बनाने के लिए कार्यरत करीब 100 से ज्यादा व्यक्तियों और संगठनों के नेटवर्क प्रतिज्ञा ने तैयार की है।

रिपोर्ट के अनुसार, हाईकोर्ट के सामने आए 243 मामलों में से 74 फीसदी ने भ्रूण परिपक्व होने की 20 सप्ताह यानी 5 महीने की अवधि पूरी होने के बाद उसे नष्ट कराने की इजाज़त मांगी थी। लेकिन 23 फीसद मामलों में 20 सप्ताह के अंदर ही यह याचिका दाखिल कर दी गई थी जबकि इन मामलों में गर्भसमापन की इजाजत के लिए अदालत से अनुमति मांगने की आवश्यकता ही नहीं थी। रिपोर्ट की लेखक अनुभा रस्तोगी का दावा है कि गर्भसमापन की कानूनी इजाजत मांगने के लिए बढ़ती याचिकाएं इस बात का सबूत हैं कि देश में सुरक्षित और कानूनी गर्भसमापन सेवा की कितनी आवश्यकता है।

गर्भसमापन नहीं, लिंग चयन के आधार पर गर्भसमापन अपराध है

हमें समझना होगा कि गर्भसमापन की जब भी बात होती है तो उसके साथ लिंगचयन का मुद्दा हमेशा जोड़ दिया जाता है और इसपर फैसला दिया जाता है कि ये गलत और गैर-क़ानूनी है| हमारी ऐसी धारणा की कई वजहें हैं जिसमें प्रमुख है– लिंगचयन को अपराध बताने की बजाय गर्भसमापन को गलत ठहराने की आदत। भारतीय संविधान में गर्भसमापन को वैधानिक रूप दिया गया है। वहीं लिंगचयन के आधार पर होने वाले गर्भसमापन को गैर-क़ानूनी माना गया है। ये दोनों अलग-अलग बातें हैं, जिसे समझना बेहद ज़रूरी है। मैंने अक्सर लोगों को यह कहते हुए सुना है कि ‘भ्रूण कन्या हत्या का प्रमुख कारण गर्भसमापन की सुविधा का आसानी से उपलब्ध होना है।’ यहाँ ये समझने की ज़रूरत है कि अगर हम भ्रूण का लिंगचयन करते है तो मुख्य अपराध यही है।

मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमेंडमेंट) बिल, 2020 की बात करें तो लोकसभा में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी विधेयक-2020 पारित हो गया। इसमें गर्भसमापन की सीमा बढ़ाकर 24 हफ्ते करने का प्रवाधान है। इससे पहले महिलाएं अधिकतम 20 हफ्ते तक ही गर्भसमापन करा सकती थी। इस प्रावधान में दुष्कर्म पीड़िता, दिव्यांग और नाबालिग शामिल हैं। चिकित्सकीय, मानवीय और सामाजिक आधार पर इस प्रावधान को लागू किया जा सकता है क्योंकि इसकी अवधि 20 सप्ताह होने की वजह से महिलाओं को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता था।

क़ानून की जानकारी और इसके प्रचार की है ज़रूरत

मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमेंडमेंट) बिल, 2020 को भारतीय संविधान के एक सबसे प्राग्रेसिव क़ानून में से एक माना जाता है, जो सच भी है। लेकिन इस क़ानून की जानकारी सीमित होना, इस क़ानून के प्रभाव को प्रभावित करता है और वहीं दूसरी तरफ़ शोषण को बढ़ावा देता है। चूँकि भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में गर्भसमापन को सामाजिक रूप से महिला अधिकार के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है, लेकिन इस धारणा को चुनौती देने के लिए क़ानून की भूमिका बेहद मज़बूत और प्रभावी है, पर इस क़ानून का प्रभाव जानकारी के अभाव में ख़त्म हो जाता है और रिया जैसी ढ़ेरों युवा महिलाओं को शोषण और हिंसा का सामना करना पड़ता है, कई बार असुरक्षित गर्भसमापन की वजह से अपनी जान भी गँवानी पड़ती है। इसलिए ज़रूरी है कि इस प्रगतिशील क़ानून को सरोकार से जोड़ने की दिशा में काम किया जाए और स्कूल-कॉलेज स्तर पर भी इसके प्रति जागरूकता का प्रसार किया जाए।


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