सावित्रीबाई फुले हमारे देश की पहली शिक्षिका रही हैं। वह शिक्षिका जिन्होंने एक लंबी लड़ाई लड़ी इस देश की लड़कियों और औरतों के शिक्षा के अधिकार के लिए। लेकिन क्या हमारे स्कूलों और विश्वविद्यालयों में उनके ओहदे और कद के मुताबिक उनकी बात की जाती है, उनसे हमारा परिचय बतौर देश की पहली शिक्षिका क्या हमारे स्कूलों और कॉलेजों में करवाया जाता है?
ब्रिटिश शासन के उस दौर में जब अंग्रेज भारत में शिक्षा का प्रचार-प्रसार कर रहे थे और भारतीय पुरुष अपनी महिलाओं को केवल घर के चौका बर्तन तक सीमित रखना चाहते थे। ऐसे समय में सावित्रीबाई ने न केवल लड़कियों की शिक्षा के लिए काम किया बल्कि विधवा विवाह, गर्भवती बलात्कार पीड़ितों का पुनर्वास और छुआछूत मिटाने के लिए भी योगदान दिया। सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले ने 1848 में पुणे में पहला स्कूल खोला और 1853 में गर्भवती बलात्कार सर्वाइवर्स के लिए एक गृह की भी शुरुआत की।
वह एक शिक्षिका और समाज सुधारिका के साथ मराठी कवयित्री भी थीं। ‘फुले काव्य’ उनकी प्रसिद्ध रचना है। फुले दंपति ने 1873 में सत्यशोधक समाज की शुरुआत की और 25 दिसंबर 1873 को पहला विधवा पुनर्विवाह भी करवाया। भारत में सावित्रीबाई फुले प्रमाण हैं वास्तविक नारीवादी और सशक्तिकरण की। लेकिन आज हम देखते हैं कि उस दौर की ब्राह्मणवादी और पुरुष प्रधान सोच आज भी हमारे समाज में मौजूद है। आज भी स्कूली शिक्षा में सावित्रीबाई फुले का ज़िक्र तक नहीं किया जाता। सावित्रीबाई फुले देश की पहली शिक्षिका रही हैं लेकिन भारतीय शिक्षा व्यवस्था में स्कूली पाठयक्रम से लेकर परास्नातक तक न कोई चैप्टर/पाठ उनके बारे में पढ़ाया जाता है और न ही उनको लेकर कोई विशेष पाठयक्रम बनाया गया है।
हालांकि, महाराष्ट्र के कुछ विश्वविद्यालयों में सावित्रीबाई फुले को एक हद तक दर्ज ज़रूर किया गया है। लेकिन पूरे भारत के विश्वविद्यालयों में नहीं। इसका एकमात्र कारण जाति व्यवस्था का प्रभुत्व कहा जा सकता है क्योंकि सावित्रीबाई फुले किसी तथाकथित उच्च ब्राह्मण कुल से नहीं आती थीं बल्कि वह बहुजन समुदाय से ताल्लुक रखती थीं। जिस तरह भारत में प्रभुत्वशाली उच्च वर्गों ने अपने व्यक्तिगत, सामाजिक और आर्थिक लाभ के लिए जाति व्यवस्था का गठन किया उसी तरह उन्होंने इतिहास भी अपने लाभ के हिसाब से गढ़ दिया है।
अगर आप स्कूलों या स्नातक का इतिहास या राजनीतिक विज्ञान के सिलेबस को देखें, तो ब्रिटिश शासन के दौरान सशक्त महिलाओं में मात्र पंडिता रमाबाई का इतिहास पाएंगे जबकि उनसे पहले सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख जैसी महिलाएं सामाजिक सशक्तिकरण के लिए काम करती रही थीं। लेकिन इन वीरांगनाओं के इतिहास से विद्यार्थियों को वंचित रखा जाता है।
शिक्षक दिवस आज भी आधिकारिक तौर पर सर्वपल्ली राधाकृष्णन को समर्पित क्यों?
डॉ. राधाकृष्णन 1962 में भारत के राष्ट्रपति बनते हैं। उनके मित्रों और छात्रों द्वारा उनका जन्मदिन मनाने की अनुमति पर वह उन्हें सुझाव देते हैं कि वे इसे शिक्षक दिवस के रूप में मनाएं तो बेहतर होगा। और हर साल आधिकारिक तौर पर शिक्षक दिवस डॉ. राधाकृष्णन को समर्पित कर दिया गया।
हालांकि, महाराष्ट्र के कुछ विश्वविद्यालयों में सावित्रीबाई फुले को एक हद तक दर्ज ज़रूर किया गया है। लेकिन पूरे भारत के विश्वविद्यालयों में नहीं। इसका एकमात्र कारण जाति व्यवस्था का प्रभुत्व कहा जा सकता है क्योंकि सावित्रीबाई फुले किसी तथाकथित उच्च ब्राह्मण कुल से नहीं आती थीं बल्कि वह बहुजन समुदाय से ताल्लुक रखती थीं।
हमारे आधुनिक इतिहास के नेताओं और क्रांतिकारियों को तो इन दिवसों के माध्यम से पहचान मिली लेकिन शायद ही महिलाओं के योदगान को इस तरीके की विशेष उपाधि से नवाज़ा गया हो, ख़ासकर वंचित समुदाय से आनेवाली महिलाओं को। उदाहरण के तौर पर भारत के संविधान के निर्माण में जिन महिलाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उनके बारे में आज भी कोई सिलेबस विस्तार से नहीं बात करता है। संविधान निर्माण से और पीछे जाएं तो उच्च वर्गों की मानसिकता और पितृसता ने सावित्रीबाई और फ़ातिमा शेख जैसी महिलाओं को आज तक भी पाठ्यक्रमों में शामिल नहीं किया है।
जातिवादी समाज और इतिहास की भूमिका
18वीं और 19वीं शताब्दीं के दौरान जब एक आधुनिक भारत बनाया जा रहा था, यहां कि महिलाएं और दलित-शोषित समुदाय अभिजात वर्गों के शोषण का सामना कर रही थीं। महिलाएं समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता के कब्ज़े में थी उनके लिए शिक्षा एक अभिशाप की तरह थी, समाज उनकी शिक्षा और जागरूकता के खिलाफ़ था। ग़रीब और शोषित तबके के लोगों के साथ और अधिक समस्याएं थीं, वे स्कूलों और मंदिरों में प्रवेश नहीं कर सकते थे। यहां दो बातें मुख्य रूप से हावी थीं ब्राह्मणवादी और पितृसत्तात्मक मानसिकता जिसने इन तबकों को शताब्दियों तक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में प्रवेश से वंचित रखा।
सावित्रीबाई फुले ने उस दौर में जो निर्णय लिए उन्होंने बहुजन तबके के लोगों को आगे बढ़ने का मौका दिया और एक नया इतिहास गढ़ दिया। वह इतिहास जिस से आज महिलाएं और दलित-बहुजन समुदायों से आनेवाले लोगों को ही दूर रखा जाता है। यह प्रभुत्वशाली वर्गों द्वारा बहुजन समुदाय आनेवाले विद्यार्थियों को उनके इतिहास से वंचित रखने का एक प्रयास ही रहा है। दलित-पिछड़े और महिला इतिहास की जानकारी निष्पक्ष रूप से विद्यार्थियों को विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में नहीं दी जा रही है। आज हम जो जागरूकता देखते हैं, ये केवल सोशल मीडिया के माध्यम से आ सकी है। लेकिन सवाल वही है कि आनेवाली पीढ़ियों को इतिहास से मिलवाना शिक्षा व्यवस्था का दायित्व है, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का नहीं। इस लीक में ज़रूरी है कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था निष्पक्षता के साथ पाठयक्रम बनाए।
इसे कैसे बेहतर किया जा सकता है?
समावेशी शिक्षा व्यवस्था की जब बात की जाती है तो ज़रूरी है कि समावेशी इतिहास भी इसमें निष्पक्षता के साथ शामिल किया जाए। पाठ्यक्रम का निर्माण करते वक्त आधुनिक भारत के निर्माण में दल्त, बहुज, वंचित तबकों से आनेवाली हस्तियों का ज़िक्र ईमानदारी से करना बेहद ज़रूरी है।
अधिकतर हम पाते हैं कि स्कूली पाठ्यक्रमों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम है और अधिकतर उन्हें पारंपरिक भूमिकाओं में चित्रित किया गया है। स्वतंत्र और अपने काम में मुखर रहीं महिलाओं को अधिकतर सिलेबस में नहीं जोड़ा गया है। इंस्टिट्यूट फॉर पॉलिसी रिसर्च द्वारा बनाई गई एक कमेटी ‘स्कूली पाठ्पुस्तकों की सामग्री और डिजाइन में सुधार’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, इसने NCERT को सुझाव दिया कि पाठ्यपुस्तकों को लैंगिक समावेशी बनाने, उभरते व्यवसायों में महिलाओं को चित्रित करने, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भूमिका का पर्याप्त प्रतिनिधित्व करने का प्रयास करना चाहिए। अभी तक इन्हें विस्तारित तौर पर स्कूली सिलेबस में प्रभावी नहीं किया गया है।